Holi 2023: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार काशी में मसाने (महाश्मशान) की होली की परंपरा की शुरुआत भगवान शिवजी से मानी जाती है। मान्यता है कि यहां रंगभरी एकादशी के दिन भगवान शिव माता गौरी का गौना कराने के बाद उन्हें काशी लेकर आये थे। ऐसे में इस दिन उन्होंने अपने गणों के साथ रंग-गुलाल की होली खेली थी, लेकिन श्मशान में बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष गन्धर्व आदि के साथ भगवान शिव (Lord Shiva) होली नहीं खेल पाये थे।
कहा जाता है तब रंगभरी एकादशी के दूसरे दिन भगवान शिव ने श्मशान में बसने वाले अपने प्रिय भूत-पिशाचों के साथ होली खेली थी। इसलिये रंगभरी एकादशी से लेकर पूरे 6 दिनों तक यहां होली होती है और हरिश्चंद्र घाट (Harishchandra Ghat) में महाश्मशान नाथ की आरती के बाद इसकी शुरुआत होती है। ये पर भस्म की होली खेलने की परंपरा सालों से चली आ रही है।
काशी में होली खेलने की परंपरा सबसे अलग और विचित्र है। यहां हरिश्चंद्र घाट और मणिकर्णिका घाट (Manikarnika Ghat) पर चिताओं के जलने और शवयात्रा का सिलसिला लगा रहता है। होली के दिन यहां रंगों से नहीं बल्कि चिताओं की भस्म से होली खेली जाती है। काशी में इस विचित्र होली खेलने के पीछे एक मान्यता है, कहा जाता है कि इस दिन भगवान शिव यहां रंग-गुलाल (Rang-Gulal) नहीं बल्कि चिताओं के भस्म से होली खेलते हैं।
पराम्परा के तहत रंग एकादशी के दिन सुबह जल्दी मर्णिकर्णिका घाट पर साधु और अघोरी (Sadhu and Aghori) लोग जमा हो जाते हैं। जहां डमरुओं की नाद के साथ बाबा मसान नाथ की आरती शुरु होती है। इसमें विधिपूर्वक बाबा मसान नाथ को गुलाल और रंग लगाया जाता है। आरती होने के बाद साधुओं की टोली चिताओं के बीच, मुर्दो के बीच इकट्ठा होकर हर हर महादेव के साथ ही चिता की भस्म के साथ होली खेलना शुरु करते हैं और होली खेल के मर्णिकर्णिका घाट पर स्नान करके लौट जाते हैं।
काशी के श्मशान के बारे में कहा जाता है कि यहां दाह संस्कार करने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मर्णिकर्णिका घाट पर शिव के कानों का कुण्डल गिरा था जो कि फिर कहीं नहीं मिला, जिसकी वजह से यहां मुर्दे के कान में पूछा जाता है कि कहीं उसने शिव का कुंडल तो नही देखा।