न्यूज डेस्क (विश्वरूप प्रियदर्शी): बीते मंगलवार (21 जून 2022) से शुरू हुआ महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट (Maharashtra Political Crisis) गहरा गया है। फिलहाल शिवसेना और उसकी पार्टी के बागियों के बीच गतिरोध खत्म होने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) एक ऐसे शख़्स के तौर पर उभरे हैं, जिनके हाथों में अब महाविकास अघाड़ी गठबंधन का वजूद, शिवसेना का आने वाला कल और सूबे की सत्ता की चाबी है।
एकनाथ शिंदे का दावा है कि उनके पास शिवसेना (Shiv Sena) के 40 विधायकों समेत 46 विधायकों का समर्थन है। उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) की पार्टी के पास फिलहाल 55 विधायक हैं और अगर शिंदे दो-तिहाई या 37 विधायकों को तोड़ सकते हैं तो वो दलबदल विरोधी कानून के तहत होने वाली सजा से बच जायेगें। तो ऐसे में एकनाथ शिंदे के दलबदल विरोधी कानून को चकमा देने की संभावना कितनी जमीनी है और इसका क्या मायने है?
क्या है दलबदल विरोधी कानून?
दलबदल विरोधी कानून उन विधायकों पर लगाम लगाने के लिये है, जो चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिये एक से पार्टी से दूसरी पार्टी में चले जाते हैं और मनमर्जी से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं। कानून कुछ शर्तों के तहत विधायकों या निर्वाचित प्रतिनिधियों को किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने की मंजूरी देता है। साल 1985 में राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) सरकार के दौरान इस कानून को भारत के संविधान (Constitution of India) के 52वें संशोधन की दसवीं अनुसूची में लाया गया था।
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने व्यापक तौर पर इस शब्द की व्याख्या की है। शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया कि एक विधायक का आचरण ये संकेत दे सकता है कि उसने अपनी पार्टी छोड़ दी है या नहीं। ये कानून निर्दलीय विधायकों पर भी लागू होता है, ऐसे में उन्हें किसी राजनीतिक दल में शामिल होने से मना किया जाता है, और अगर वो ऐसा करते हैं तो वो विधायिका में अपनी सदस्यता भी खो सकते हैं।
दलबदल दो तरह के होते हैं – एक, जहां सदस्य मनमर्जी से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं और दूसरा स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। दल-बदल विरोधी कानून तब लागू नहीं होता जब किसी राजनीतिक दल (Political Party) को छोड़ने वाले विधायकों की संख्या विधानसभा में पार्टी की ताकत का दो-तिहाई हो। ये विधायक किसी अन्य पार्टी में मिल सकते हैं या विधानसभा में एक अलग गुट बन सकते हैं।
क्या महाराष्ट्र में दलबदल विरोधी कानून लागू होता है?
महाराष्ट्र की मौजूदा सियासी तस्वीर में एकनाथ शिंदे खेमे को अपने सदस्यों की अयोग्यता से बचने के लिये उनके पास निर्वाचित विधायकों के दो-तिहाई से ज़्यादा का आंकड़ा होना चाहिए, यानि कि कुल 55 विधायकों में से 37। कई मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक एकनाथ शिंदे को 46 विधायकों का समर्थन हासिल है।
ऐसे मामलों में संबंधित विधायी सदन का अध्यक्ष या उनकी गैरमौजूदगी में उपाध्यक्ष अंतिम निर्णय लेने वाला प्राधिकारी होता है, जो कि ये तय करता है कि किसी विधायक (MLA) ने किसी पार्टी या गुट को छोड़ दिया है और क्या वो दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य घोषित किया जायेगा? हालांकि ये संविधान के अनुच्छेद 32, 226 और 137 के तहत ऐसे मामलों में अदालत के हस्तक्षेप को सीमित नहीं करता है।
हालांकि महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष का पद फिलहाल खाली है। अंतिम अध्यक्ष कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नाना पटोले (Nana Patole) थे, जिन्होंने साल 2019 में पद से इस्तीफा दे दिया था। मौजूदा वक्त में एनसीपी (NCP) के नरहरि जिरवाल (Narhari Jirwal) संविधान के अनुच्छेद 180 (1) के प्रावधानों के तहत अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं।
कौन उठा सकता है मुद्दा?
विधानसभा का कोई भी विधायक उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल को याचिका दे सकता है कि कुछ विधायक अपने राजनीतिक दल से अलग हो गये हैं। लेकिन उसे इससे जुड़े सबूत भी पेश करने होगें। इसके बाद डिप्टी स्पीकर (Deputy Speaker) याचिका को उन विधायकों के पास भेजेंगे जिनके खिलाफ दलबदल का आरोप है। विधायकों के पास अपना पक्ष रखने के लिये सात दिन का वक़्त होगा।
दूसरी ओर बागी विधायक भी डिप्टी स्पीकर (Deputy Speaker) को सबूत के साथ लिख सकते हैं कि वो अपनी पार्टी की ताकत के दो-तिहाई संख्या बल की अगुवाई करते हैं, साथ ही बागी विधायक दलबदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law) के तहत सुरक्षा का दावा भी कर सकते हैं। इनमें से किसी भी मामले में स्पीकर सभी पक्षों को सुनने के बाद मामले का फैसला करेंगे, जिसमें समय लग सकता है।