90 के दशक में कुछ यूं था Euphoria का जलवा

डॉ पलाश सेन और उनका Euphoria Band

इस सदी के शुरूआती सालों में जब हम बचपन और जवानी के बीच बने पुल पर खड़े थे, तब इंडी पॉप (indie pop) की दस्तक ने 90 की पीढ़ी की ज़िंदगी रुमानी बना दी थी। लड़के-लड़कियों के बीच होनेवाले शुरूआती आकर्षण को मोहब्बत में ढालने वाले उस जॉनर की बारात में बैंड कल्चर का इंडियन वर्ज़न भी आया था। उन बहुत सारे नामों में से एक नाम था- यूफोरिया!!! इस शब्द का अर्थ होता है उत्साह, और वो लड़के वाकई एक उत्साह लेकर ही टीवी स्क्रीन पर उतरे थे।

रविवार की सुबहें जब धार्मिक सीरियल से गुज़रते हुए धीमे धीमे इंडी पॉप गानों की तरफ सरकती थी तब उन्हें यूफोरिया का कोई ना कोई गीत छूता ही था। हल्के घुंघराले बालों वाले डॉ पलाश सेन हर गाने का केंद्र होते। ये पहली बार था जब गानों के स्वतंत्र म्यूज़िक एल्बम रिलीज़ हो रहे थे और दूरदर्शन पर प्रसारित होनेवाले इन गानों के वीडियोज़ में युवा गायकों ने अपने गानों में अभिनय का ज़िम्मा भी उठा लिया था। अलीशा चिनॉय, लकी अली, कॉलोनियल कज़िन्स (Colonial Cousins), शान, सोनू के बीच पलाश का चेहरा भी उभरा और बहुत तेज़ी से उनके संगीत ने लड़के-लड़कियों को अपने जादू में गिरफ्तार कर लिया।

कभी पलाश अपनी प्रेमिका द्वारा बिसराए जाने पर उसे ताने मारते “माय नी भुल गई मेरा प्यार बस लगे महीने चार” तो कभी मोहल्ले में रहनेवाली अपनी दोस्त से इसरार और इज़हार साथ-साथ करते हुए गाते “कभी आना तू मेरी गली”… 

एक गाने में वो अपनी उदास प्रेमिका के सपनों में आकर उसे समझा रहे हैं “क्या हुआ कि अगर मिल ना सके हम, क्या हुआ कि मेरे वादों में ना दम, प्यार तो हुआ ना कम, जीती तू हारे हैं हम” और दूसरे गाने में धूम पिचक धूम के कोरस में रचते हैं “तुम हो मेरी मैं तुम्हारा, आगे जाने राम क्या होगा”।

मुझे वो गाना कभी नहीं भूलता जब कॉलेज के रीयूनियन (College reunion) में शामिल होने आई अपनी छिपी मोहब्बत से पलाश आग्रह करते हैं “प्यार की ये रात है अब ना जा, छोटी सी इक बात है अब ना जा, पल दो पल का साथ है अब ना जा, जादू सी ये रात है अब ना जा”। गाने के अंत में नंदिनी ठहर जाती है। ये वही तो था जो क्लासरूम के दूसरे छोर पर बैठी अपनी प्रेमिका से हर टीन एजर चाहता था। इसके बाद एक गाने में अचानक पलाश किस्सागो बन जाते हैं और राजस्थान की किसी झील पर बैठकर काशी के राजा-रानी के झगड़े फिर वियोग के बहाने अपने बचपन की कहानी कहते हैं। जो भीड़ उन्हें सुन रही है उसमें वो लड़की भी बैठी है जिससे खुद पलाश बिछड़ गए थे। किस्सा खत्म होने पर भीड़ चली जाती है और फिर पलाश उस कठपुतली को पाते हैं जो वही लड़की पीछे छोड़कर चली गई है। ज़ाहिर है पलाश अपनी उस दोस्त को पहचान भी नहीं पाते जिसकी जुदाई में गीत गा रहे हैं।

इन सभी में एक गाना और था जो दिल में हौल सी पैदा करता था। इस गाने की शुरूआत एक कार हादसे से होती है जिसमें पलाश की मौत हो जाती है। कार में पलाश की प्रेमिका भी मौजूद है। गीत के बाकी हिस्से में पलाश की स्मृति में जीती उनकी प्रेमिका दिखती हैं। उसकी याद से पलाश हटते ही नहीं। वो गा रहे हैं “ ज़िंदगी है धुआं तो क्या.. बुझ गई हर सुबह तो क्या.. रूठा मुझसे खुदा तो क्या.. हो गए हम जुदा तो क्या, फासले थे हजारों दरमियां.. वक्त के थे हजारों इम्तिहां.. फिर भी बनके निशां तेरे होठों के किसी कोने में हंसी की तरह मैं महफूज़ हूं.. तेरी आंखों के छिपे दर्द में आंसू की तरह मैं महफूज हूं” गाने का अंत उस प्रेमिका की मुस्कुराहट से होता है।

अगर आपने गौर किया होगा तो पाएंगे कि यूफोरिया के किसी भी गाने का अंत उदासी से नहीं होता। पूरा गाना भले ही उदास हो मगर आखिर तक पहुंचते पहुंचते वो दुख को झटक देता है। एक बार मैं पलाश का कोई इंटरव्यू सुन रहा था। जितना मुझे अब याद है तो पलाश ने बताया था कि उनके पिता बचपन में ही छोड़कर चले गए थे। पिता के अभाव में बीता वक्त पलाश के लिए बहुत उदासी भरा था मगर खुद वही कहते हैं कि जीवन बस इतना ही नहीं है। सब कुछ गुज़र जाता है और इसीलिए उनके हर गाने का एंड सकारात्मकता से होता है। हर बुरे वक्त से गुज़रकर जब गाना मुस्कुराकर विदा लेता है तो अहसास होता है कि सब उतना बुरा भी नहीं।

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