न्यूज डेस्क (यथार्थ गोस्वामी): प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली पूर्णिमा को कार्तिक पूर्णिमा (Kartik purnima) नाम से जाना जाता है। इसी दिन देवाधिदेव महादेव ने त्रिपुरासुर दैत्य का वध किया था। इसलिए इसे त्रिपुरी पूर्णिमा और त्रिपुरारी पूर्णिमा नाम से जाना जाता है। यदि इस दिन नक्षत्रमंडल में कृतिका नक्षत्र का योग बने तो इसे ‘महाकार्तिकी’ भी कहा जाता है। इन दिन श्री गुरूनानक (Shri Guru Nanak Ji) का जन्म हुआ था। साथ ही भगवान विष्णु ने इस दिन मत्स्यावतार धारण किया था। पौराणिक मान्यताओं में इसे महापुनीत पर्व की संज्ञा दी गयी है। इस दिन स्नान-दान-ध्यान करने से अमोघ फल की प्राप्ति होती है। इस राजस्थान के पुष्कर (Rajasthan, Pushkar) में भगवान ब्रह्मा की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है।
इस दिन वृंदा जंयती और भगवान कार्तिकेय जयन्ती भी मनाई जाती है इस दिन यदि कृतिका नक्षत्र पर चंद्रमा और विशाखा नक्षत्र पर सूर्य का योग बने तो इससे पद्मक योग का निर्माण होता है। जो कि बेहद दुर्लभ ज्योतिषीय घटना है। इन दिन संध्याबेला में देव दीपावली मनायी जाती है। इस अवसर पर दीपदान करने से मनुष्य जीवन-मरण के चक्रों से छूट जाता है। जीव को पुनर्जन्म की त्रास नहीं सताती।
कार्तिक पूर्णिमा का मुहूर्त
कार्तिक पूर्णिमा का प्रारंभ-29 नवंबर 2020, मध्यरात्रि 12 बजकर 47 मिनट से
कार्तिक पूर्णिमा की समाप्ति-30 नवंबर 2020, मध्यरात्रि 02 बजकर 59 मिनट तक
सभी जातक दान-स्नान के विधान 30 नवंबर को सम्पन्न करे
कार्तिक पूर्णिमा की कथा
त्रिपुरासुर ने देवताओं को परास्त करने के लिए प्रयागराज में एक लाख वर्ष तक तप किया। उसके तीव्र तप के प्रभाव से समस्त चराचर, देवता, गंधर्व किन्नर और यक्ष भयभीत हो गये। देवराज इन्द्र ने उसकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सराओं को तप स्थल पर भेजा, लेकिन उनका प्रयास भी विफल रहा। अंतत: भगवान ब्रह्मा उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए। त्रिपुर को प्रत्यक्ष दर्शन देकर वांछित वर मांगने को कहा।
इस पर त्रिपुरासुर ने वर मांगा कि ‘मैं न मनुष्यों के हाथों से मरूं, और देवताओं के’ ये वर पाकर वो बेलगाम हो गया। उसके अत्याचार दिनोंदिन बढ़ने लगे। बड़ी धृष्टता करते हुए उसने एक दिन कैलाश पर्वत पर हमला कर दिया। जिसके बाद भगवान शंकर और त्रिपुरासुर के बीच भंयकर युद्ध छिड़ गया। आखिरकर भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी की सहायता से भोलेनाथ ने त्रिपुर का अन्त कर दिया। जिसके बाद देवताओं ने उल्लास में दीवाली मनायी थी। जिसका विधान आज भी प्रयागराज में है।