बहुत अरसे बाद अंबेसडर कार (Ambassador) दिखी, सड़क पर चलती हुई, अचानक से दिलीप कुमार याद आ गये।
दिलीप कुमार का बहुत भारी जलवा रहा है फिल्मों में, वैसा जलवा अंबेसडर कार का रहा है। लाइन लगाकर लोग खरीदते थे। हालांकि एक वक्त में लाइन तो लगभग हर चीज के लिए लगा करती थी। फोन के लिए भी लाइन लगती थी और फोन के बिल का पेमेंट करने के लिए भी लाइन लगती थी। ये बीएसएनल-एमटीएनएल यानी सरकारी फोनों को अब कोई नहीं पूछ रहा है पर एक वक्त था, इनके लिए भी लाइन लगती थी।
नयी पीढ़ी के लिए कारों के लिए कई ब्रांड हैं-फोर्ड से लेकर महिंद्रा से लेकर जीप से लेकर मारुति से लेकर किया से लेकर मारिसन गेराज से लेकर, पर पुराने लोग बता सकते हैं कि कारों के बहुत गिने चुने ब्रांड होते थे। अंबेसडर कारों का जलवा था, पुरानी फिल्मों में टाप क्लास स्मगलर और नेता अफसर वगैरह सब अंबेसडर में चलते थे। अब कारों के ब्रांड बदल गये हैं।
एक कार का इश्तिहार था-करीब 30 लाख रुपये की कार थी, नाम इस कार का ब्रिटिश जैसा था, पर यह कंपनी चाईनीज है। चाईनीज बहुत शाणे लोग हैं, ब्रिटिश भेष में घुसते हैं। खैर इंडिया की पब्लिक को तो चीनी भेष से भी चिंता नहीं है। एक चीनी मोबाइल कंपनी (Chinese Mobile Company) बता चुकी है कि एक हफ्ते में इसने पचास लाख फोन बेच लिये। ब्रिटेश हो या चाईनीज या इंडियन पब्लिक को सस्ता और टिकाऊ माल चाहिए। स्वदेशी का हल्ला काटने वाले भारतीय उद्यमियों को भारतीय जनता से अपेक्षा यह है कि वह स्वदेशी के नाम पर घटिया और महंगा खऱीदे। पब्लिक शाणी है, वह स्वदेशी होने से इनकार कर देती है। पब्लिक बहुतै शाणी है वह गांधीजी की बात मानकर दे दनादन खादी खऱीदती है, पर डिस्काऊंट पर मिले-20 प्रतिशत का डिस्काऊंट और 30 प्रतिशत का डिस्काऊंट। स्वदेशी सस्ता और टिकाऊ मिले तो पब्लिक स्वदेशी हो जाती है, गांधीवादी तक हो जाती है। वरना तो पब्लिक को चाईनीज होने में दो सेकंड ना लगता।
चाईनीज ब्रिटेश धज में आते हैं। चाईनीज का मामला बहुत गहरा है, घनघोर भारतीय लगनेवाले ब्रांड को तलाशें तो वह भी चाईनीज निकल सकता है। चाईनीज क्रिकेट ना खेलते पर क्रिकेट के टूर्नामेंट स्पांसर (Cricket tournament sponsor) करने में गुरेज ना करते, धंधे के लिए आदमी क्या क्या नहीं करता।
खैर अंबेसडर देखकर दिलीप कुमार याद आये। दोनों की बाजार में इन दिनों वह पूछ नहीं है। अंबेसडर एक वक्त धुआंधार चलती थी। धुआंधार चलने की एक वजह यह थी कि कार बनाने का लाइसेंस कुछ ही कंपनियों को मिला हुआ था। कम कंपनियो को लाइसेंस मिले और कंपटीशन ना हो, तो कुछ भी चल सकता है। सरकारी फोन भी उन दिनों खूब चलते थे, क्योंकि वो ही चल सकते थे, किसी भी प्राइवेट कंपनी को फोन सर्विस चलाने का लाइसेंस हासिल नहीं था। कुछ ना दिखे टीवी पर, तो बंदा कृषि दर्शन तक देख सकता था, रोज। हां पर इससे यह तो माना ही जा सकता था कि कृषि दर्शन आम भारतीयों के बीच भी बहुत जनप्रिय कार्यक्रम है।
मानने को कुछ भी माना जा सकता है, पर यह जरुर माना जाना चाहिए कि दिलीप कुमार सुपर एक्टर थे, पर यह बात अंबेसडर के बारे में नहीं कही जा सकती है कि यह सुपर कार थी।
साभार- आलोक पुराणिक