तानाशाह का अंत बुरा होता है। हिटलर (Hiter) -मुसोलिनी और तानाशाहों के किस्सों का सुखांत इस बिंदु पर हो जाता है। मगर क्या आपने कभी ख्याल किया, कि एक आक्रामक, हिंसक राष्ट्रवाद और धार्मिक रेसियल सुपीरियरटी (Religious Racial Superiority) का नशा फटने के बाद, उसकी नस्लों का क्या होता है?
30 अप्रैल 1945 को हिटलर ने आत्महत्या कर ली। बर्लिन शहर के लोग अक्चकाये हुए, रूसी सैनिकों के सामने सर झुकाकर निकल रहे थे। उन्हें कुछ दिन पहले तक जीत, जीत और सिर्फ जीत की खबरे आती थी। रेडियो यही बताता था। रेडियों उन्हें 12 सालों से सिर्फ यही बताता था। वे आर्य हैं, बेजोड़ हैं, वे दुनिया जीतने और राज करने को बने हैं। उनके साथ धोखा हुआ है, उन्हें प्राचीन गौरव वापस पाना है। उनका लीडर हिटलर जीनियस, ब्रेवहार्ट, ईमानदार देशभक्त है। उसकी सारी बातों पर भरोसा करते।
वे सारे नाजी पार्टी के सदस्य थे। उन्होंने अपने देश के गद्दारों को साफ कर दिया था। उन्हें सड़कों पर घसीटा था, घरों में आग लगाई। पढ़ा लिखा आम शहरी इस खेल में मजा लेकर शामिल था। शिक्षकों ने नफरत फैलाई थी, डॉक्टरों ने उन्हें मारने के लिए जहर खोजे, नर्सों ने इंजेक्शन लगाए, साइंटिस्ट ने गैस चेम्बर्स का अविष्कार किया, फौजियों ने गोली मारी, एकाउंटेंट्स ने लूट के हिसाब रखे।
उन्होंने अपने बच्चो को “हिटलर यूथ”में भेजा। सेनाएं जॉइन कराई, एसएस में डाला। वे सुबह से शाम देश के लिए जीते मरते। कोई कमी नही की थी, तो अचानक यह हार हर जर्मन के लिए सदमा था। प्रथम विश्वयुद्ध से मित्रराष्ट्रों ने सबक लिया था। उस वक्त युद्धविराम हुआ था। जर्मनी के कई हिस्से अलग कर दिए गए, उसकी फैक्ट्रीज, सेना, आयुध पर सीमा बांध दी गयी। विस्तारवादी राजा निर्वासित किया गया। एक लोकतांत्रिक चुनी हुई सरकार जर्मनी में इंश्योर की गई। यह सब करके उन्होंने मान लिया कि जर्मन खतरा टल गया।
मगर जर्मन राजा नही, जर्मन जनता विस्तारवादी थी। वह बिस्मार्क से कैसर एक विस्तारवादी, आक्रामक हीरो खोज लेती थी। उसे लोकतंत्र पसन्द न था। उसके खून में जर्मन रेस के लिए उच्चता, और दूसरों के लिए तुच्छता का भाव था। यह भाव, वर्साइल की संधि से आहत था। हिटलर यह बखूबी जानता था। उसने इस खूनी विस्तारवाद (Bloody expansionism), उच्चता और तुच्छता के भाव को नए सपने दिए। लोकतंत्र को जिस तरह उखाड़ फेंका, बड़ा हीरोइक काम था। उसके धोखे, उसके झूठे शांति प्रस्ताव, फिर अचानक से घुसकर किसी देश को जीत लेना… इस एक्सपैंशन और क्रूर कारनामों में जर्मनी का आम नागरिक सहयोगी था, आल्हादित था।
हिटलर ने देश को ऐसा ढाला था, कि वहाँ कोई एक तानाशाह नही था। हर जर्मन अपने आप मे एक तानाशाह था। मित्र राष्ट्रों ने इस गर्व को कुचलने का निर्णय लिया था। तो इतिहास में पहली बार बर्लिन की सड़कों पर विदेशी सेना के बूट परेड कर रहे थे। रशियन्स पहले आये, फिर पश्चिमी देश। हिटलर ने आत्महत्या कर ली। पीछे छोड़ गया खंडहर, वीरान, लाशों, विधवाओं और अनाथ बच्चो से भरा एक नर्क। यह विजेताओं की मुट्ठी में था।
