कंगना (Kangana Ranaut) किसी दुखती रग की तरह हैं- भला लगे या बुरा- अनदेखी करना कठिन है। बीते डेढ़ेक सालों में जिस मुँहफट अंदाज़ में वो सोशल-मीडिया पर अवतरित हुई हैं- अगर उनके अभिनय में कोई बात नहीं होती तो दुनिया अभी तक उनका बोरिया-बिस्तर बंधवा चुकी होती। लेकिन वो दृश्य में बनी हुई हैं। हिन्दी सिनेमा जिस दौर में प्रवेश कर चुका है, वहाँ पुराने क़िस्म के वर्चस्व भी अब टूटे हैं। इसीलिए एक अभिनेत्री के रूप में उनकी माँग निरन्तर बनी रहेगी और उन्हें नापसंद करने वाले भी टिकट ख़रीदकर उनकी फ़िल्में देखने जाते रहेंगे। ट्रायम्फ़ ऑफ़ द टैलेंट- इसी को कहते हैं।
ग़रज़ ये कि अगर आपके काम में दम है तो दुनिया आपकी हर अदा को मन से या मन मारकर ही सही बर्दाश्त ज़रूर करती है।
कंगना के व्यक्तित्व में ये जो चकित- कभी-कभी स्तब्ध- कर देने वाला अनगढ़पन और पॉलिटिकल-इनकरेक्टनेस है, उसका मूल उनकी आँचलिक पृष्ठभूमि में है। महानगर में व्यक्तित्व के जिन कोनों-कंगूरों या सींगों-नाख़ूनों को बाल्यावस्था में ही छाँट दिया जाता है, उन्हें अक्षुण्ण रखकर वो हिमाचल प्रदेश से पहले दिल्ली और फिर बम्बई पहुँचीं।
अनुराग बासु (Anurag Basu) की अभ्यस्त नज़रों ने उन्हें परख लिया। कंगना का चेहरा परम्परागत नायिकाओं जैसा नहीं था और उनके बाल उस समय घने-घुंघराले हुआ करते थे। लेकिन अनुराग को उनके व्यक्तित्व की रॉ-नेस पसंद आई होगी- और कुछ भाग्य का भी योगदान था- कि उन्हें गैंग्स्टर के लिए चुन लिया गया। अपनी शुरुआती फ़िल्मों- गैंग्स्टर, लम्हे, मेट्रो, राज़, काइट्स- आदि में कंगना को डार्क-कैरेक्टर्स मिले। क्या उनके व्यक्तित्व में ही कुछ वैसा था, जो उन्हें ऐसी भूमिकाएँ दी जाती थीं, या आरम्भ में कुछेक स्याह भूमिकायें करने के कारण उनकी छवि न्यूरोटिक क़िस्म की मान ली गई थी- ये किसको पता।
उस समय दिए एक इंटरव्यू में कंगना ने कहा था- सबको लगता है कि मैं घर में बत्तियाँ बुझाकर, बाल बिखराये, गाफ़िल रहती हूँ, या वॉशरूम के बाथटब में मदहोश पड़ी रहती हूँ और नल का बहता रहता है- लेकिन ऐसा है नहीं।
शायद इस धारणा को झुठलाने के लिये ही उन्होंने तनुजा त्रिवेदी (Tanuja Trivedi) का कलरफ़ुल-कैरेक्टर निभाया। तनु-मनु प्रथम आज भी कंगना की सर्वश्रेष्ठ रॉम-कॉम (रोमैंटिक कॉमेडी) फ़िल्म है। उस फ़िल्म में भावना की तीव्रता और आद्योपान्त सजल-प्रवाह है। कंगना और फ़िल्म के निर्देशक आनंद एल. राय स्वयं बाद के सालों में और बेहतर प्रयास करने के बावजूद उस जैसी फ़िल्म दोहरा नहीं सके, क्योंकि कालान्तर में उनकी शख़्सियत में सिनिसिज़्म या आत्मसजग-चतुराई का पदार्पण हो चुका था।
फ़ैशन में कंगना शो-स्टॉपर थीं और एक समान्तर भूमिका के बावजूद उन्होंने सबका ध्यान खींचा। इस फ़िल्म ने उनको उनका पहला राष्ट्रीय पुरस्कार (National Award) भी दिलवाया। दर्शकों ने पाया कि वो कंगना से अपनी नज़रें हटा नहीं पाते थे और इस बात को फ़िल्म-उद्योग ने ताड़ लिया। एक बार इंडस्ट्री को भनक लग जाये कि उनके पास एक मेजर-टैलेंट है, जिसे दर्शक बार-बार देखना चाहते हैं, तो फिर वो उसके पास अनुकूल कहानियों और बेहतर परियोजनाओं को लेकर पहुँचने में देर नहीं लगाती। ये सबके लिए विन-विन सिचुएशन जो होती है।
क्वीन ने कंगना को हरदिलअज़ीज़ बना दिया था। अलबत्ता क्वीन से कंगना ने स्ट्रॉन्ग-वुमन की छवि को मज़बूत किया, किंतु उसमें उनके बेहतरीन दृश्य वो थे, जिनमें वे दुविधाग्रस्त दिखलाई देती थीं। कंगना विद्रोहिणी और योद्धा की भूमिकाओं में इतनी बार आ चुकी हैं कि एक दर्शक के रूप में कंगना को असुरक्षाओं और दुर्बलताओं का अभिनय करते देखना दिलचस्प था।
