नीति आयोग (NITI Aayog) के उपाध्यक्ष अमिताभ कान्त ने कहा है कि देश में लोकतंत्र की मात्रा ज्यादा हो जाने की वजह से सरकार को कुछ क्षेत्रों में कड़े फैसले लेने में दिक्कत हो रही है।
लोकतंत्र की ये ज्यादा मात्रा क्या है और भारत में इसका क्या स्कोप है, इसपर चर्चा करने से पहले हम नीति आयोग के बारे में कुछ जान लेते हैं।
आजादी के करीब दो साल बाद, 1950 में केंद्रीय स्तर पर एक एजेंसी का गठन हुआ, जिसे नाम दिया गया- योजना आयोग! यह आयोग जवाहरलाल नेहरू, प्रख्यात इंजीनियर एम.विश्वेश्वरैया और दुनिया को थर्मल आयोनाइजेशन (Thermal ionization) का सिद्धांत देने वाले विख्यात वैज्ञानिक मेघनाद साहा के दिमाग की उपज थी।
योजना आयोग के प्रथम अध्यक्ष थे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू। इस आयोग का गठन देश की विविधता को ध्यान में रखकर किया गया था। हर क्षेत्र में मौजूद संसाधनों का सदुपयोग करते हुए के देश के सर्वांगीण विकास के लिए पांच पांच वर्षों की मियाद तय की गयी और इनपर योजनाबद्ध तरीके से काम किया गया। इन्हें हम “पंचवर्षीय योजनाओं” के नाम से जानते हैं।
शुरुआती दौर में योजना आयोग का मुख्य कार्यक्षेत्र देश के आधारभूत ढांचे में सुधार करना था। जिससे देश को कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, यातायात के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। समय के साथ आयोग का क्षेत्र और भी व्यापक होता गया।
फिर 2014 में नरेंद्र मोदी आये! 2015 में उन्होंने इसका नाम बदलकर “नीति (National Institution for Transforming India) आयोग” रख दिया। नीति आयोग को गठित हुए महज पांच साल हुए हैं और नीति आयोग उपाध्यक्ष ने हाथ खड़े कर दिये कि हमारे बस की बात नहीं है।
वहीं योजना आयोग 60 सालों तक देश के विकास की गाथा लिखता रहा। इस दौरान देश में कई आंतरिक व बाह्य समस्याएं भी आयीं। दुश्मनों के साथ हमने लड़ाइयां भी लड़ीं, लेकिन किसी भी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष ने ये नहीं कहा कि फलां समस्या की वजह से फलां योजना पर काम करना कठिन हो रहा है।
हाँ! राजनीतिक अस्थिरता (Political Instability) की वजह से 90 के दशक की कुछ योजनाएं जरूर प्रभावित हुई थीं। क्योंकि यह दशक दंगों का दशक था।
वापस आते हैं उपाध्यक्ष जी के उस बयान पर….
लोकतंत्र की प्रचुरता की बात कही है उन्होंने! क्या है ये लोकतंत्र की प्रचुरता?
आजादी से पहले भारतवासियों को कोई लोकतान्त्रिक अधिकार (Democratic right) प्राप्त नहीं थे। सबकुछ ब्रिटिश हुकूमत की मर्जी से होता था। किसान अपने खेत में क्या उगाएगा, छात्र स्कूल जायेगा या नहीं, सरकारी नौकरियों में किसे रखा जायेगा….यहाँ तक कि एक अदद नमक तक रखने के लिए हम ब्रिटिश हुकूमत (British rule) पर निर्भर थे।
आजादी मिली! ….और इसके साथ मिले सबको अपने लोकतान्त्रिक अधिकार। जनता को ये हक दिया गया कि वह अपने मन मुताबिक सरकार चुने जो उसके व उसके बच्चों का भविष्य सुधारे। ये सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक जीत थी।
एक ही चुनाव में हर वर्ग की जनता अपने अपने मुद्दों को केंद्र में रखकर मतदान करती है। छात्रों के अपने मुद्द्दे हैं और किसानों के अपने, व्यापारियों के अपने मुद्द्दे हैं और मजदूरों के अपने, महिलाओं के अपने मुद्द्दे हैं और कर्मचारियों के अपने, समुद्र के तट पर बसे राज्यों के अपने मुद्द्दे हैं और पहाड़ी व मैदानी राज्यों के अपने।
….और जब ये सारे मुद्द्दे एक समय में एक बूथ पर इकट्ठे होते हैं तो एक सरकार अस्तित्व में आती है। लोग अपना एक प्रतिनिधि चुनते हैं जो उनकी बात लोकसभा या विधानसभाओं में रखता है।
बात यहीं ख़त्म नहीं होती। यदि सरकार ठीक से काम नहीं कर रही है और मुद्द्दे अनसुलझे रह जाते हैं तो वही जनता सड़कों पर आ जाती है।
इसी को लोकतंत्र की प्रचुरता कहते हैं।
इसका मतलब ये है कि आज देश का हर वर्ग सरकार के समक्ष अपनी बात रखने को स्वतन्त्र है, क्योंकि देश में लोकतंत्र प्रचुर मात्रा में है।
अंग्रेजों के समय में ये नहीं था। था भी तो सिर्फ एकाध क्षेत्रों में ….और हमारे पूर्वजों ने इसी की लड़ाई लड़ी कि हमें और भी क्षेत्रों में लोकतंत्र चाहिए।
फिर क्या वजह है कि नीति आयोग का उपाध्यक्ष लोकतंत्र को ही विकास में बाधक बता रहा है?
वजह है योजना आयोग और नीति आयोग के अध्यक्षों की कार्यशैली।
साभार – कपिल देव