आज दुनिया के मुसलमान विभिन्न सेलेब्रिटीज़ की फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर जाकर उनसे फ़लस्तीन के पक्ष में खड़े होने की मांग कर रहे हैं। पोस्ट चाहे जिस विषय पर हो, कमेंट्स में गाज़ा और फ़लस्तीन समर्थक कमेंट्स चस्पा कर आ रहे हैं। सिनेमा, खेल और मनोरंजन सम्बंधी फ़ेसबुक पेजेस पर भी फ़लस्तीन का हल्ला है। मुसलमान वैसा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि इज़रायल-फ़लस्तीन संघर्ष (Israel Palestine Crisis) एक गम्भीर राजनैतिक, साभ्यतिक और सामरिक समस्या है, वह हैशटैग्स से हल नहीं होने वाली, और इज़रायल किसी क़िस्म की गिल्ट-ट्रिप या मनोवैज्ञानिक-दबाव से पसीजने नहीं वाला। लेकिन आज की दुनिया में नैरेटिव का बड़ा महत्व है, और मुसलमानों से बेहतर इस बात को कौन जानता है कि नैरेटिव को अपने पक्ष में कैसे किया जाता है। इंटरनेट की ईजाद भले इस्लाम ने ना की हो और बहुत मुमकिन है कोई आलिम दीनी-किताब टटोलने के बाद सोशल मीडिया वापरने को हराम भी बतला दे, लेकिन इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल कैसे करना है, यह कोई इस्लाम से सीखे।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सबसे ज़्यादा महत्व इस बात का होता है कि आपने अपने पक्ष में क्या नैरेटिव बनाया है और इस्लाम को इसमें महारत हासिल है। दुनिया की यह चौथाई आबादी ख़ुद को विक्टिम साबित करने में हमेशा क़ामयाब रहती है, भले हक़ीक़त इससे उलट हो और उलटे दुनिया उसकी विक्टिम साबित हो रही हो। इराक़ ख़ुद को अमेरिका का, अफ़गानिस्तान ख़ुद को रूस का, फ़लस्तीन ख़ुद को इज़राइल का, कश्मीर ख़ुद को भारत का विक्टिम साबित करने की कोशिशों में क़ामयाब रहता है। गाज़ा पट्टी के फ़लस्तीनी, सीरिया के शरणार्थी, म्यांमार के रोहिंग्या, चीन के उइघर, मध्येशिया के तातार विक्टिमहुड का खेल बख़ूबी जानते हैं। माय नेम इज़ ख़ान नैरेटिव की दुनिया में एक सफल और भावुक करने वाला ब्रांड है।
कश्मीर को लेकर दुनिया में पाकिस्तान ऑकुपाइड कश्मीर के बजाय इंडिया ऑकुपाइड कश्मीर का नैरेटिव जमा हुआ है। उसको डेस्प्युटेड टैरेटरी मानते हैं। लेकिन पीओके या बलूचिस्तान में ह्यूमन राइट्स वायोलेशन पर कोई उम्दा रिपोर्ट भूल से मुझे पढ़ने में नहीं आती, जबकि वहाँ की बड़ी आबादी पाकिस्तान के तंत्र से आज़िज़ आ चुकी है। यूएन में प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री जो स्पीच देते हैं, वह तो एक यूनिलेटरल स्टेटमेंट (Unilateral statement) माना जाता है, वो उसको सरकारी-भाषण मानते हैं, लेकिन किसी मसले पर ऑब्जेक्टिव व्यू तलाशने के लिए आप पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स को पढ़ते हैं। ये पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स टाइम, एनवाईटी, सीएनएन, इंडिपेंडेंट, गार्डियन, बीबीसी में लिखते हैं। ये किसी भी मसले पर दुनिया की आम राय बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं, और यह आम राय आधुनिक शब्दावली में एक सॉफ़्ट-पॉवर है। जब पूरी दुनिया के मुसलमान विभिन्न सेलेब्रिटीज़ से फ़लस्तीन-प्रश्न पर समर्थन की मांग करते हैं, तो उसके पीछे मक़सद इस सॉफ़्ट-पॉवर की सवारी करना है। अपने हक़ में हवा बनाना भी एक क़िस्म की जंग है।
