आपने महारानी एलिज़ाबेथ का नाम तो खूब सुना होगा लेकिन क्या कभी सोचा कि उनके पति कौन हैं? कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि ब्रिटेन का शासन महारानी के पास है ना कि उनके पति के पास. उनका नाम प्रिंस फ़िलिप (Prince Philip) था और दो दिन पहले वो 99 साल की उम्र पूरी करके दुनिया से चले गए. आज उनके बहाने एक दिलचस्प कहानी सुनाऊँगा जो आपने शायद सुनी नहीं होगी. इसे सुनना इसलिए भी चाहिए क्योंकि इसके कई पात्रों से आप थोड़ा बहुत परिचित हैं और इसलिए भी क्योंकि इससे आपको उस परिवार के इतिहास को जानने में मदद मिलेगी जिसने दो सौ साल तक हमारे मुल्क पर राज किया. ज़रा लंबा है लेकिन इतिहास में रस लेनेवालों को छोटा ही लगने वाला है.
प्रिंस फ़िलिप की जड़ें
ब्रिटिश राजघराने की परंपरा के मुताबिक राष्ट्र प्रमुख वही होगा जो मूलतः राजपरिवार से होगा. यही वजह थी कि फिलिप प्रिंस रहे और औपचारिकताएं निभाते हुए आजीवन अपनी शासक पत्नी के पीछे चले. मुझे उनके बारे में ज़्यादा नहीं पता था लेकिन वेब सीरीज़ “द क्राउन” ने बहुत गहरी जानकारियां दीं. इसके बाद तो मैंने उनके बारे में खोज खोजकर पढ़ा. जो पढ़ा वो इतना दिलचस्प है कि लिखना पड़ा. फिलिप साल 1921 में पैदा हुए थे. जगह ग्रीस थी और वो डेनमार्क राजपरिवार से आते थे. मूलतः वो इन दोनों देशों के ही राजकुमार थे और शासक बनने के क्रम में भी आते थे लेकिन क़िस्मत में कुछ और लिखा था. उन्होंने कई देशों में पढ़ाई की और फिर दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटिश नेवी ज्वॉइन कर ली जिसके बाद युद्ध में भी शामिल हुए. दरअसल वो अपने नाना के कदमों पर चल रहे थे.
अब मज़ेदार बात बताता हूँ जिसे जानकर आपको हैरानी होगी. फ़िलिप के नाना का नाम लुई माउंटबेटन था. कुछ जाना पहचाना नाम लगा?? लेकिन ठहरिए, ये वो वाले माउंटबेटन नहीं हैं. उनको आना है थोड़ी देर बाद. तो ये जो फ़िलिप के नाना थे जिनका नाम लुई था वो ऑस्ट्रिया में पैदा हुए और ब्रिटिश नेवी का हिस्सा बने जो फ़िलिप ने भी किया. 40 साल के शानदार करियर के बाद 1912 में लुई नेवी के पहले “सी लॉर्ड” बन गए यानि एक तरह से ब्रिटिश रॉयल नेवी (British Royal Navy) के प्रमुख. उस वक्त जल सेना बेहद प्रतिष्ठित, शक्तिशाली और साम्राज्य को बरकरार रखने में सबसे प्रभावशाली टूल थी. समस्या तब पैदा हुई जब पहला विश्वयुद्ध छिड़ा. ब्रिटेन में एंटी जर्मन भावना ज़ोरों पर थी क्योंकि विरोधी गुट का नेता जर्मनी था. ऐसे में लुई की जर्मन पारिवारिक पृष्ठभूमि ने विवाद खड़े कर दिए. उन्हें सेना से जबरन रिटायरमेंट लेना पड़ा और अपनी सभी जर्मन उपाधियां त्यागनी पड़ीं. एक अंग्रेज़ दिखनेवाला उपनाम “माउंटबेटन” भी उन्होंने तभी धारण किया. पहले वो बैटनबर्ग कहलाते थे.
