16 नवम्बर के दिन 1857 में नसीबपुर (Naseebpur Narnaul Haryana) के रणखेतों में हिन्द के इतिहास को वीरता का एक असाधारण अध्याय हासिल हुआ। लाल घाटी में एक तरफ अहीरवाल के चंद्रवंशी यदुवंशी अहीर क्षत्रिय की तलवारें और उसके साथ जोधपुर (मारवाड़) के सूर्यवंशज रघुवंशी राठौड़ क्षत्रिय सैनिक और दूसरी तरफ फिरंगी और उनके साथ मुल्क-ए-हिन्द के कुछ गद्दार।
मोर्चा ज़म गया, यदुवंशियों ने जय दादा किशन के रणघोष से अंग्रेजों को थर्रा दिया। जोगिणी खप्पर ले कर रणखेतों में घूमने लगी , पहले झटके में रेवाड़ी रियासत के महाराजा राव तुला सिंह बहादुर के अनुज राव किशन सिंह जी की मिसरी (राव जी की तलवार का नाम) ने हाथी पर सवार अँगरेज़ जनरल जेर्राड (British General Gerard) का सर धड़ से अलग कर दिया। दूसरे ही पल महाराजा राव तुलाराम जी के भाई एवं सेनापति राजा राव गोपाल देव ने तलवार के एक वार से एक अंग्रेज़ को घोड़े सहित दो टुकड़ों में काट दिया।
युद्ध का आरंभ हो गया था महाराजा राव तुलाराम और राव गोपाल देव के आदेश पर 5 हजार अहीर रणबांकुरे और सूर्यवंशी राठौड़ सैनिकों हजारों की संख्या वाले अंग्रेजी सेना को गाजर मूली के तरह काटना शुरू कर दिया। यदुवंश शिरोमणि राव तुलाराम जी दोनों हाथो में तलवार ले कर अंग्रेज़ो को यमलोक पहुँचा रहे थे। इस युद्ध में राव तुलाराम जी के साथ सिख कमांडर प्राण सुख यादव भी थे जिन्होनें नसीबपुर के मैदान में अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए थे।
अहीरवाल के सभी ठिकाने के यदुवंशी सरदार आफरिये, सान्तोरिये, नुणीवाल, निगानिये, कोसलिये, गुणवाल, सह्लंगिये, खोला, कनीनवाल, खोस्या, खातोदिये, सुल्तानिये आदि तमाम वीर जिनको प्यारा था नाम अहीर। रणखेतों में नंगी तलवारें लेकर रेवाड़ी नरेश यदुकुल सिरमौर राव राजा तुला सिंह जी और उनके अनुज राव गोपाल देव सिंह जी के नेतृत्व में अंग्रेजों से जूझ गये और फिरंगियों के लहू से नसीबपुर की मिट्टी को लाल कर दिया ।
विजयश्री क़दमों में थी अंग्रेजी सेना का नाश हो गया था लेकिन अनहोनी हो गयी- युद्ध के दौरान एक अंग्रेजी सैनिक के द्वारा किए गए वार से राव किशन गोपाल सिंह यदुवंशी का सिर धड़ से अलग हो गया । लेकिन राव कृष्ण गोपाल सिंह का वफादार घोड़ा उस अंग्रेजी सैनिकों को मारकर कृष्ण गोपाल जी का धड़ को लेकर सीधा उनके ठिकाने नांगल पठानी पहुंच गया। इस दौरान रास्ते के गांव कंवाली के पास उनका धड़ घोड़े से गिर गया। घोड़ा नंगल पठानी पहुंच गया, जब लोगों ने उनके घोड़े को लहू से लथपथ देखा तो उन्हें यह भरोसा हो गया कि राव गोपाल सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए।
कंवाली गांव के लोगों ने दाह संस्कार किया और वहां एक समाधि बना दी। जिस की आज भी गांव के लोग पूजा करते हैं और वार्षिक मेला भी लगता है। भाई की मृत्यु से दुखी हो राजा राव तुलाराम, राव गोपाल देव और अनुज राव रामलाल सिंह जी यदुवंशी कहर बन कर फिरंगियों पर टूट पड़े। लाश पर लाश चढ़ गयीं लेकिन अचानक देश-द्रोही जयपुर नाभा सिंध और पटियाला की टोली फिरंगियों की मदद के लिए आ गयी।
