देश में Committees की अहमियत और उसकी जरूरतें

इस देश में कमेटियों (Committees) का बहुत महत्व है। बाक़ी जगह का हमको अंदाज़ा नहीं लेकिन इससे यूपीएससी की तैयारी करनेवालों का काम ज़रूर बढ़ जाता है। रिटायरमेंट के बाद नाती-पोते खिला रहे कमेटी मेंबरों का भाव भी कुछ बढ़ जाता है। बेरोज़गारी के दौर में एक अदद कामधाम मिल जाना कोई छोटी बात नहीं है। उस उम्र तक पहुंचिएगा तो मालूम होगा।  कुछ बजट भी मंज़ूर हो जाता है तो फॉर ग्रांटेड भी फील (For Granted Feel) नहीं होता। यूं भी किसी कमेटी में नाम आ जाना व्यक्ति को प्रासंगिक बना देता है। घरवालों की नज़र में भी और आसपास वालों की नज़र में भी। मैंने तो कमेटी में नाम आने के बाद लोगों को कब्र से उठते भी देखा है।

भारत में कमेटियां पीएचडी की तरह होती हैं। रिपोर्ट सबमिट करने की डेट बढ़ती रह सकती है। फिर जमा हो जाए तो अगले चरण तक मामला पहुंचते पहुंचते आप निराश भी हो सकते हैं। वैसे दोनों के बीच सिर्फ समानताएं ही नहीं होतीं फ़र्क़ भी है, जैसे पीएचडी आपने जिस उद्देश्य से की वो पूरा हो ही जाए ज़रूरी नहीं, लेकिन कमेटियां अक्सर अपना उद्देश्य पूरा किया करती हैं, वो बात अलग है कि आपको ऐसा लगे नहीं। जब कोई कहानी फंस जाए और दिखाना भी ज़रूरी हो कि फंसी नहीं है बल्कि सुलझने के प्रोसेस में है तो कमेटी बनाई जाती है। विद्वज्जनों की पुकार होती है। अब विद्वत्ता के काम कोई जल्दबाज़ी में तो निपटाए जाते नहीं। लिहाज़ा कमेटी समय लेती हैं। बनानेवाला समय देता भी है। अधिकांशतः कमेटी बनाने और चाहनेवालों का यही उद्देश्य होता भी है। समय खपाना. समय खपाना कई बार अहम फ़ैसलों के लिए ज़रूरी होता है। इसके दो लाभ हैं, एक तो पब्लिक में हल्ला रहे कि टाइम लगाकर काम किया जा रहा है तो ज़रा इज़्ज़त करो और दूसरा ये कि टाइम बीतते बीतते पब्लिक उस पर्टिकुलर मामले से थोड़ा बोर होकर निकल लेती है। झगड़ा निपटाने का भी ये अनुपम रास्ता है। मान लीजिए दो पार्टियों ने आपस में सिर फोड़ लिए। कुसूरवार खोजने कमेटी बैठी। कमेटी वक्त लेगी तो कई बार वो इतना ले लेती है कि पार्टियां भी भूल जाती हैं कि कभी सिर फूटे थे। आखिर समय दर्द की दवा भी तो है। आपका आज ब्रेकअप हुआ तो कितने साल रो-धो लेंगे भला? कमेटी आपको पर्याप्त समय देती हैं कि आपको उसकी ज़रूरत ही ना रह जाए।

ये ज़रूरी नहीं कि कमेटियों की बात मानी ही जाए। अत: वो अंत में जो देती हैं। उनको आदेश नहीं सुझाव कहा जाता है। सुझाव में अपनी एक सुविधा है। कमेटी बनानेवाला सुझाव लेकर भी उसके ठीक उलट अपना मनचाहा काम ये कहकर कर सकता है कि, कमेटी के सुझाव बड़े काम के थे। इससे कामकाज का लोकतंत्र जीवित रह जाता है। कमेटी के कांधों पर ये बोझ भी कम भारी नहीं। मैंने लोकतंत्र के बारे में ये तो जाना है। वो हो या ना हो लेकिन है, इसका भ्रम उसके वाकई होने से ज़्यादा ज़रूरी है। अब जिस चीज़ के नाम से काम हो जाए उसका होना क्या ही ज़रूरी, तो कमेटी जो हैं वो ये जताती हैं कि अमुक फ़ैसला टॉस उछालकर नहीं लिया गया बल्कि बहुत सा पैसा खर्चा करके, कागज़ खपाकर, समय लगाकर, बातें बनाकर हुआ है।

कमेटी की महिमा जितनी गाओ कम है। जो मुख्यधारा में प्रसाद नहीं पाते वो कमेटी में महत्व पाते हैं। जिन मामलों पर उसका गठन होता है, वो बिसरा दिए जाते हैं। जिनके लिए होता है वो युगों युगों तक चलनेवाली झौं झौं में स्मृतिदोष के शिकार हो जाते हैं और पब्लिक बोर होकर नया तमाशा ढूँढ लेती है। कुल मिलाकर कमेटी फंसे हुए मामलों का स्लो पॉयज़न है। एकाध बार ग़लती से सुझाव ठीक समय पर आ भी जाते हैं और लागू भी हो जाते हैं पर जंबूद्वीप पर फ़ुरसत इफ़रात में पाई जाती है। फिर आपका मामला तो सीरियस भी है, जल्दबाज़ी तो आप भी ना चाहेंगे। सो, अब सरकारी ब्रह्मास्त्र (Brahmastra) निकल चुका है। अब चैन से सो जाइए कि आपके मुद्दे पर कमेटी जाग उठी है।

Leave a comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More