ये मेरी प्रिय फ़िल्म नहीं है (क्यों, ये पृथक से एक लेख का विषय है), किंतु कंगना ने उसमें अनेक विस्मयादिबोधक-क्षण रचे हैं और उनके कुछ दृश्य तो इतने सघन, तीव्र और निष्णात हैं कि अलबम बनाकर संजो लेने का जी करता है। तनु-मनु द्वितीय में वो इससे भी आगे चली गईं। अगर आप उस फ़िल्म का घणी-बावरी गाना देखें तो पायेगें कि मात्र कोई तीन मिनटों के उस गाने में उनके एक्सप्रेशंस विस्फोटक हैं। मालूम होता है, जैसे वह किरदार नर्वस-ब्रेकडाउन की कगार पर है।
इस तरह की चीज़ें कंगना के ही बस की बात है। फ़िल्म के पहले भाग में तनूजा त्रिवेदी की स्याह छवि प्रस्तुत की गयी थी और दत्तो (कुसुम सांगवान की भूमिका में स्वयं कंगना) के चरित्र को फ्रेम-दर-फ्रेम उभारा गया था। अंत में आत्मबलिदान का गौरव भी दत्तो के हिस्से आया और वो दर्शकों की चहेती साबित हुई। अगर दत्तो की भूमिका किसी और अभिनेत्री को दी जाती तो अभिमानी कंगना ये फ़िल्म छोड़ देतीं। लेकिन वहाँ पर तनु का संघर्ष दत्तो से था और दोनों सम्भावित परिणामों में जीत कंगना के ही हिस्से आने वाली थी। इससे यही सिद्ध हुआ कि कंगना का मुक़ाबला अब केवल स्वयं से है।
मणिकर्णिका में कंगना ने रक्तपात के दृश्यों को चेहरे पर जैसे वीभत्स-भाव लाकर अंजाम दिया, उन्हें देखकर दर्शकों ने सोचा होगा कि कंगना में किस बात को लेकर इतना रौद्रभाव है? कि आख़िर कंगना को इतना ग़ुस्सा क्यों आता है? जब वो आप की अदालत में आईं तो अपनी पैरवी करने का उनका अंदाज़ वैसा ही था, जैसे तनु-मनु द्वितीय के आरम्भिक दृश्य में तनुजा त्रिवेदी लंदन के मेंटल रीहैब सेंटर में मनु शर्मा की मलामत करती है।
क्या वो सच बोल रही थीं? कौन जानता है, लेकिन वो अपने कंगना होने को रूपायित ज़रूर कर रही थीं। वैसे में दर्शक पूछ सकते हैं कि जब कंगना परदे पर डार्क-कैरेक्टर्स निबाहती हैं, तब क्या वे स्वयं को अभिनीत करती हैं- इसीलिये उन भूमिकाओं में इतनी सहज दिखलाई देती हैं?
जब तक कंगना सोशल मीडिया से दूर थीं, उनका व्यक्तित्व एक रहस्य के आवरण में छुपा था। किंतु ट्विटर और फ़ेसबुक पर सक्रिय होने के बाद उन्होंने बेधड़क लगभग आत्मनाश की त्वरा से- स्वयं को एक्सपोज़ किया। बहुधा वो सार्वजनिक-माध्यमों में रिवॉल्वर-रानी शैली की भाषा बोलते बरामद हुईं। उन्होंने अपने राजनैतिक-रुख़ को प्रकट करने में सामान्य-शिष्टाचार वाला संकोच भी नहीं बरता।
असहज कर देने वाली सच्चाइयों को उन्होंने लगभग बेमुरौव्वत होकर उजागर किया। कंगना के पक्ष में अलबत्ता आप ये दलील दे सकते हैं कि जब फ़िल्म-उद्योग के दूसरे सितारे निर्द्वंद्व होकर एकपक्षीय राजनैतिक विचार व्यक्त कर सकते हैं तो अकेले कंगना पर ही पाबंदी क्यों लगाई जावे?
कंगना की विगत कुछ फ़िल्में अपेक्षानुरूप सफल नहीं हुई हैं। कुछ कहानियों के चयन में उनसे भूल हुई। इस अवधि में वो निरंतर विवादों में भी रहीं। ग़रज़ ये कि पंगा लेने में उन्होंने अपनी तरफ़ से कोई कोताही नहीं बरती और बर्र के अनेक छत्तों को जानबूझकर छेड़ा। जयललिता के जीवन पर एकाग्र उनकी नई फ़िल्म आगामी दस तारीख़ को आ रही है और उसको लेकर दर्शकों में उत्साह है। कंगना इसकी सफलता के प्रति आशान्वित हैं। शायद ये फ़िल्म उन्हें उनका पाँचवाँ राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवा दे।
तनु-मनु प्रथम में एक संवाद है। माधवन से कंगना कहती हैं- "शर्माजी, आप जैसे दिखते हैं, असल में वैसे हैं नहीं।" लेकिन यही बात कंगना के बारे में नहीं कही जा सकती। वो इतने सालों से पर्दे पर जैसी दिखलाई देती रही हैं, वैसी ही वो असल में नुमायाँ भी हुई हैं- अब ये अपने आपमें भली बात है या बुरी- इसका निर्णय करने वाले करते रहें। लेकिन सच यही है कि कंगना नाम की इस दुखती रग से आप चाहकर भी नज़रें नहीं फेर सकते।
ख़ासतौर पर तब- जब 'सम्राज्ञी' (क्वीन) ने अब स्वयं को 'थलाइवी' (नेत्री/लीडर) भी घोषित कर दिया है!