न्यूज़ डेस्क (विश्वरूप प्रियदर्शी): बापू के जन्मदिन के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri Jayanti) जयन्ती भी देशभर में मनायी जाती है। शास्त्री जी देश के दूसरे प्रधानमंत्री थे। उनका जन्म साल 1904 में उत्तरप्रदेश के मुगलसराय में शारदा प्रसाद और रामदुलारी देवी के घर हुआ था। गरीब और गरीबी क्या होती है वो ये अच्छे जानते थे। उन्होनें इन हालातों को काफी अच्छे से जिया था। इसलिए सादगी के व्रत का आजीवन पालन करते रहे। ताउम्र वो लोकतन्त्र के जनवादी सिद्धान्तों और पारदर्शी प्रशासनिक व्यवस्था के पैरोकार बने रहे।
सादगी और खुद्दारी उनमें इतनी कूटकूट कर थी कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद उन्होनें लोन लेकर कार खरीदी। जीते जी लोन के किस्तें भरते रहे। दुनिया छोड़ने के बाद उनके परिजनों ने उनके नक्शेकदम पर चलते हुए किस्तें भरी। साल 1965 में हुए देशव्यापी अकाल के दौरान वेतन लेना बंद कर दिया। अक्सर फटे हुए कुर्ते को कोट के नीचे पहन लिया करते थे। साल 1928 के दौरान जब वे जेल में बंद थे तो पत्नी ललिता देवी उनके लिए चोरी छिपे आम लेकर आयी। दूसरे कैदियों का हवाला देते हुए शास्त्री जी ने आम लेने से साफ इंकार कर दिया।
उनकी इस शख्सियत के पीछे उनके संघर्ष भरे दिनों का बड़ा हाथ रहा है। डेढ़ साल की छोटी से उम्र में उनके सिर से पिता का साया उठ गया। शुरूआती तामील हासिल करने के लिए उन्हें कई मील पैदल चलना पड़ता था। कई इसके लिए उन्होनें उफनती हुई नदियों को भी पार किया। अमरूद चोरी करने पर एक माली की दी हुई सीख पूरी ज़िन्दगी उनके साथ बनी रही। 11 साल की छोटी से उम्र में देश के लिए कुछ कर गुजरने की ललक उनमें जागी। 16 साल की उम्र में महात्मा गांधी के आवाह्न पर वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। इस दौरान उन्होनें सात साल जेल में अंग्रेजों के अत्याचार सहें।
उनसे जुड़ी एक दिलचस्प बात ये भी है कि साल 1951 के दौरान जब वे रेलमंत्री बने तो उन्होनें अपनी माँ को पता नहीं लगने दिया कि वे इस ओहदे पर इसके पीछे उन्होनें बताया कि अगर उनकी माँ पता लग जाता तो वे लोगों के कहने पर तरह-तरह की सिफारिश लेकर उनके पास पहुँच जाती। बतौर प्रधानमंत्री रहते हुए कई बार अपने काफिले को छोड़ वे लोगों से मिलने कई किलोमीटर अकेले पैदल ही चल पड़ते थे।
साल 1965 के दौरान शास्त्री जी की कार्यकुशलता और शानदार अगुवाई में भारत ने पाकिस्तान को जंगी मैदान में धूल चटाई। खेतों में किसान और लड़ाई में जवान की अहमियत को वे अच्छे से समझते थे। 10 जनवरी 1966 को पाकिस्तान से शांति समझौता करने के लिए ताशकंद रवाना हो गये, जहां उन्होनें कथित तौर पर अपने जीवन की आखिरी सांसे ली। लाल बहादुर जी की सादगी, कार्यकुशलता और नेतृत्व क्षमता आने वाली कई सदियों तक संसद सदन में बैठे सत्तानायकों के लिए मिसाल बनी रहेगी।