Katha: सभी रामभक्तों के है ये मामा, माँ जानकी ने खुद इन्हें माना अपना भाई

Katha: अवध से कुछ दूर, कुछ दूर अर्थात् ठीकठाक दूरी पर एक माता रहती थी जो दुर्भाग्य से विधवा हो चुकी थी। उनका एक छोटा सा पुत्र था। दरिद्रता घर में तीसरा सदस्य थी। किसी तरह माता अपने पुत्र का लालन पोषण करती थी। कभी एक समय कभी दो दिन में एक बार भोजन मिल जाता था तो माता ईश्वर का खूब धन्यवाद करती थी। कहते है न कि ग़रीबी में ईश्वर के अलावा कोई साथ नही होता।

बालक थोड़ा बड़ा हुआ। सावन मास आया सब तरफ़ रौनक़ थी। त्योहारौं का समय था। रक्षा बंधन आने को था रखियाँ और मिठाइयाँ का मेला लगा था। बालक ने माँ से पूछा माँ मुझे राखी कौन बांधेगा मेरी बहन कौन है। बच्चे बच्चे होते है माँ क्या बोलती ज़्यादा ज़िद्द करने लगा तो बोल दिया।

“तेरी बहन अयोध्या की महारानी है! उसका नाम सीता है विवाह हो गया राम जी के साथ!”

तो वो आती क्यूँ नही हमसे मिलने ?

बेटा वो रानी है न मेरे पास तो कुछ नही है उसको देने को और बेटी घर आये और उसे ख़ाली हाथ भेजो अपशगुन होता है! इसीलिए मैनें ही मना किया है!

तो उनको हमारी याद नहीं आती क्या?

वो हमें रोज़ याद करती होगी किंतु बेटा दुनिया ऐसे ही चलती है कुछ नियम क़ायदे होते है !

तो हम चले उनके पास?

बेटा मेरे पास तो दो ही साड़ी है वो भी फटी हुई है और वो चक्रवर्ती सम्राट और महारानी हमें उनके सम्मान का ध्यान रखना चाहिए! हम ऐसे नही जा सकते जब तू बड़ा हो जायेगा खूब पैसा कमाना और चले जाना और मुझे भी ले जाना!

बालक कुछ और बोलता माँ ने बोला अब ज़्यादा सवाल मत कर सोज़ा! बच्चे बड़े सरल होते है उन्हें न दुनियादारी समझ आती है न छल! बालक ने सोचा वो मेरी बहन है मैं अगर मिलने जाऊँगा तो मुझसे अवश्य प्रेम से मिलेगी!

बालक को क्या पता की अयोध्या जी कितनी दूर है, कैसे जाना है फिर भी मन में निश्च्य किया बहन से मिलना है ! माँ की फटी एक साड़ी बगल में दबाई बहन को देने को, कि उसको कुछ तो उपहार देना होगा और चल दिया। उसी रात्रि को बिना माता को बताये।

रात का समय उन दिनों लोग जल्दी ही सो ज़ाया करते थे मार्ग लगभग वीरान होते थे! कोई मिला उस से बालक ने पूछा

 "भैया अयोध्या जी के लिये कौन सा मार्ग है?"

उसने बालक को देखा और बोला "बेटा अयोध्या जी का मार्ग तो यही है, किंतु इतनी रात को अकेले इतनी दूर पैदल क्यूँ जा रहे हो?"

बालक बोला "बहन से मिलने जा रहा हूँ धीरे धीरे पहुंच जाऊँगा" और जल्दी जल्दी आगे चला गया!

थोड़ा चलने के बाद बालक थक गया था और उसको लगा काफी दूर आ गया हूँ। गाँव से अब तो कोई मुझे खोज भी नही पायेगा। ये सोच कर वो एक पेड़ के नीचे बैठ गया कि थोड़ा आराम कर ले! थोड़ी ही देर में उसकी आँख लग गयी!

किसी भक्त ने क्या खूब कहा

"प्रबल प्रेम के पाले पड़के हरी को नियम बदलते देखा!"