ब्रिटिश राजघराना अंग्रेज़ कम जर्मन ज़्यादा है
मज़ा तो ये था कि खुद ब्रिटिश राजपरिवार भी जर्मन मूल का था जिसके चलते ब्रिटिश जनता में ये बात चर्चा पाने लगी कि शाही परिवार अपने नाते रिश्तों के चलते जर्मनी से हमदर्दी रखता है. यदि आप ब्रिटिश राजपरिवार के इतिहास में जाएँ तो पाएँगे कि अधिकांश रानियां जर्मन ही थीं. साल 1830 में जब अंग्रेज़ भारत में जड़ें जमा रहे थे तब राजा जॉर्ज चतुर्थ का निधन हो गया. वो बहुत विलासी थे सो जल्दी दुनिया से मुक्ति पा गए जिसके बाद राजगद्दी पर बैठने का मौक़ा मिला उनके छोटे भाई किंग विलियम चतुर्थ (King william IV) को. अगले सात साल वो भी राजा रहे और किसी वैध संतान के बिना गुज़र गए. उनके भाई थे एडवर्ड जिनकी बेटी थी विक्टोरिया. एक साल की थी कि एडवर्ड की मौत हो गई. अब वो विक्टोरिया जो शासक बनने की दौड़ में थी ही नहीं अचानक वारिस हो गईं लेकिन उम्र 18 से कम थी. कानूनन वो शासक बन नहीं सकती थीं. माँ ने धाराप्रवाह जर्मन बोलनेवालीं विक्टोरिया को अलग-थलग रखकर सख़्ती से पाला. आख़िरकार विलियम चतुर्थ जब मरे तब विक्टोरिया 18 साल की हो चुकी थीं नतीजतन रानी बनी और उनकी शादी अल्बर्ट नाम के राजकुमार से हुई जो रिश्ते में उनका ममेरा भाई था.
अब तक ब्रिटिश परिवार को ‘हैनोवर वंश’ का माना जाता था जो मूल रूप से जर्मन राजवंश ही था. शादी के बाद नाम बदला गया और पहले से अधिक ठेठ नाम रखा गया- ‘सैक्से कोबर्ग एंड गोथा’. दोनों की नौ औलादों में से पाँच ने जर्मनों से शादी की. भारत की साम्राज्ञी बनने का सौभाग्य भी इन्हीं महारानी विक्टोरिया को मिला. 1901 में विक्टोरिया की मौत के बाद बेटे किंग एडवर्ड सप्तम ने गद्दी सँभाल ली जिनकी ख्याति तब प्रेम संबंधों के कारण थी. उनकी शादी डेनमार्क के शाही ख़ानदान से संबंध रखनेवाली एलेक्ज़ेंड्रा से हुई. उनका बड़ा बेटा गद्दी पर बैठने से पहले ही मर गया लेकिन छोटे बेटे जॉर्ज पांचवें ने शासन संभाल लिया जो भारत भी आए और उनकी याद में गेट वे ऑफ इंडिया बना. बस यही दौर था जब पहला विश्वयुद्ध छिड़ा. ब्रिटेन के राजा की टक्कर रिश्ते में उनके भाइयों से ही हो रही थी. इसे ऐसे समझें कि जर्मन शासक विल्हेम की मां ब्रिटेन के राजा जॉर्ज की बुआ थी. वहीं रूस का ज़ार निकोलस और जॉर्ज मौसेरे भाई थे. ब्रिटिश जनता की पूरी स्वामिभक्ति पाने का समय आ चुका था. राजा ने अपने वंश का नाम थोड़ा अंग्रेज़ियत भरा रखा- हाउस ऑफ विंडसर ताकि उससे जर्मन असर पूरी तरह ख़त्म हो जाए. विंडसर असल में उनके पसंदीदा महल का नाम था. ये इसलिए भी बता रहा हूँ क्योंकि आगे काम आएगा.
