नई दिल्ली (शौर्य यादव): वायरस के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए मोदी सरकार (Modi Government) ने बीते 25 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन (lockdown) कर दिया। हालातों के मद्देनज़र लॉकडाउन का फैसला एकदम बेहतरीन था। लेकिन प्रशासनिक नीति-निर्धारकों (policy makers) ने एक फिर इस निर्णय के साथ साबित कर दिया कि उनमें दूरदर्शिता का कितना अभाव है और साथ ही ज़मीनी हालातों की समझ भी ना के बराबर। Corona संक्रमण से ज़्यादा लोग भावनात्मक (emotional) अलगाव (Isolation), भुखमरी, और पलायन (migration) संकट का शिकार बने। केन्द्र और राज्य सरकारें भले ही कितने बड़े वायदे कर खुद की पीठ थपथपा ले लेकिन वास्तविक स्थिति जनता अच्छे से समझ रही है। देशभर के कई हिस्सों से दिल दहला देने वाली तस्वीरें लगातार सामने आ रही है। अगर policy makers ने लॉकडाउन की रूपरेखा तैयार करते समय थोड़ी सी भी समझदारी का परिचय दिया होता तो संक्रमण सहित कई मुसीबतों से बचा जा सकता था। आइये नज़र डाले लॉकडाउन के कमजोर पहलुओं पर
जल्दबाजी में लिया गया Lockdown का फैसला
लॉकडाउन लागू करने की प्रक्रिया ही पूरी तरह बेढंगी थी यानि कि Lockdown का फैसला पूरी तरह से जल्दबाजी में लिया गया। सरकार की इस जल्दबाजी का सीधा असर प्रवासी कामगारों (migrant workers) पर पड़ा। अगर इसे लागू ही करना था तो ट्रेनों की फ्रिक्वेंसी (frequency) बढ़ाते हुए 1 से 2 हफ्तों की मोहलत देकर मजदूरों को घर पहुँचा देना चाहिए था। यात्रा के दौरान सोशल डिस्टेसिंग और गाइडलाइस का पालन प्रशासन द्वारा सुनिश्चित करना चाहिए था।
लॉकडाउन 1 के दौरान देशभर में तकरीबन 562 संक्रमण के सक्रिय मामले थे। मान भी लिया जाये कि इस कवायद से 10 गुना संक्रमण फैलता तब भी ये 5620 होता। यानि कि संभावित रूप से आज के मौजूदा हालातों से कहीं बेहतर। लेकिन कामगारों को रोका गया। जब उनकी बचत खत्म होने लगी और खाने को लाले पड़ने लगे, उनका सब्र ज़वाब देने लगा तो मजबूरन उन्हें बाहर आना पड़ा और अपनी जान की परवाह भी न करते हुए लाखों प्रवासी कामगारों पैदल ही अपने घरों की ओर निकल पड़े।
इससे बड़ी हास्यापद बात और क्या होगी कि जब संक्रमण के मामले कम थे, तब उन्हें घर जाने से रोका गया। अब जब इंफेक्शन अपने चरम बिन्दु की ओर पहुँच रहा है तो, उन्हें बसों और ट्रेनों में लादकर घर पहुँचाया जा रहा है। घर पहुँचने के चक्कर में migrant workers ने पुलिस की लाठियां खाई, सड़क हादसों में जान गंवाई, पैदल चलते-चलते थकान और गर्मी से दम तोड़ दिया। क्या इन हालातों का अन्दाज़ा air conditioned कमरों में बैठे प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं था?