राव तुलाराम जी का गुस्सा इस वक़्त सातवें आसमान पर था भाई के मृत्यु का प्रतिशोध लेने, वह अकेले ही अंग्रेजो पर कहर बन गए, अकेले ही गोरो सैनिकों का नाश कर रहे थे और इस क्रम में वह काफी घायल हो गए। राव तुलाराम जी के भाई राव गोपाल देव जी ने घायल राव तुलाराम जी को बच निकलने की अपील की पर राव तुलाराम जी ने भाइयों को छोड़कर जाने से मना कर दिया। इस पर वो उन्हें समझाते हुए बोले -“भईया आप राजा है और हम सिपाही। अहीरवाल के हर घर से सिपाही पैदा हो जाएंगे पर आप जैसा राजा नहीं। इसलिए देश की भलाई की खातिर आपका बचना बहुत जरूरी है”
राव साहब आजादी कि लौ लेकर प्राण सुख यादव के साथ वहां से बच निकले। राव गोपाल देव और बाकी राव साहब कई घंटो तक दोनों हाथो में तलवार ले कर अंग्रेजो को काटते रहे। अहीरवाल का सर्वोत्तम खून रणभूमि में बहा, लेकिन मुल्क के गद्दारों ने पीठ में छुरा घोंप दिया। राव गोपाल देव और राव रामलाल सिंह जी अपने रणबांकुरे यदुवंशियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए।
अहीरवाल के हर यदुवंशी घराने ने अपने हिस्से का खून बहा दिया। फिरंगी इतिहासकार कैप्टेन मालेसन बोला “ऐसा बहादुराना मुकाबला तमाम हिन्द में आज तक अंग्रेजों ने नहीं देखा।” अंग्रेजों के लिए ये बड़ी जीत थी। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, इसे महत्वपूर्ण मानते हुए लेफ्टिनेंट फ्रांसिस डेविड मिलेट ब्राउन (Lieutenant Francis David Millett Brown) को इस लड़ाई में विक्टोरिया क्रॉस (Victoria cross) से सम्मानित किया, जो कि उस जमाने में गौरव की बात थी।
1857 की क्रांति में अपने कौशल दिखा चुके यदुवंश शिरोमणि राव तुलाराम जी का दूसरा रूप 1859 के आस-पास नजर आता है जब लगभग 34-35 बरस के तुलाराम, एक बड़ी मुहिम के लिए खुद को आगे करते हैं। राव तुलाराम जी के खास मित्र बीकानेर रियासत के महाराज सरदार सिंह बहादुर ने तय किया कि, रूसी जार के पास उनमें से कोई दूत बनकर जाए और मदद की दरख्वास्त करे। रेवाड़ी के नरेश ने इस दुर्गम और तकलीफदेह यात्रा के लिए खुद को पेश किया और मारवाड़ और बीकानेर के जार के नाम लिखे गए अलग-अलग पत्रों के साठ, एक दस्ते समेत, रूस का रुख किया।
सेंट-पीटर्सबर्ग के संग्रहालय (Museum of Saint-Petersburg) में सरदार सिंह बहादुर राजा बीकानेर का पत्र आज भी सुरक्षित है। जो ये साबित करने के लिए काफी है कि दरअसल तुलाराम भारत के पहले राजदूत हैं जो अपनी आजादी के लिए रूसी मदद के लिए रूस गए। इस लंबी और यातना भरी यात्रा में तुलाराम का सब कुछ छूट गया और उनके साथी गिरफ्तार हो गए।
जब राव तुलाराम जी काबुल पहुंचे तो उनका गिरता स्वास्थ्य गंभीर स्थितियों में पहुंच गया था और 23 सितंबर 1862 या 63 में काबुल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन देखिये इस मुल्क का अंदाज़ इतिहास के पन्नों में नसीबपुर में अहीरवाल की मर्दानगी को उचित स्थान नहीं मिला। ये अन्याय है। 1857 के उस दौर की महानतम रण-गाथा अहीरों ने अपने खून से लिखी अपनी तलवारों से के जोर से लिखी। अभी मर्द कौम अहीर जिंदा है और अहीर रेजिमेंट और इतिहास में उचित सम्मान हासिल करने के लिए संघर्षशील है।
साभार – यादव योद्धा