लिबरल्स अकसर वॉट्सएप्प यूनिवर्सिटी शब्द का इस्तेमाल करते हैं। फ़लस्तीन-प्रश्न पर जिस क़िस्म का वॉट्सएप्प ज्ञान मुसलमानों के द्वारा फैलाया जा रहा है, उस पर किंतु किसी बौद्धिक की टिप्पणी बरामद नहीं होती। मनगढ़ंत बातें फैलाई जा रही हैं। ये कहा जा रहा है कि फ़लस्तीनियों ने यहूदियों का अपने घर में स्वागत किया था, लेकिन यहूदियों ने उनके साथ दग़ाबाज़ी की (प्रसंगवश, अगर वैसा हुआ होता तो यह जैसे को तैसा वाली मिसाल ही कहलाती, क्योंकि वैसी दग़ाबाज़ियाँ इस्लाम के इतिहास में भरी पड़ी हैं), जबकि हक़ीक़त यह है कि अरब-मुल्कों ने टू-स्टेट थ्योरी को कभी स्वीकार नहीं किया था। नवम्बर 1947 में यूएन पार्टिशन रिज़ॉल्यूशन (UN Partition Resolution) को अरब-मुल्कों ने ना केवल नकार दिया था, बल्कि इज़रायल के जन्म से पहले ही उसका गला घोंट दिया जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए सात अरब मुल्कों ने अपनी फ़ौजें भेज दी थीं। जंग में नवजात इज़रायल ने जीवट से मुक़ाबला किया और जीत हासिल की। दरअसल, अरबों से शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की अपील तो उलटे यहूदियों के द्वारा की गई थी, जिसको उन्होंने नकारकर फ़लस्तीनियों के वहाँ से पलायन को उकसाया- शायद विस्थापन का नैरेटिव बनाने के लिए? यह बात मैं मुसलमानों की तरह वॉट्सएप्प यूनिवर्सिटी से तालीम लेकर नहीं कह रहा हूँ, मैं कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित रिसर्च-पेपर के हवाले से ये कह रहा हूँ।
मुसलमानों के प्रश्न पर भारत के बहुसंख्यक एक विचित्र क़िस्म के अपराध-बोध और आत्महीनता से ग्रस्त रहते हैं। उन्हें लगता है कि भारत में मुसलमानों को अकसरियत के द्वारा सताया जा रहा है, और हमको उनका साथ देना चाहिए। वो इस्लाम के प्रश्न पर कोई भी गम्भीर विमर्श करने से कतराते हैं। मेरा मानना है कि इसे तिलांजलि देकर चीज़ों को वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से देखना चाहिए और वैज्ञानिक-प्रणाली के माध्यम से इतिहास और राजनीति के तर्कों को समझना चाहिए। मुसलमान भारत में अल्पसंख्यक नहीं हैं, वो यहाँ पर दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक हैं- दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी हिंदुस्तान में रहती है और यह बंटवारे के बाद की स्थिति है, जिसमें दो पूर्णतया इस्लामिक मुल्कों का निर्माण किया गया था। भारतीय मुस्लिमों की री-ब्रांडिंग सेकंड लार्जेस्ट मैजोरिटी के रूप में की जाए, यह समय की मांग है!