एक राजा जिसने मोहब्बत के लिए गद्दी त्याग दी
इसके बाद जॉर्ज पंचम के बेटे एडवर्ड आठवें महज़ साल भर के लिए 1936 में राजा बने. वो एक अमेरिकन सोशलाइट वॉलिस सिंपसन से शादी करना चाहते थे जिसका एक तलाक हो चुका था और दूसरा होनेवाला था. ब्रिटेन के मंत्री ऐसे संबंध को स्वीकारना नहीं चाहते थे, दूसरी तरफ़ चर्च ऑफ इंग्लैंड के प्रमुख होने के नाते भी ये स्थिति राजा के लिए असहज थी क्योंकि उस समय चर्च ऐसी शादियाँ नहीं मानता था जिसमें जीवनसाथी के ज़िंदा रहते दूसरी शादी की जाए. एडवर्ड को पता था कि पीएम बाल्डविन शादी के मुद्दे पर इस्तीफ़ा देंगे जिससे चुनाव के हालात बनेंगे और चूँकि मुद्दा ख़ुद एडवर्ड होंगे तो ऐसे में राजप्रमुख के नाते निष्पक्ष नहीं रह सकेंगे. नतीजतन उन्होंने ही राजगद्दी को अलविदा कह दिया. छोटे भाई जॉर्ज छठे को गद्दी मिल गई जो भारत की आज़ादी के वक्त भी शासन कर रहे थे. ये वही हैं जिन पर एक शानदार फ़िल्म ‘किंग्स स्पीच’ बनी है. उनकी ही बेटी एलिज़ाबेथ ने 1952 में ब्रिटिश साम्राज्ञी का पद संभाला और आज तक क़ायम हैं. उनकी शादी फ़िलिप से हुई जिनकी हम बात कर रहे हैं.
अब लौटते हैं लुई माउंटबेटन पर जिनकी शादी महारानी विक्टोरिया की पोती से हुई थी जिससे उन्हें एक बेटी एलिस हुई. दूसरी बेटी लुई भी हुई जो स्वीडन के राजा गुस्ताफ एडोल्फ की रानी बनीं और साल भर बाद एक पुत्ररत्न प्राप्त हुआ जिसे आप सब जानते हैं. उसका नाम था लॉर्ड लुई माउंटबेटन. वही जनाब जो भारत के अंतिम वायसराय थे. चौथी संतान भी एक बेटा था पर वो अहम नहीं.
आगे की कहानी में दो ही पात्र अहम हैं. राजकुमारी एलिस जो प्रिंस फिलिप की मां थीं और लॉर्ड लुई माउंटबेटन जो फिलिप के मामा थे.
तन्हां फ़िलिप के बढ़ते कदम
हुआ ये कि एलिस बड़ी शान शौकत में पली बढ़ीं. जन्म से बहरी थीं. शादी हुई उनकी ग्रीस के राजा के बेटे से. नाम था एंड्रयू. ये साहब डेनमार्क राजपरिवार के पोते भी थे इसीलिए मैंने शुरू में कहा कि फिलिप ग्रीस और डेनमार्क दोनों जगह के शासक बनने के क्रम में आते थे लेकिन उन्होंने तो ब्रिटिश नेवी ज्वॉइन कर ली. ख़ैर बात उनकी माँ एलिस की. साल 1930 में ग्रीस की तमाम राजनीतिक उथल-पुथल के बीच वो सीज़ोफ्रेनिया की मरीज़ हो गईं. फिलिप महज़ नौ साल के थे. उनकी मां को स्विट्ज़रलैंड के सेनिटोरियम में भर्ती करा दिया गया और कुछ स्वस्थ होने पर वो समाजसेवा में जुट गईं. जिस समय दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा वो एथेंस में थीं और यहूदियों को शरण देती रहीं. उनके इस मानवतावादी काम के लिए इज़रायल और यहूदी समुदाय आज भी उनको याद करता था. यहूदी विरोधी माहौल में वो बड़ा काम था. आगे भी वो समाजसेवा करती रहीं लेकिन फिर 1967 में ग्रीस में सैन्य शासन आने पर फिलिप-एलिज़ाबेथ ने उन्हें बकिंघम पैलेस ही बुला लिया जहां दो साल बाद वो गुज़र गईं. फ़िलिप अपने पूरे जीवन माँ से दूर रहे. उनकी चार बड़ी बहनें भी थीं और सभी की शादी जर्मन्स से हुई.
