Lok Sabha Elections 2024: हाल ही में कुछ दिन पहले पीपुल्स कॉन्फ्रेंस ने संसद (लोकसभा) चुनाव के लिये श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र से अपने उम्मीदवार के नाम का ऐलान किया। चूंकि चुनाव अगले साल अप्रैल-मई में होने की उम्मीद है, इसलिये चुनाव का वक्त नजदीक आने पर बाकी पार्टियां अपने-अपने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर सकती हैं। सियासी हलकों के लिये ये जानना दिलचस्प होगा कि चुनावी मैदान में उतरने वाले चेहरे कौन होंगे? अभी पार्टी की बैठकें सिलसिलेवार तौर पर किये जाने के लिये शुरुआती तैयारियां ने रफ्तार पकड़ ली है और आने वाले महीनों में इसमें और भी तेजी आने की संभावना है।
अतीत के ठीक उलट परिसीमन की वज़ह से निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण होने के चलते साल 2024 में जम्मू और कश्मीर में संसद चुनाव एक अलग परिदृश्य में होंगे। इससे कुछ हद तक सियासी तस्वीर बदल गयी है और साथ ही चुनावी राजनीति कुछ हद तक पेचीदा हो गया है। इस तरह के बदलाव से राजनीतिक दलों को अपनी पिछली चुनाव जुड़ी रणनीतियों की समीक्षा करनी पड़ सकती है और खासकर तब जब ज्यादा पार्टियां चुनावी मैदान में होंगी और वोटों के बंटवारे में खुलतौर पर तेजी होगी। वक्त समय के साथ बीजेपी भी अपने कुछ सीनियर नेताओं की कड़ी मेहनत और युवाओं तक पहुंच के साथ कश्मीर की सियासी तस्वीर में भगवा रंग भरने के लिये तैयार है।
कश्मीर की तीन लोकसभा सीटों पर लंबे समय तक नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपना दबदबा कायम रखा था, जिसे पीडीपी ने कुछ वक्त के लिए तोड़ दिया था। हालाँकि एनसी ने साल 2019 के चुनावों में सभी तीन सीटें जीतकर धमाकेदार वापसी की।
लेकिन क्या निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण ने असल में कुछ राजनीतिक दलों के चुनावी हितों को प्रभावित किया है? क्या भाजपा के पास अब नवगठित अनंतनाग-पुंछ निर्वाचन क्षेत्र पर भी कब्ज़ा करने का मौका है और इससे भी ज्यादा अगर पहाड़ी समुदाय को भी चुनाव से पहले अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाता है तो क्या समीकरण बनेगें? इन सवालों का जवाब आने वाले वक्त में पता चल जायेगा। यहां तक कि पार्टियों के बीच चुनावी गठबंधन की संभावना, अगर कोई है भी उस वक्त साफ हो जायेगी।
निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं में बदलाव और वोटों के बंटवारे का डर एनसी को गठबंधन के लिये मजबूर कर सकता है। सामने आ रही रिपोर्ट में कहा गया है कि अभी पार्टी का मूड पहले की तरह जम्मू-कश्मीर की सभी पांच सीटों पर चुनाव लड़ने का है। साल 2019 में एनसी ने कश्मीर से तीनों सीटें जीती थीं, जहां तक पीडीपी का सवाल है तो वो लोकसभा चुनाव में मजबूत स्थिति में नहीं दिख रही है।
पिछले चुनाव में पार्टी को कोई सीट नहीं मिली थी। परिसीमन प्रक्रिया के दौरान तत्कालीन अनंतनाग संसदीय क्षेत्र से शोपियां, पुलवामा, राजपोरा, पंपोर और त्राल (Pampore and Traal) विधानसभा क्षेत्रों को बाहर निकालना और उन्हें श्रीनगर संसदीय क्षेत्र में मिला देना कुछ ऐसा है, जो कि पार्टी को रास नहीं आ रहा है।
हालाँकि कुछ लोगों का कहना है कि पीडीपी ने पुंछ और राजौरी (Poonch and Rajouri) जिलों के कई इलाकों में पैठ बनाने की कोशिश की है, जिन्हें पहले एनसी का गढ़ माना जाता था। ये देखना भी दिलचस्प होगा कि श्रीनगर लोकसभा क्षेत्र में शोपियां, पुलवामा, राजपोरा, पंपोर और त्राल को शामिल करने से श्रीनगर निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव नतीज़ों पर क्या असर पड़ सकता है।
कुछ हलकों का मानना है कि नेकां परिसीमन प्रक्रिया के दौरान बडगाम और बीरवाह (Budgam and Beerwah) विधानसभा क्षेत्रों को श्रीनगर लोकसभा क्षेत्र से बारामूला लोकसभा क्षेत्र में स्थानांतरित करने से नाखुश थी।
जम्मू की दो लोकसभा सीटों को लेकर कहा जा रहा है कि परिसीमन के दौरान बदलाव के बावजूद बीजेपी वहां आराम से जीत की स्थिति में है। पार्टी इस बार भी दोनों संसद सीटें जीतने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त है। वो लद्दाख सीट दोबारा जीतने को लेकर भी आशान्वित है।
बीजेपी का मानना है कि इस बार वो लद्दाख में मजबूत स्थिति में है क्योंकि 5 अगस्त 2019 उठाये कदम की वज़ह से इस इलाके को जम्मू-कश्मीर से अलग कर अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। जबकि लद्दाख (Ladakh) में लोग कुछ नई मांगें कर रहे हैं, भाजपा नेताओं का कहना है कि ऐसे मुद्दों से निपटा जायेगा क्योंकि यूटी दर्जे की उनकी मुख्य मांग पहले ही मान ली गयी है।
