न्यूज डेस्क (शाश्वत अहीर): गुजरात उच्च न्यायालय ने आज (23 मई 2023) नई दिल्ली के उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना (LG Vinay Saxena) के खिलाफ अंतरिम राहत के तौर पर आपराधिक मुकदमे की कार्यवाही पर रोक लगा दी, क्योंकि उन्होंने अहमदाबाद मजिस्ट्रेट कोर्ट (Ahmedabad Magistrate Court) के फरमान को रद्द करने की मांग करते हुए अदालत का रुख किया था, जिसने उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे को स्थगित रखने से इनकार कर दिया था।
सक्सेना जिन्होंने मई 2022 में दिल्ली एल-जी के रूप में पदभार संभाला था, ने 1 मार्च को मजिस्ट्रेट कोर्ट के सामने उप-राज्यपाल के पद पर रहने की अवधि के दौरान उनके खिलाफ मुकदमे को स्थगित करने की मांग करते हुए आवेदन दायर किया था। अदालत ने 8 मई को उनके अनुरोध को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ मुकदमे की कार्यवाही पर रोक लगाने के लिये सरकार की ओर से कोई अनुरोध नहीं किया गया था और बाद में उनके खिलाफ एक अलग मुकदमा चलाने से अभियोजन पक्ष के गवाहों को खासा दिक्कत होगी।
सक्सेना मेधा पाटकर (Medha Patkar) समेत तीन अन्य सह-आरोपियों के साथ 2002 में पर दंगा, गैरकानूनी सभा करने और हमले के आरोपों का सामना कर रहे हैं।
आज न्यायमूर्ति मोक्सा ठक्कर (Justice Moxa Thakkar) की कोर्ट के सामने बहस करते हुए सक्सेना की अगुवाई करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता जल उनवाला (Senior Advocate Jal Unwala) ने कहा कि मजिस्ट्रेट कोर्ट ने कानून के उन मुद्दे की नहीं देखा, जिसमें कहा गया है कि “राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी अदालत में कोई भी आपराधिक कार्यवाही शुरू या जारी नहीं रखी जाएगी।” अधिवक्ता जल उनवाला ने इस दौरान भारत के संविधान के अनुच्छेद 361 (2) का हवाला दिया। जिसमें साफतौर पर कहा गया है कि “राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल की गिरफ्तारी या कैद की कोई प्रक्रिया उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी अदालत से जारी नहीं होगी।”
ये कहते हुए कि मजिस्ट्रेट कोर्ट की ऑर्ब्जवेशन अगर मौजूदा मुकदमे को रोककर एल-जी सक्सेना को सुरक्षा दी जाती है तो गवाहों को मुकदमे में देरी की वज़ह फिर से जांच की दरकार होगी, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गलत है कि भले ही मुकदमा चल रहा हो मजिस्ट्रेट अदालत भले ये निष्कर्ष निकाला गया हो, ये संविधान के अनुच्छेद 361 (3) के तहत बचाव के मद्देनजर उन्हें हिरासत में भेजने की स्थिति में नहीं होगा।
इसके अलावा ये तर्क दिया गया कि भले ही कथित अपराध को सक्सेना की व्यक्तिगत क्षमता में किया गया कहा जाता है, फिर भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 365 में दी गई प्रतिरक्षा के मद्देनजर मुकदमे को स्थगित करने की जरूरत है। इसके अलावा उनवाला ने कहा कि 94 मौकों पर शिकायतकर्ता मेधा पाटकर की ओर से दायर स्थगन आवेदनों के कारण सुनवाई में खासा देरी हुई है।
न्यायमूर्ति ठक्कर ने प्रतिवादी राज्य और शिकायतकर्ता पाटकर को भी नोटिस जारी किया और इसे 19 जून तक इस बारे में ज़वाब मांगा है।
7 अप्रैल, 2002 को जब कथित हमला हुआ था तो पाटकर शांति की अपील करने के लिए नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की एक बैठक में हिस्सा लेने के लिये साबरमती गांधी आश्रम में थी, जब गुजरात सांप्रदायिक दंगों से गुजर रहा था। इस मामले में साबरमती पुलिस स्टेशन (Sabarmati Police Station) में एक एफआईआर दर्ज की गयी थी और चार अन्य आरोपी – एलिसब्रिज के भाजपा विधायक अमित शाह, वेजलपुर के भाजपा विधायक अमित ठाकर, कांग्रेस नेता रोहित पटेल और सक्सेना – पर दंगा करने, स्वेच्छा से चोट पहुँचाने, शांति भंग करने, आपराधिक धमकी देने के इरादे से जानबूझकर अपमान करना, गलत तरीके से कानून कवायदों को रोकने के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है।
सक्सेना ने गुजरात उच्च न्यायालय (Gujarat High Court) के सामने अपनी याचिका में मांग की कि मजिस्ट्रेट कोर्ट की ओर से उनके खिलाफ मुकदमे को स्थगित रखने से इनकार को अलग रखा जाये। उच्च न्यायालय के समक्ष सक्सेना की याचिका ने इंगित किया है कि मजिस्ट्रेट अदालत ने संवैधानिक जनादेश के दायरे का उल्लंघन किया है और जबकि मजिस्ट्रेट अदालत ने सक्सेना के अनुरोध को खारिज करने के लिये में देरी का हवाला दिया।
सक्सेना की याचिका में कहा गया है कि जून 2005 में पाटकर को समन जारी किये जाने के बाद वो अपना साक्ष्य दर्ज करने के लिये 46 से ज्यादा स्थगनों में उपस्थित नहीं हुईं, और मामले में वो 2012 में पहली बार पेश हुईं। जुलाई 2015 और फरवरी 2023 के बीच कुल जब एक सह-अभियुक्त की ओर से पाटकर से जिरह की जा रही थी, तब से कुल मिलाकर वो 24 बार कानूनी सुनवाई के दौरान कोर्ट से नदारद रहीं।