28 मार्च को दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर प्रवासी कामगारों की भीड़ घर जाने के लिए इकट्ठा हुई। ठीक इसी तरह 15 अप्रैल को मुंबई के बान्द्रा में प्रवासी मजदूरों की भीड़ इकट्ठा हुई, इसके पीछे लॉकडाउन नीतियों की खोखली खामियां छिपी थी।
अगर सरकार लॉकडाउन करने से पहले migrant workers को उनके शहर या गाँव पहुंचा देती तो सरकार पर से एक बहुत बड़ा आर्थिक बोझ कम हो जाता। हड़बड़ी में lockdown करने के कारण हजारों, लाखों की संख्या में रोजाना कमाने और खाने वाले प्रवासी मज़दूरों पर भोजन का संकट मंडराने लगा। ऐसे मज़दूरों को भुखमरी से बचाने के लिए सरकार ने लम्बे समय तक फ्री में खाने की व्यवस्था की। वहीँ अगर इन मज़दूरों को समय से भेज दिया होता तो शायद इतना बड़ा आर्थिक बोझ सरकार पर न पड़ता और इस पैसे का उपयोग देश की चरमराती हुई स्वास्थ्य सेवाओं पर लगाया जा सकता था।
सरकार के इस गलत फैसले के चलते न केवल प्रवासी मज़दूरों को परेशानी उठानी पड़ी बल्कि इसके चलते वो 13 राज्य (Chhattisgarh, Jharkhand, Himachal Pradesh, Jammu and Kashmir, Kerala, Mizoram, Manipur, Goa, Meghalaya, Ladakh, Arunachal Pradesh, Odisha और Andaman and Nicobar Islands) जहाँ 8 मई तक पिछले कई दिनों से कोरोना का एक भी नया केस नही दिखा था, नए केस सामने आने लगे।
गौरतलब है कि 8 मई तक Daman and Diu, Sikkim, Nagaland और Lakshadweep Islands में एक भी कोरोना का केस नही था लेकिन प्रवासी कामगारों के अपने शहर पहुचने के बाद इन राज्यों में भी कोरोना के केस सामने आने लगे। नतीजा ये हुआ की 16 जून को Daman and Diu और Dadar and Nagar Haveli में कुल 36 मामले है, Sikkim में 68, Nagaland में 177 मामले पहुँच गये है।
खुद भम्र की स्थिति में घिरी रही सरकार
हालात इस कदर बिगड़ते चले गये एहतियातन कदमों के बारे में सरकार खुद भम्र की स्थिति में घिरी रही। पहले आम जनता को बोला गया कि, सभी को फेसमास्क (face masks/ cover) पहनने की जरूरत नहीं है, जो इंफेक्शन से ग्रसित है सिर्फ उन्हें ही फेसमॉस्क पहनना है। बाद में ये नियम बदलकर सभी पर लागू कर दिया गया। यानि सरकार को बहुत देर बाद ये पता लगा कि, छींक और खांसी से निकलने वाली बूंदों से भी संक्रमण फैल सकता है।
केन्द्र सरकार ये बात अच्छे से जानती थी कि, देशभर में अगर एकसाथ मास्क की अनिवार्यता लागू कर दी जायेगी तो जनता में हाहाकार मच जायेगा। लोग मास्क खरीदने के लिए दुकानों पर दौड़ेगें, पर देश के मौजूदा संसाधन इस काबिल नहीं है कि सभी को एक साथ मास्क उपलब्ध करवाया जा सके। प्रशासन को बहुत पहले इस तथ्य से आम लोगों को अवगत कराना चाहिए था। मुद्दे पर सरकार का फैसले से यू-टर्न मारना दिखाता है कि, केन्द्र और राज्य सरकारें उभर रहे संकट के प्रति कितनी संवेदनशील है।
नीति लागू करने और नियमों का पालन कराने में भी फेल रही केन्द्र सरकार
जनता के बढ़ते दबाव के बीच आनन-फानन में कई योजनाओं का खाका खींच दिया गया। लेकिन योजनाओं को लागू करने और उनकी निगरानी करने के मोर्चे पर केन्द्र सरकार लगातार विफल रही।
पहले कहा गया कि, कोई भी नियोक्ता किसी की सैलरी ना काटें, किसी को नौकरी से ना निकले, कोई भी मकान मालिक किरायेदारों से किराया ना ले। लेकिन केन्द्र सरकार की अपील का कोई असर नहीं पड़ा। जहां नियम सख़्त नियम लागू करने चाहिए थे, वहाँ पर भावनात्मक अपील से ही मोदी सरकार काम चला रही थी। योजना बनाते समय संभावित तौर पर किन-किन लोगों को कितना नुकसान होगा, इसका सही-सही आकलन लगाने में भी प्रशासन नाकाम रहा।