1936 के बाद जीते सारे प्रदेश उनके मूल देशों को वापस किये गए। वहां सरकारें बहाल हो गयी। अब वहां से आर्यपुत्रों को वैसे ही खदेड़ा जाने लगा जैसे वो ज्यूज और दूसरे एथनिक ग्रुप्स को हिटलर राज में खदेड़े रखते थे। कोई पांच लाख जर्मन उन जगहों से जर्मनी में भागे भागे आये। जर्मनी में अपनी सरकार नहीं दी गई थी। उसे चार भागों में बांटा गया था। रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका ने एक-एक इलाके में प्रशासन सम्भाला। इन इलाकों से प्राकृतिक संसाधनों की लूट मची। आखिर युध्द में हुए नुकसान का हर्जाना जर्मन को ही भरना था।
देश बड़े अच्छे और सभ्य होते हैं सेनाएं नहीं। रेप, लूट, मर्डर .. नाजी खोज-खोज कर पकड़े गए, मारे गए, जेल में डाले गए। जर्मनों का जीवन मौत के मानिंद था। ध्वस्त घरों में रहते, खाना खोजते, सस्ते श्रम के काम खोजते, सिगरेट-वाइन- केक के लिए तन बेचते। जहां तहां भग्न हथियारों, टैंकों, टूटे पुल, फैक्ट्रीज, रेलवे स्टेशनों में भटकते बच्चे।। इस दौर में जनता का डी-नाजीफिकेशन किया जा रहा था। शिक्षकों, यूनिवर्सिटी स्कूलों (के खंडहरों) में पाश्चत्य नैतिक मूल्यों, शांति, प्रेम, डेमोक्रेसी, और क्रिश्चियनिटी के मानवीय मूल्य समझाए जाते। यह नाटक कोई पांच साल चला। फिर जर्मनों को अपनी सरकार बनाकर धीरे धीरे सत्ता हस्तांतरण की रूपरेखा बनने लगी।
एलाई ताकतों में आपसी फूट पड़ी। रूस ने अपने जर्मन इलाके को एक अलग देश बना दिया, एक कम्युनिस्ट देश। इधर एलाइज ने अपने इलाके को अलग देश बना दिया। हिटलर का थर्ड राईख सूखे पत्ते के मानिंद टुकड़ों में बंट चुका था। बर्लिन पूर्वी जर्मनी में था। पहले वह मित्रराष्ट्रों के केंद्रीय मुख्यालय के रूप में था। वह भी चार सेक्टर में बंटा था। अब तीन भाग पश्चिम बर्लिन बन गए, एक भाग पूर्वी बर्लिन। 60 के दशक में दोनों के बीच दीवार बन गयी।
अब यह देश विश्व ताकतों का खिलौना बन गया था। पश्चिम बर्लिन में सरकार कैप्टिलिज्म औऱ खुलेपन की पश्चिमी नीतियों पर चलती, पूर्व में कम्युनिज्म पर। दोनों सरकारे कहने को सम्प्रभु थी, मगर थी पपेट। हिटलर की मौत के 45 साल तक यह तमाशा चलता रहा। मास्को में कम्युनिज्म के कमजोर होने के कारण हंगरी ऑस्ट्रिया की सीमा खुल गयी। यहां से होकर लोग ईस्ट जर्मनी से वेस्ट जर्मनी भागने लगे। यूनिफिकेशन की मांग होने लगी, और मास्को इसे काबू करने की हालत में नही था। अंततः 1945 के पोत्सडम समझौते को लागू किया गया।
1990 में दोनों जर्मनी एक हुए वह सम्प्रभु राष्ट्र हुआ। 1936 की अवस्था मे जर्मनी लौटा- कुल 55 साल बाद। आप तीन पीढ़ी मान लीजिए। इसके एक ही पीढ़ी बाद जर्मनी फिर यूरोप का सिरमौर है। मगर युद्ध और सामरिक रूप से नही। अपने व्यापार, इन्नोवेशन, आर्थिक प्रबन्धन और अपने लोगो की कामकाजी स्किल की बदौलत। नाजी चिन्ह, नाजी विचार वहां बैन हैं। अब खुद की सुपीरियटी और दूसरों की तुच्छता के कीड़े से मुक्त जर्मन समाज यूरोप की शांतिप्रिय सोसायटी है। तीन पीढ़ी, 55 साल बर्बाद कर उन्होंने सबक लिया है.. यह कि – “तानाशाह को पालने वाले नफरती समाज का हश्र बुरा होता है”
इस मामूली सबक के लिए आपको तीन पीढ़ियां नहीं लगानी। सिर्फ इतिहास पढ़ना है। अगर पढ़ सकें तो..
साभार- मनीष सिंह रिबॉर्न