पाकिस्तान (Pakistan) में हाल के घटनाक्रम को देश और हमारे जैसे पड़ोसियों के लिये अच्छा नहीं कहा जा सकता। भारत और पाकिस्तान अपनी आजादी के बाद से ही चार बड़ी जंगों और दर्जनों छोटे पैमाने के संघर्षों में आमने-सामने रहे हैं। जबकि इमरान खान (Imran Khan) ने एक अप्रमाणित बयान दिया कि उनकी सरकार को दूसरे देश द्वारा निशाना बनाया जा रहा है और नेशनल असेंबली (National Assembly) को भंग कर दिया गया। विपक्ष चुनाव में जाने से डर रहा है। एकमात्र देश जहां सेना सीधे राजनीतिक मामलों में दखल दे रही है, ऐसे सवाल उठता है – क्या पाकिस्तान में असल में जम्हूरियत है?
इसका ज़वाब जानने के लिये हमें सबसे पहले ये समझना होगा कि पाकिस्तान में सबसे ज़्यादा ताकतवार कौन है? क्या ये राजनीतिक नेतृत्व है? न्यायपालिका है? उत्तर साफ है नहीं। पाकिस्तान में सबसे ताकतवर शख़्स सेना प्रमुख होता है, जिसके पास सैन्य अदालत में नागरिकों पर मुकदमा चलाने की ताकत होती है। जिसके पास मौत की सजा माफ करने की शक्ति है (अन्य सभी देशों में, दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित की जाती है) और जिसे किसी भी अपराध के खिलाफ पाकिस्तान के संविधान (Constitution Of Pakistan) के तहत ज़्यादा छूट मिली है।
आजादी के बाद के शुरुआती कुछ साल तटस्थ थे क्योंकि पाकिस्तान का प्रशासन ज्यादातर ब्रिटिश अधिकारियों के नेतृत्व में था। मार्च 1956 तक पाकिस्तान ब्रिटिश राजशाही के अधीन रहा, जब तक कि उन्होंने अपना पहला संविधान नहीं अपनाया। लेकिन सैन्य प्रभाव के संकेत 1951 में ही दिखायी दे रहे थे जब जनरल अय्यूब खान (General Ayub Khan) ने सर डगलस ग्रेसी से पाकिस्तानी सेना की बागडोर संभाली। वो पहले पाकिस्तानी मूल के थे जिन्हें पाकिस्तानी सेना प्रमुख के तौर पर नियुक्त किया गया।
पदभार संभालने के तुरंत बाद, अय्यूब खान ने पाकिस्तान के गवर्नर जनरल के रूप में मलिक गुलाम मोहम्मद (Malik Ghulam Mohammad) की नियुक्ति की योजना बनायी। इस्कंदर मिर्जा (Iskandar Mirza) के शासन काल में भी सत्ता पर वास्तविक नियंत्रण अय्यूब खान का ही था। वो 1958 तक सेना प्रमुख बने रहे, जब एक सैन्य तख्तापलट में उन्होंने देश की बागडोर संभाली। अय्यूब खान ने 1969 तक अपना शासन जारी रखा। इसके बाद एक और जनरल याह्या खान (General Yahya Khan) ने पाकिस्तान पर कब़्जा कर लिया और मुल्क में सैन्य शासन जारी रहा।
याह्या को 20 दिसंबर, 1971 को इस्तीफा देना पड़ा, ठीक तीन दिन बाद पाकिस्तान को भारत के खिलाफ अपनी सबसे बुरी और निराशाजनक हार का सामना करना पड़ा। अगर हम 1971 तक पाकिस्तान के इतिहास को देखें तो वहां जम्हूरियत का नामोंनिशान तक नहीं दिखता है। यानि कि आज़ादी के बाद से लोकतंत्र के असर मायने क्या होते है, ये पाकिस्तानी आव़ाम को पता तक ना थे। इसी तरह पाकिस्तान में अराजकता और सैन्य शासन के बीज बोये गये।
24 सालों तक पाकिस्तान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सेना का शासन था और राजनीतिक नेताओं ने अच्छी तरह से पता था कि अगर उन्हें देश चलाना है तो उन्हें सेना को विश्वास में लेना होगा। हालाँकि जुल्फिकार अली भुट्टो (Zulfikar Ali Bhutto) ने पाकिस्तान में किसी तरह के लोकतंत्र के लिये अपनी पूरी कोशिश की और देश के निर्वाचित प्रधान मंत्री को ज़्यादा से ज़्यादा अधिकार देकर लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन अगले छह सालों में उन्हें अपने सबसे बुरे दौर का सामना करना पड़ा।