हालांकि विधानसभा चुनाव कराने के सही समय को लेकर अभी भी पशोपेश की स्थिति बनी हुई है, राजनीतिक दल अपनी ओर से इसके लिये जरूरी तैयारियां करने में भी मशगूल हैं। लोकसभा चुनाव से पहले या उसके बाद विधानसभा चुनाव के ऐलान होने पर वो तैयार रहना चाहते है।
परिसीमन प्रक्रिया (Delimitation Process) ने जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों की दिशा और दशा को भी बदल दिया। कई विधानसभा क्षेत्रों की सीमायें फिर से खींची गईं, सात नये निर्वाचन क्षेत्र जोड़े गये और कुछ को आरक्षित रखा गया।
कश्मीर और जम्मू दोनों में कई राजनीतिक दलों ने बदलावों की आलोचना की थी। हालाँकि आधिकारिक स्तर पर ये कहा गया था कि परिसीमन की कवायदों की बहुत ज्यादा दरकार थी, साथ ही संसद और विधानसभा क्षेत्रों के लिये नई जरूरतों को पूरा करने के लिये इसे पारदर्शी तरीके से अंजाम दिया गया था।
सरकारी स्तर पर सफाई के बाद इस मामले पर खींचतान शांत हुई। अब फोकस लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों की टाइमिंग पर है, जबकि लगभग सभी दलों की ओर से जल्द से जल्द विधानसभा चुनाव की मांग की जा रही है, पर्यवेक्षकों का कहना है कि देरी ने किसी न किसी तरह से हर पार्टी को जमीन पर अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद की है।
एक वक्त था जब कुछ लोगों को लगा कि पीडीपी वेंटिलेटर पर अपनी आखिरी सांसें गिन रही है, क्योंकि पार्टी के ज्यादातर सीनियर और जूनियर नेताओं ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। पीडीपी (PDP) से छिटके कुछ नेताओं ने अपनी पार्टी बना ली या फिर दूसरी पार्टियों से जुड़ गये। नेकां के भी बहुत से लोगों ने अपनी पार्टी नहीं छोड़ी, सामने आ रही रिपोर्टों से इशारा मिला कि कुछ जूनियर नेता जो कि सियासी खानदान से हैं, उस वक्त विधानसभा चुनाव होने पर बाहर जाने और नई पार्टियों में शामिल होने के लिये पूरी तरह से तैयार थे।
हालांकि इन खबरों का कुछ युवा नेताओं ने खंडन किया। चूंकि मतदान नहीं हुआ और वक्त भी बीत गया, इसलिए अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन भविष्य में चुनाव के वक्त ऐसी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। विधानसभा चुनाव में देरी का फायदा पीडीपी को भी हुआ है। कई जानकारों का मानना है कि साल 2018 में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार के टूटने के बाद से ही पार्टी को लगातार मिल रहे झटके से उबरने के लिये काफी वक्त मिला है।
बीजेपी ने इन सालों में कश्मीर के हर कोने में अपनी मौजूदगी दिखाकर वहां अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है। विभिन्न वर्गों के लोगों खासतौर से युवाओं के साथ नियमित बातचीत की वज़ह से भाजपा के नेता अब घाटी में जाने पहचाने चेहरे बन गये हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस (National Conference) भी लोगों से दोबारा जुड़ने में मशगूल है और कांग्रेस भी।
दूसरी ओर सैयद मोहम्मद अल्ताफ बुखारी (Syed Mohammad Altaf Bukhari) की अपनी पार्टी कश्मीर बेस्ड दूसरी पार्टियों के लिये कुछ चुनौती पेश कर सकती है। बुखारी खुद राजनीतिक मोर्चे पर काफी सक्रिय हैं और लगातार जगह-जगह जाकर सार्वजनिक सभाओं को संबोधित कर रहे हैं। अपने प्रतिद्वंद्वियों की आलोचना के बीच वो कहते रहे हैं कि ”कश्मीर में पारंपरिक पार्टियों के उलट, उनकी राजनीति छल, धोखाधड़ी और खोखले नारों की बुनियाद पर नहीं टिकी हुई है।” वो लोगों को संबोधित करते हुए कहते रहते हैं, ”मैं आपसे कुछ ऐसा वादा नहीं कर सकता, जो कि मैं पूरा नहीं कर सकता। लेकिन मैं आपसे शांति, विकास, सम्मान और आपके अधिकारों की सुरक्षा का वादा करता हूं।”
अगर तब तक विधानसभा चुनाव नहीं हुए तो लोकसभा चुनाव राजनीतिक दलों की मशहूरियत के लिये पहला बड़ा इंतिहान होगा। बड़ी पार्टियाँ और यहाँ तक कि नई पार्टियाँ भी राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आधिकारिक प्रतिनिधित्व और पहचान पाने के लिये जीतने की कोशिश करेंगी। संसद में प्रतिनिधित्व काफी अहम है और हर दल इस बात को अच्छी तरह से समझता है। पार्टियां लोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय स्तर पर वो जगह हासिल कर सकें, इस दिशा में तैयारियों को लेकर वो जी-तोड़ मेहनत में लगी हुई है।