फ़िलिप को बचपन में ही ग्रीस छोड़ देना पड़ा. कारण ये था कि ग्रीस एक युद्ध में तुर्की से हार गया जिसका ठीकरा राजपरिवार पर फोड़ा गया. ग्रीक सेना ने ही सबको बंदी बना लिया लेकिन एंड्रयू की क़िस्मत अच्छी थी और उन्हें पत्नी-बच्चों समेत फ़्रांस जाने की इजाज़त मिल गई. फ़िलिप पहले वहीं पढ़े और आगे पढ़ाई के लिए ब्रिटेन चले गए जहां अपनी नानी के पास रहने का मौक़ा मिला. फिर उनका दाख़िला अपने ही एक रिश्तेदार के स्कूल में हुआ जो जर्मनी में था लेकिन चूँकि जर्मनी में नाज़ी प्रभाव बढ़ रहा था और स्कूल मालिक यहूदी था तो पूरे स्कूल को ही स्कॉटलैंड शिफ्ट कर दिया गया जिसके साथ फ़िलिप भी वहीं चले गए. फिलिप ख़ुद को मामा माउंटबेटन के क़रीब पाते थे और एक बहन सेसिले भी थी जिससे करीबी थी लेकिन सेसिले की मौत अपने परिवार समेत एक प्लेन क्रैश में हो गई. सेसिले और उसका पति नाज़ी पार्टी के मेंबर थे. फ़िलिप ने आगे ब्रिटिश रॉयल नेवी कॉलेज में दाख़िला ले लिया और बेस्ट कैडेट के तौर पर पास होकर निकले. दूसरे विश्व युद्ध में वो ब्रिटेन के लिए लड़ रहे थे तो दो जीजा जर्मनी की ओर से. उनकी कई जहाज़ों पर तैनाती हुई और हर जगह उन्होंने ज़बरदस्त काम किया. जब जापान ने सरेंडर किया तो वो भी मौक़े पर मौजूद थे. जंग ख़त्म होने पर ब्रिटेन लौटे.
1939 में जब किंग जॉर्ज छठे अपनी पत्नी समेत रॉयल नेवी कॉलेज आए थे तब उनकी दोनों बेटी एलिज़ाबेथ और मार्गरेट की आवभगत का ज़िम्मा 18 साल के फ़िलिप को सौंपा गया था. उन्हीं मुलाक़ातों में एलिज़ाबेथ और फ़िलिप में प्रेम हो गया. मामा लुई माउंटबेटन ने भी इस संबंध को बढ़ावा दिया. उस समय एलिज़ाबेथ अपने पिता की उत्तराधिकारी भी बन चुकी थीं. साल 1946 में फ़िलिप ने शादी का प्रस्ताव रखा और एलिज़ाबेथ के पिता ने मान भी लिया. जल्द ही फ़िलिप ने अपनी ग्रीक और डेनिश उपाधियाँ त्याग दीं और ननिहाल की तरफ़ से रखा गया माउंटबेटन उपनाम मंज़ूर कर लिया ताकि पूरी तरह ब्रिटिश दिख सकें, आख़िर वो कभी ना कभी ब्रिटेन की महारानी के पति हो जानेवाले थे. शादी नवंबर 1947 में संपन्न हो गई. जर्मन्स से शादी करनेवाली उनकी किसी भी बहन को न्यौता नहीं दिया गया जबकि शादी का प्रसारण बीबीसी ने किया जिसे दुनिया भर के करोड़ों लोगों ने देखा. ये किसी भी ब्रिटिश शाही जोड़े की सबसे लंबी चलनेवाली शादी बनने वाली थी हालाँकि इसकी शुरूआत आसान क़तई नहीं थी.