साल 1977 में जनरल जिया-उल-हक (General Zia-ul-Haq) ने एक और तख्तापलट में देश पर कब्जा कर लिया और सभी राजनीतिक संस्थानों को भंग कर दिया। उन्होंने अगले 11 सालों तक अपना शासन जारी रखा। विमान दुर्घटना में जनरल जिया-उल-हक के मारे जाने के बाद ये दौर भी थम गया।
जनरल जिया की मौत के बाद लोकतंत्र ने खुद को ऊपर उठाने की कोशिश की, लेकिन अगले 10 सालों में सरकारों ने कुछ और ही देखा। ये अस्थिरता का दौर था जहां बेनजीर भुट्टो और मियां नवाज शरीफ के बीच सत्ता की सीट में उतार-चढ़ाव होता रहा और इस दौरान दोनों दो बार प्रधानमंत्री बने रहने के बावजूद, उनमें से किसी के पास पाकिस्तान को चलाने की असल ताकत नहीं थी।
बेनज़ीर की पहली सरकार को 2 साल से भी कम वक़्त में हटा दिया गया, जहाँ पाकिस्तानी सेना ने उसे हटाने की योजना बनायी थी। इसी तरह मियां नवाज का पहला कार्यकाल तीन साल से कम का था, जब उन्हें सेना के अनुरोध पर राष्ट्रपति द्वारा हटा दिया गया था। बेनज़ीर फिर से सत्ता में आयी, लेकिन राष्ट्रपति द्वारा तीन साल में विधानसभा भंग कर दी गयी और उसके बाद अक्टूबर 1997 में मियां नवाज़, जिन्हें जनरल परवेज मुशर्रफ़ (General Pervez Musharraf) ने 1999 में भी अपदस्थ कर दिया और पाकिस्तान में अगले 10 सालों तक सैन्य शासन जारी रहा।
मुशर्रफ के बाद अगले 10 साल फिर से अशांति से भरे हुए थे। जहां पाकिस्तान ने चार प्रधानमंत्रियों को देखा और उनमें से हरेक को किसी न किसी वज़ह से हटा दिया गया। साल 2018 तक पाकिस्तानी सेना ने ये अच्छी तरह से समझ लिया था कि देश पर अपना प्रभाव रखने के लिये, उनके पास प्रत्यक्ष सैन्य शासन के बजाय अपनी पसंद का शासक होना चाहिये। सैन्य शासन दुनिया भर में देश की छवि को नुकसान पहुंचाता है, इसलिए बेहतर है कि सत्ता की सीट पर एक कठपुतली बैठे जो आर्मी बैंड की धुन पर नाच सके। इसलिए उन्होंने इमरान खान को चुना।
आम चुनाव 2018 के दौरान पाकिस्तान सेना को सभी मतदान केंद्रों पर तैनात किया गया था और देश भर में बड़े पैमाने पर धांधली की जानकारी मिली थी, जहां पाकिस्तान सेना ने मतदाताओं को नियंत्रित किया ताकि वोट इमरान खान की पार्टी के पक्ष में हो। इमरान को प्रधान मंत्री के रूप में चुना गया। जिसके बाद सेना प्रमुख का तुरन्त बढ़ा दिया गया।
इसलिए संक्षेप में पाकिस्तान के 75 सालों में से हम सिर्फ 25 सालों के लिये पड़ोसी मुल्क में लोकतंत्र को देख सकते है, जो कि उथल-पुथल से भरा था और इतने कम समय में नौ कठपुतली प्रधानमंत्रियों को कुर्सी पर देखा गया। उनमें से हरेक को पाकिस्तान सेना के प्रभाव में राष्ट्रपति, सेना या पाकिस्तान की न्यायपालिका द्वारा हटा दिया गया, जबकि सेना ने पूरे पांच दशकों तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश पर शासन किया था।
दिलचस्प बात ये है कि पाकिस्तानी खुफिया (आईएसआई की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस) का सबसे बड़ा डिवीजन एक ब्रिगेडियर के अगुवाई में उसका राजनीतिक विभाजन है। पाकिस्तानी सेना का दबदबा ऐसा था कि वो अपने ही प्रधानमंत्री की बातचीत को टैप करते थे और जब 1989 में बेनजीर भुट्टो (Benazir Bhutto) के पहले शासन के दौरान ये बात सामने आई तो वो खुद भी कुछ नहीं कर सकीं।