बुंदेलखंड के इतिहास (History of Bundelkhand) में सन 1727 का युद्ध बहुत अहम था। इस युद्ध मे बंगश खान बुंदेलखंड के अपार संपदा में कब्जा करना और यहाँ के हिन्दू स्त्रियों को लूटना चाहता था। चाहे मुगल हो, चाहे पठान हो, चाहे तुर्क हो या अरबी सबका एक ही लक्ष्य रहता था। हिन्दू संपदा और उनकी औरतों को लूटना। इसी लक्ष्य के साथ बुंदेलखंड में अपने नापाक कदमों को बंगश खान रखता है। बंगश खान जिसके साथ मुस्लिमों की भारी सेना थी। यह इलाहाबाद का जागीरदार था और अपनी बड़ी सेना के सहारे छत्रसाल बुंदेला के छोटे बेटे जगतराज की राजधानी जैतपुर में कब्जा कर लेता है। आधे बुंदेलखंड में अपना परचम लहराकर बंगश खान छत्रसाल बुंदेला की रीढ़ की हड्डी तोड देता है।
बुंदेलखंड का इतिहास है कि यहाँ पर सूर्यवंशी(बुंदेला) और चंद्रवंशी (यादवों) का मजबूत गठजोड़ था। यहाँ धर्मपूर्वक दोनों वंश के शासक प्रजापालन करते थे। ब्राह्मण, संत, गौ सभी को संतुष्ट रखा जाता था। बुंदेलखंड केसरी छत्रसाल बुंदेला की सेना में चंद्रवंशी क्षत्रिय यादव सबसे ज्यादा थे। इसमें अतिश्योक्ति न होगी पूरे भारत में गुजरात और बुंदेलखंड (मध्यप्रदेश) के यादव ही हैं, जो आज तक अपनी परंपरा का निर्वहन करते आ रहे हैं और जिनके मुख से गौ व ब्राह्मण के लिये कभी अशब्द नही निकलता।
बुंदेलखंड में जब बंगश खान का खतरा मंडरा रहा था। तब यादव श्रेष्ठ (दमघोष शाखा के चेदि नरेश शिशुपाल के वंशज़) महाराज किरात सिंह जिन्हें ब्राह्मण पुरोहितों ने अच्छे प्रजापालन करने के लिए “जूदेव” उपाधि से नवाजा था। वो अपने साथ यदुवंशियों की सेना (Army of Yaduvanshis) लेकर प्रस्थान कर दिये छत्रसाल की मदद के लिए। बुजुर्ग नरेश छत्रसाल जिन्होंने अपनी युवा अवस्था में मुगलों का मुकाबला किया था। जब वो बुजुर्ग हुए तो उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। आये तो सिर्फ दो लोग महाराज कीरत सिंह और पेशवा बाजीराव।
जो गति भई गजेंद्र की, वही गति हमरी आज।
बाजी जात बुंदेल की, बाजी रखियो लाज।
छत्रसाल बुंदेला के महल की औरतें चिताएं सजा रही थीं जौहर के लिए। उधर अजमेर मुहिम से आने के बाद बाजीराव की सेना तंबू में विश्राम कर रही थी। जब छत्रसाल बुंदेला का पत्र ब्राह्मण श्रेष्ठ पेशवा बाजीराव (Peshwa Bajirao) को मिला तो उन्होंने अपना खाना छोड़ दिया और अपने सरदारों से कहा पंत युद्ध मे कूच करने की तैयारी करो। जब तक बाजीराव के शरीर में मराठा रक्त बह रहा है। तब तक कोई भी हिन्दू राजा अकेला नही है और न ही तब तक किसी भी हिन्दू स्त्रियों को जौहर करने की जरूरत है। “हर हर महादेव” का नारा लगाकर पेशवा की सेना छत्रसाल की मदद के लिए कूच कर गई और 10 दिन का सफर 3 दिन में तय कर लिया।
बाजीराव को आते देख छत्रसाल की सेना में उमंग जाग गया, मराठा सैनिक “हर हर महादेव” का नारा लगा रहे थे। वहीं महाराज कीरत सिंह के सैनिक “जय बलभद्र” का नारा लगा रहे थे। बाजीराव के आने के बाद बुंदेलखंड को सहारा मिल गया और तब शुरू हुआ मौत का तांडव, बाजीराव अपनी चंद्रहास खड़क की प्यास बंगस खान के सैनिकों के रक्त से बुझा रहे थे। युद्ध के लिए उतावले रहने वाले मराठा ज़बरदस्त मारकाट मचाये थे। बाजीराव की तलवार के प्रहार से घोड़े समेत दुश्मन कट रहे थे। बाजीराव का दण्डपटका तो सर काटने की होड़ लगा हुआ था। उधर कीरत सिंह के नेतृत्व वाली सेना भी शत्रु दल में घुसकर रक्तपात कर रही थी। कीरत सिंह शौर्यता के साथ शत्रु दल का दमन कर रहे थे।
यदुकुल वीर महाराज कीरत सिंह ने अपनी तलवार से शत्रु दल में लाशों का अंबार लगा दिया। तब धूर्तता में मर्मज्ञ बंगस खान ने कीरत सिंह को उनकी सेना से दूर भिजवा दिया और उनकी अकेले में निर्मम हत्या कर दी। शेर तो मर गया पर अपनी तलवार को दुश्मनों के चरणों मे नहीं सौंपा। उधर बाजीराव को अहसास हो गया था कि, बंगश खान कभी भी युद्ध छोड़कर भाग सकता हैं। जिसमे इन लोगों को महारत भी हासिल थी। बाजीराव अपने दण्डपटका से बंगश खान की बचाव में खड़ी सेना को काटते हुए उसके घेरे में घुस गये। रौद्र रूपी महाकाल की भांति बाजीराव की आँखें लाल हो गई थी। शत्रु दल के नरमुंडों को बाजीराव ने अपने पैरों तले दबाया था। बाजीराव ने बंगश खान की ओर देखते हुए अपने दल में कहा पंत कंधा दो।
श्रीमंत पंत के कंधों के सहारे बंगश खान के पास पहुँच गये और उसके शीश को काट दिया। इस युद्ध में मराठाओं ने शत्रु दल के सैनिकों के मांस की कीच जमा दी,लहू से भूमि सन चुकी थी। बंगश खान की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया और बुंदेलखंड का आधे से ज्यादा जो हिस्सा बंगश ने कब्जा कर लिया था, उसे बाजीराव ने पुनः छत्रसाल बुंदेला को दे दिया। महल की स्त्रियों ने जौहर की चिताओं को बुझा दिया। श्रीमंत पेशवा बाजीराव का सम्मान करने के लिए पूरा बुंदेलखंड नतमस्तक हो गया।
कुछ लोग कहते हैं, महाराज कीरत सिंह की मृत्यु 1727 के युद्ध मे हुई थी, कुछ कहते हैं 1728 में पर ये बात सत्य है कि युद्ध में वो शामिल जरूर थे। अधिकतर लोगों का यहीं कहना है कि इस युद्ध में ही कीरत सिंह का निधन हो गया था। उसके अनुसार हमने उनका यहाँ विवरण दिया है।