ये अनुमान किसी को नहीं था कि एलिज़ाबेथ को इतनी जल्दी राजकाज सँभालना होगा. उनके पिता 1952 में अचानक चल बसे जब वो ख़ुद फ़िलिप के साथ कीनिया में थीं. अब सवाल पैदा हुआ कि राजवंश का नाम क्या रहेगा क्योंकि एलिज़ाबेथ तो फ़िलिप का उपनाम इस्तेमाल करतीं. लॉर्ड लुई माउंटबेटन की महत्वाकांक्षा जाग उठी. राजघराने में उनका अच्छा ख़ासा दखल था. वो चाहते थे कि उन लोगों के ही उपनाम पर राजवंश का नाम रहे. उन्होंने यही सुझाव रखा. उस समय जॉर्ज पंचम की पत्नी यानि एलिज़ाबेथ की दादी ज़िंदा थी. उन्होंने ब्रिटिश पीएम चर्चिल को सूचित किया जिन्होंने एलिज़ाबेथ को संभव दिया कि वो हाउस ऑफ विंडसर को बरकरार रखें. इसे स्वीकृति भी मिल गई और फ़िलिप काफ़ी आहत हो गए क्योंकि उनकी शिकायत थी कि वो देश के अकेले पिता हैं जिन्हें अपने बच्चों तक को उसका नाम देने की इजाज़त नहीं. कई साल बाद जब चर्चिल पीएम नहीं रहे और दादी भी चल बसीं तब एलिज़ाबेथ ने आदेश जारी किया कि उनके भावी पुरुष वंशज जो राजकुमार नहीं होंगे या अन्य उपाधि नहीं पाएँगे उन्हें माउंटबेटन-विंडसर कहा जाए.
फ़िलिप आख़िर थे तो पुरुष ही. वेब सीरीज़ द क्राउन में उनकी मनोदशा का अच्छा वर्णन है कि कैसे वो अपनी महारानी पत्नी की ताक़त के सामने ख़ुद को सीमित पाकर परेशान थे. इसका यथासंभव इलाज भी एलिज़ाबेथ ने किया. आदेश दिया कि किसी संसदीय व्यवस्था को अपवाद मान बाक़ी हर जगह केवल उनके पति को ही उनके बाद प्राथमिकता दी जाएगी. ये इसलिए ज़रूरी था क्योंकि औपचारिक तौर पर महारानी के बाद प्राथमिकता के क्रम में उनका वारिस आता है जो उनके बेटे प्रिंस चार्ल्स हैं. फ़िलिप को 1990 तक ब्रिटिश संसद की इजाज़त से सालाना 3 करोड़ 67 लाख रुपए मिलते रहे ताकि वो अपने लिए स्टाफ़ रख सकें और सरकारी कामकाज करते रहें. शुरूआती खींचतान के अलावा वो हमेशा अपनी पत्नी का सहारा बने रहे. अक्सर सलाह देते. दिए गए सरकारी कामों को पूरा करते. अपनी पत्नी के राज्याभिषेक का ज़िम्मा भी उन्होंने ही सँभाला और कई परंपराएँ तोड़ीं. कुछ साल बाद फिर एक आदेश निकालकर एलिज़ाबेथ ने उन्हें यूके के राजकुमार की उपाधि दी. इसके अलावा वो महारानी की सहायता करनेवाली कई समितियों के सर्वेसर्वा बनाए गए.