कारोबारियों, उद्योगपत्तियों और दुकानदारों को बगैर किसी आमदनी के दुकान और गोदामों का किराया भरना पड़ा। कई अस्पतालों विशेषकर सरकारी अस्पतालों में कर्मचारियों का रवैया पहले की तरह लापरवाह और गैर-जिम्मेदाराना बना रहा। बीमार लोग सड़कों पर घूमने के लिए मजबूर हो गये। निजी अस्पताल मौका भुनाते हुए जमकर कर लूटमारी कर रहे है। इन पर नकेल कसने के लिए किसी तरह की कोई नीति नहीं बनी।
#AatmnirbharBharat राहत पैकेज जारी करने से पहले पर्याप्त होमवर्क का अभाव
जारी की गयी योजनाओं में पिछले दरवाज़े से भष्ट्राचार हो ही रहा था। इस बीच देश में आत्मनिर्भर भारत राहत पैकेज ने दस्तक दी। पैकेज की राशि देश की जीडीपी (GDP) के दस फीसदी के बराबर है। यानि प्रशासनिक गिद्धों के लिए सुनहरा मौका। राहत पैकेज ना होकर ये एक तरह से लोन पैकेज (loan package) है। यानि जनता सरकार से उधार लेकर काम-धंधा शुरू करे।
अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सी फिच के मुताबिक इस राहत पैकेज की महज़ एक फीसदी राशि ही खर्च हो पायेगी। पैकेज जारी करने में दूरदर्शिता का साफ अभाव देखा जा रहा है। साधारण सा गणित है। लॉकडाउन के कारण लोगों की आमदनी में भारी कमी आयी है। जिससे आम जनता की क्रय क्षमता (Purchasing Power) घटी है। पैकेज लोगों को आर्थिक मदद देते हुए, उत्पादन क्रियायें फिर से शुरू करने में सहायता करता है। लेकिन जब आम जनता के पास उत्पादित वस्तुयें और सेवायें खरीदने के लिए पैसे ही नहीं होगें तो, उत्पादन का क्या होगा? ऐसे में केन्द्र सरकार को जनता की क्रय क्षमता बढ़ाने के कारगर उपाय करने होगें। ताकि लोगों कि क्रय क्षमता बढ़े और वे वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग के लिए खर्चा करे।
जनता के साथ धोखा करती केन्द्र सरकार
केन्द्र सरकार ने राशन वितरण को लेकर उन लोगों को इसका फायदा पहुँचाया है। जो साल 2011 में नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के दायरे में आते थे। यानि कि वो लोग अभी भी इस सुविधा से वंचित है। जिन्हें 2011 के बाद नोटिफाई नहीं किया गया है। मौजूदा संकट को देखते हुए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (PMGKY) के तहत जनधन खाताधारक गरीबों को तीन महीनों के लिए केन्द्र सरकार उनके खाते में 500 रूपये भेजेगी। साल 2020 में एक औसतन परिवार (दो व्यस्क, दो बच्चे) के लिए 500 महीना गुजर-बसर कितना मुमकिन है? बड़ा सवाल ये भी है कि, जो लोग पीडीएस और पीएमजीकेवाई के दायरे में नहीं आते उनका क्या? लॉक डाउन के दौरान सिर्फ कागज़ी दावों से ही केन्द्र सरकार जनता को खुश करती रही।
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में कई लोगों को सिर्फ कागज़ पर ही उज्जवला योजना के कनेक्शन बांटे गये। केन्द्र सरकार के रिकॉर्ड्स के मुताबिक जिले भर में योजना का फायदा 1.77 लाख लोगों को हुआ है, जबकि हकीकत कागज़ी दावों से परे है। मामले का खुलासा लॉकडाउन में ही हुआ। जबकि मोदी सरकार लॉकडाउन को कामयाब बनाने में उज्जवला योजना की फर्जी भूमिका पर खुद अपनी पीठ थपथपाती रही।
बड़ा सवाल ये भी है कि, चार चरणों में लॉकडाउन लागू करने के लिए सरकारी मशीनरी और फंड अंधाधुंध झोंक दिया गया। पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती की गयी। सार्वजनिक अस्पतालों को फंड मुहैया करवाया गया। पीएम केयर्स में दान का अथाह पैसा आया। बावजूद इसके संक्रमण के मामलों में कमी क्यों नहीं आयी? योजना बनाने और उसे लागू करने में कहां खामियां रह गयी? मामले को लेकर केन्द्र सरकार वाकई संवेदनशील है?