एक अन्यीकरण इस्लाम के द्वारा दुनिया को दिखाया जाता है कि हमें अलग-थलग किया जा रहा है, जबकि यह अन्यीकरण मुसलमानों ने ख़ुद पर थोपा है, वो ही दुनिया के कॉस्मोपोलिटन कल्चरल मिक्स का हिस्सा बनने को तैयार नहीं, घुलने-मिलने को राज़ी नहीं, अपनी अलग बस्तियों में मुतमईन रहते हैं। इसके लिए भी ख़ुद को विक्टिम क्या दिखलाना? दुनिया में ऐसा कई बार हुआ है कि एक क़ौम ने दूसरे मुल्क पर धावा बोला हो और उस पर कब्ज़ा जमा लिया हो, जैसे रोमनों ने ग्रीस पर, स्पेनीयार्ड ने लातीन अमेरिका पर, अंग्रेज़ों ने एबोरिजिनल्स पर, लेकिन ऐसा कभी नहीं होता है कि ऐसे परिप्रेक्ष्य में जो लोकल्स हैं वो ही अपराध-बोध में डूबे रहें और हमेशा दूसरों से समझौते करते रहें। इस बात को भारत के बहुसंख्यकों को समझना होगा।
बंगाल के परिप्रेक्ष्य में आप देख सकते हैं कि मुसलमान भारत की राजनीति में समीकरणों को बदलने की ताक़त रखते हैं। मुसलमानों को भारत में खेल, सिनेमा, राजनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व स्वत:स्फूर्त तरीक़े से मिला है। भारत के बहुसंख्यकों को विभाजन के परिप्रेक्ष्य को और उसके बाद निर्मित धर्मनिरपेक्ष भारत के परिप्रेक्ष्य को अपनी आँख से ओझल नहीं होने देना चाहिए। उन्हें अगर मुसलमानों की विश्व-दृष्टि या देश-निष्ठा में कोई कमी दिखती है तो उसको उजागर करना चाहिए। मैं दंगे-फ़साद, लड़ाई-ख़ूंज़ारी के हक़ में नहीं हूँ, लेकिन मेरा प्रश्न भारत के बहुसंख्यकों से यह है कि जब मुसलमान नैरेटिव की ताक़त और सॉफ़्ट-पॉवर के महत्व को इतनी अच्छी तरह से समझते हैं तो आप क्यों नहीं समझते? ग़लत बात मत कहो, लेकिन जो सच हो- वो तो कहो। जो दिन की रौशनी की तरह साफ़ है, उसका तो मुआयना करो। अभी तो ये हालात हैं कि आप किसी भी इस्लामिक-प्रॉब्लम पर बात करो तो वो कहते हैं कि आप समाज में नफ़रत फैला रहे हैं, देश में आग लगाने की कोशिश कर रहे हैं। किसी मसले पर तथ्यपूर्ण तरीक़े से, सभ्यतापूर्वक संवाद करने से भला क्यों कर देश में आग लग जावेगी? क्यों लोकतंत्र में फ्री-डिस्कोर्स पर भी ताला लगाया जाता है?
इज़रायल-प्रश्न पर भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों के लेख सामने आने लगे हैं और बतलाने की ज़रूरत नहीं, वो फ़लस्तीन के दृष्टिकोण से चीज़ों की व्याख्या कर रहे हैं। ऐसा क्यों है, यह मुझको मालूम नहीं। क्या कारण है कि मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों का हर बयान इस्लाम के हित में आता है? एक अंधा भी देख सकता है कि इज़रायल में दोतरफ़ा संघर्ष है, ये एकतरफ़ा लड़ाई नहीं है। वहाँ मज़लूम दोनों तरफ़ हैं। वहाँ बच्चे दोनों के मारे जा रहे हैं। वहाँ ज़मीन पर दावा दोनों का है। वहाँ पर लड़ाइयों और आक्रामकता का एक लम्बा इतिहास है और अब्राहमिक-कल्ट की आपसदारियाँ भी वहाँ कम नहीं। आप एक दोहरे-विमर्श में केवल एक पक्ष की बात करके बेईमानी नहीं कर सकते, अलबत्ता मुसलमान तो आपको इसी के लिए उकसाएँगे कि आप उनका साथ दो। क्या आपने कभी किसी मुसलमान को किसी ग़ैर-इस्लामिक नैरेटिव को सामने रखते देखा? या आपने कभी किसी मुसलमान को किसी ग़ैर-इस्लामिक समस्या पर आंदोलित होते देखा? आप इन बातों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।
मैं बहुसंख्यकों से कहूँगा कि ईद की मीठी सेवइयाँ दिल खोलकर खाइये और दिल करे तो गले भी मिलिये, लेकिन जाते-जाते यह बोलने से मत चूकिये कि दोस्त, अल्लाहतआला ने मुझको भी एक दिमाग़, और एक ज़मीर दिया है, मैं किसी भी मसले पर ख़ुद सोचूँगा और एक राय बनाऊँगा, तुम्हारे चश्मे से उसको नहीं देखूँगा। इसलिए मेहरबानी करके मेरी प्रोफ़ाइल पर यह फ़लस्तीन के हक़ में आवाज़ उठाने की डिमांड करना बंद करो।