कोसों की दूरी शून्य हो गयी। बालक की आँख खुली तो पाया वो एक नदी के किनारे है! काफ़ी चहल पहल थी। चारों ओर सैंकड़ों लोग थे! राम राम सीता राम की ध्वनि चारों ओर ही है! मंदिरों के घंटे बज रहे है! बालक ने एक व्यक्ति से पूछा

 भैया जी ये कौन सा स्थान है ?

 बेटा ये अयोध्या जी है! तुमको कहाँ जाना है?

बालक ने सोचा अयोध्या जी तो हमारे गाँव के बहुत नज़दीक है और वो व्यक्ति कह रहा था बहुत दूर है! फिर उसने बोला

भैया मुझे अपनी बहन सीता जी से मिलना है वो कहाँ रहती है?

 वो व्यक्ति बोला पता है तुम्हारे पास!

उसको ये नहीं समझ आया कि ये माता सीता जी के विषय में बात कर रहा है!

बालक बोले

भैया वो यहाँ की रानी है और मेरे जीजा जी यहाँ के राजा है उनका नाम राम है!

वो व्यक्ति बोला

अच्छा अच्छा तो भगवान के दर्शन करने आये हो बेटा यहाँ जितने मंदिर दिख रहे है, न सब उन्हीं के है किसी में भी दर्शन कर लो!

बालक ने सोचा ये व्यक्ति ज़रूर पागल है भला वो मंदिर में क्यूँ रहने लगीं!

बालक ने बोला भैया कोई निश्चित स्थान तो होगा न जहां वो रहते है उनसे मिल सकते है ?

व्यक्ति बोला बेटा तुम्हारे माता पिता कहाँ है, वो समझा देंगे तुम्हें जाओ उनसे बात करो!

और वो चला गया!

बालक को कुछ समझ नही आया! उसने बहुत से लोगों से बात की किंतु कोई न उसकी बात को समझ पाया न बालक अपनी बात को समझा पाया। संध्या हो गयी और फिर रात्रि! भूख से छोटे सा बालक अलग व्याकुल था ! अब तो उसको अपनी बहन पर ही क्रोध आने लगा!

बताओ मैं इतनी दूर मिलने आया और कैसे अजीब लोग (Strange People) है यहाँ जिनको उसके घर का पता भी नहीं। पता न जाने कैसे राजा रानी है। माँ ठीक ही कहती है ये बड़े लोग है! बड़बड़ाता हुआ एक पेड़ के नीचे निश्चय सो गया कि कल प्रातः ही माँ के वापस चला जाऊँगा वो सो गया!

मध्य रात्रि के समय बालक को किसी ने जगाया! उसने आवाज़ सुनी

"भैया!"

बालक ने आँख खोली तो देखा खूब सारा प्रकाश है मानो बहुत से सूर्य एक साथ उदय हो गए है। बहुत सारे सैनिक बड़ी बड़ी पताकाओं को लिए खड़े है! एक अति सुंदर राज कुमार उस सेना के सेनापति (Commander) के रूप में सुसज्जित अश्व रथ पर बैठे है और दो सुंदर राजकुमार छत्र लिए खड़े है! एक बड़ा सुंदर हाथी है जो स्वर्ण अलंकारों से सजा हुआ है। जिसपर एक स्वर्ण की असंख्य विचित्र और सुंदर रत्नों से सुसज्जित पालकी है। जिसमें कोई अति सुंदर राजकुमार बैठे है जो स्वयं सूर्य को लज़ा दे रहे है! एक वानर उसके महावत है! फिर दुबारा से एक सुंदर आवाज़ ने बालक को बुलाया।

"भैया!"

बालक ने आवाज़ की ओर देखा एक अति सुंदर इतनी सुंदर की शब्दों के कोशों में कोई शब्द या वाक्य नहीं कवियों की कविताओं में कोई ऐसा जादुई बाण नहीं की उस रूप माधुरी को व्यक्त कर सके! वो स्त्री पुनः बोलीं "भैया कैसे हो और माँ कैसी है? मैं सीता तुम्हारी बहन!" और ये कहते हुए  वो बालक के निकट वहीं वृक्ष के चबूतरे पर बैठ गयी!