फ़िलिप पर डायना की हत्या का इल्ज़ाम
वैसे फ़िलिप दूसरों के प्रेम संबंधों में दखल नहीं देते थे लेकिन अपने बेटे चार्ल्स को लेकर फ़िक्रमंद थे. डायना के साथ उनके अफ़ेयर की ख़बरें उड़ रही थी लेकिन चार्ल्स कोई मन नहीं बना पा रहे थे. ऐसे में फ़िलिप ने ख़त लिखकर साफ़ कहा कि कोई फ़ैसला लो जिसके कुछ महीने बाद दोनों की शादी हुई जो आख़िरकार कई कोशिशों के बाद दुखांत तक पहुँची. चार्ल्स के विवाहेतर प्रेम संबंधों और डायना को लगातार महसूस होती घुटन का अंजाम 1996 का तलाक़ था जिसने पूरी दुनिया में सुर्ख़ियाँ बनाईं. ये भी सच है कि डायना हमेशा चार्ल्स से ज़्यादा चर्चा बटोरती थीं और कई बार कहा जाता रहा कि चार्ल्स ऐसे वक़्त में ठीक अपने पिता फ़िलिप की तरह महसूस करते थे जिन्हें शादी के शुरूआती दिनों में पत्नी के मुक़ाबले कम मिलते महत्व से खासी उलझन होती थी. तलाक़ के साल भर बाद डायना का एक कार हादसे में निधन हो गया. सब जानते थे कि शाही परिवार में डायना को लेकर नाराज़गी है लेकिन अंतिम यात्रा में पूर्व बहू को पूरा सम्मान दिया गया. हालाँकि कार हादसे में डायना के साथ मारे गए कथित प्रेमी डोडी फायेद के पिता ने कई साल तक आरोप लगाए कि डायना की हत्या में फ़िलिप का हाथ था. बाद में क़ानूनी जाँच हुई और दावे को ख़ारिज कर दिया गया.
फ़िलिप को उनके 90वें जन्मदिन पर महारानी ने लॉर्ड हाई एडमिरल का खिताब प्रदान किया जिसके बाद साल 2017 में 96 साल की आयु में वो शाही ड्यूटी से औपचारिक तौर पर रिटायर हो गए. साल 1952 से अब तक वो 22 हज़ार से ज़्यादा कार्यक्रमों में देश के लिए अकेले शिरकत कर चुके थे. उसी साल उन्होंने अपनी शादी की सत्तरवीं सालगिरह मनाई. साल 2019 में जब वो कार चला रहे थे तो दूसरी कार से टकरा गए. दो लोग हादसे में घायल हुए जिनसे फ़िलिप ने निजी तौर पर माफ़ी माँगी और अपना ड्राइविंग लाइसेंस सरकारी एजेंसी को लौटा दिया. इस हादसे को लेकर उन पर कोई भी क़ानूनी कार्यवाही नहीं की गई.
एक द्वीप पर फ़िलिप को ईश्वर माना जाता है
फ़िलिप को हवाई जहाज़ उड़ाने का बहुत शौक़ था और इसीलिए वो पहली बार चाँद पर पहुँचनेवालों से मिलने के लिए भी उत्साहित थे. कम से कम वेब सीरीज़ द क्राउन में तो यही दिखाया है, सच झूठ का पता नहीं. उस ऐपीसोड में फ़िलिप के दिल में उठते आध्यात्मिक सवालों को भी जिस ख़ूबसूरती से उकेरा गया वो अद्भुत है. आप ये जानकर हैरान होंगे कि वनातू नाम के एक छोटे से द्वीप पर जो ख़ुद में देश ही है प्रिंस फ़िलिप को ईश्वर माना जाता है जो ज्वालामुखी से पैदा हुआ. ये जगह ऑस्ट्रेलिया के पूर्व में है. यूट्यूब पर कितने ही वीडियो मिल जाएँगे जिसमें वनवासी फ़िलिप का दैवीय इतिहास बताते हैं. अब 99 साल की उम्र में उनका देवता धरती छोड़कर जा चुका है. एक सदी की यात्रा समाप्त हो गई है लेकिन वो फ़िलिप की तस्वीरें सीने से लगाकर घूम रहे हैं. फ़िलिप चले तो गए लेकिन ब्रिटिश शाही घराने के सबसे लंबे समय तक ज़िंदा रहनेवाले सदस्य बन गए हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब जीत के बावजूद ब्रिटेन ने सब धीरे धीरे खो दिया और उनकी पत्नी के ऊपर युवा अवस्था में महारानी का दायित्व आया तो फ़िलिप ने अपनी भूमिका समझने में देर नहीं लगाई. इस बात की तस्दीक खुद एलिज़ाबेथ ने भी की।
साभार- नीतीन ठाकुर वरिष्ठ पत्रकार