और बोलीं

"शायद तुम मुझे न पहचान पाओ, तुम बहुत छोटे थे। दुधमुंहे जब मेरा ब्याह हो गया था! मुझे पता है तुम नाराज़ हो भैया। मुझे आने में थोड़ा विलम्ब जो हो गया! माता की आज्ञा का पालन करते हुए मैं तुमसे मिलने भी न आ सकी किंतु मुझे तुम्हारी और माँ की बहुत याद आती है! तुम नहीं जानते कि आज मुझे तुम्हें देख कर कितना अच्छा लगा! उठो पहले कुछ भोजन कर लो कल रात से तुमने कुछ नहीं खाया!"

बालक इतना हतप्रभ था कि वो कुछ कह ही नहीं पा रहा था! अपनी बहन का वैभव देख कर वो चकित था प्रसन्न था और निशब्द भी!

माँ जानकी ने अपने भाई को अपने हाथों से भोजन करवाया! बालक ने खूब सारी बातें की। राम जी ने भी उन्हें हृदय से लगाया और खूब प्रेम किया। बालक को अपने पूरे परिवार से लक्ष्मण जी, भरत जी, शत्रुघ्न जी और अपने प्रिय हनुमान जी से मिलवाया! सीता जी अपने छोटे से भैया का शीश अपनी गोद में रखा और माथे पर हाथ फेरते फेरते खूब सारा लाड किया और कहा

"सुनो माँ बहुत स्वाभिमानी है। वो कभी मेरा दिया कुछ नहीं लेगी उनके पास दो ही साड़ी है भैया और एक तुम ले आये हो। प्रातः घर चले जाना उस दुखिया का तुम्हारे सिवा कोई नहीं वो बहुत व्याकुल होंगी! बातें करते करते न जाने कब बालक को नींद आ गयी!"

प्रातः जब वो नन्हा बालक उठा तो बहन जा चुकी थी! बहुत से लोग सरयू में स्नान कर रहे थे! चारों ओर देखा रात को बहन और जीजा की वो अद्भुत झांकी (Amazing Tableau) कहीं नही थी। किंतु बालक बहुत प्रसन्न था। देखा नज़दीक ही वो स्वर्ण के बर्तन रखे है जिनमें बहन ने भोजन करवाया था!

उसने सोचा शायद भूल गयी है! तभी वहाँ एक संत आये बालक के मुखमंडल को देख समझ गये इसपर सीता राम जी की कृपा हुई है! वो उसके पास आये और उससे सारी कथा सुनी और जब बालक ने स्वर्ण के बर्तन दिखाये तो वो बोले "बेटा ये तुम्हारे ही लिए है इन्हें ले जाओ!"

बालक बोला "बाबा माँ ने बहन से कुछ लेने को मना किया है! मैं इन्हें नहीं ले सकता आप रख लीजिए और बहन से आपकी मुलाक़ात हो तो उन्हें दे दीजिएगा!"

बाबा ने बोला बेटा मैं सन्यासी क्या करूँगा इनका ये कृपा प्रसाद है! और फिर मैं तो बंजारे की तरह इधर उधर घूमता रहता हूँ। तुम्हारी बहन महारानी है। भला मैं उनसे कैसे मिलूँगा! एक काम करो इन्हें सरयू के जल में प्रवाहित कर दो अगर तुम नहीं लेना चाहते तो! किंतु तुम्हारी भेंट मैं नही ले सकता!

बालक ने ऐसा ही किया और इस संकल्प के साथ कि वो पुनः लौटेंगे अपने घर चला गया!

इन बालक का नाम प्रयाग था! थोड़े समय के बाद उसे पता लग गया कि सीताराम कोई और नहीं जग पति सभी के माता पिता सर्वेश्वर भगवान है! माता के साकेत गमन के बाद वो किशोर अवस्था में अवध लौटे और सीता जी को आजीवन बहन ही माना और लगभग सम्पूर्ण जीवन राम सीता जी के चरणों की सेवा की! सभी भक्त इस रिश्ते से उन्हें मामा जी बुलाते थे! बुलाना भी था हम सब के माता पिता स्वरूप श्री सीता राम जी है और प्रयाग जी माता सीता के भाई तो हुए न मामा जी!

Leave a comment

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. Accept Read More