पाकिस्तान ने अपनी स्थापना के समय से इस्लाम को राजनीति के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। इस्लामाबाद ने कभी भी इस्लाम (Islam) के उन सच्चे सिद्धांतों का पालन नहीं किया, जिसकी परिकल्पना कुरान और सुन्नत (Quran and Sunnah) में की गयी है। पाकिस्तान का वजूद मुकम्मल होने के साथ ही उन्होनें इस्लाम का गलत इस्तेमाल किया। सियासत के साथ मजहब को मिलाने से न सिर्फ पाकिस्तान में अल्पसंख्यक जातियों के बीच असुरक्षा की भावना पैदा हुई है बल्कि उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो गयी है।
अखिल भारतीय मुस्लिम लीग (All India Muslim League) जिसने ब्रिटिश भारत के मुसलमानों के लिये एक अलग सरजमीं की मांग की अगुवाई की ने मुसलमानों के बीच सभी भौगोलिक और सामाजिक-सांस्कृतिक अंतरों की अवहेलना की। इसके बजाय उन्होंने एक नये राष्ट्र के निर्माण के लिये पर्याप्त तर्काधार के तौर पर धर्म पर भरोसा किया।
हालांकि कायदे आजम़ मोहम्मद अली जिन्ना (Quaid-e-Azam Muhammad Ali Jinnah) समेत ज्यादातर मुस्लिम लीग के नेता उदार विचारों वाले थे और कुछ मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने पाकिस्तान आंदोलन का विरोध किया, उन्हें विभाजन के बाद अपना विचार बदलना था पाकिस्तान के वजूद में आने के तुरंत बाद इसका विरोध करने वाले इन धार्मिक समूहों ने देश के इस्लामीकरण और भविष्य के संविधान में इस्लामी कानूनों को अपनाने का आह्वान करना शुरू कर दिया। इसने उदारवादियों और इस्लामवादियों के बीच संघर्ष शुरू किया।
हालांकि 1977-1988 तक सैन्य शासक जिया उल-हक के तहत इस्लामीकरण ने पाकिस्तान का पूरा समर्थन हासिल कर लिया। ज़िया ने धार्मिक दलों खासतौर से जमात-ए-इस्लामी (जेआई) को चुना। इस्लामीकरण की एक प्रक्रिया शुरू की गयी जिसमें नये इस्लामी कानूनों की शुरुआत, संघीय शरिया अदालत की स्थापना, स्कूलों में इस्लामी शिक्षा को धार्मिक स्कूलों या मदरसों में अनिवार्य बनाना और बढ़ावा देना शामिल था।
उन्होंने सेना के ट्रेनिंग में इस्लामी शिक्षाओं को शामिल करके सेना का इस्लामीकरण करने के लिये कदम उठाये। उस दौरान धार्मिक दलों के राज्य संरक्षण के परिणामस्वरूप सत्ता के लिये विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा हुई है, जो तेजी से हिंसक हो गयी है। इस वज़ह से पाकिस्तान में सुन्नी, शिया और अहमदियों (Shias and Ahmadis) के बीच प्रतिद्वंद्विता काफी बढ़ी है, जिसके बीच अल्पसंख्यकों की बात करना बेमानी है। मुल्क की कानूनों और नीतियों लगभग पूरी तरह से सुन्नियों का नियंत्रण है।
इसी चलन के तहत इस्लामाबाद (Islamabad) पूर्वी पाकिस्तान को इस्लामीकरण की अपनी राज्य नीति पेश करना चाहता था। बंटवारे के शुरूआती सालों में बंगालियों ने पूर्वी पाकिस्तान में भाषीय आधारों पर संघर्ष शुरू कर दिया। दो हिस्सों के बीच आर्थिक असमानता, पूर्वी पाकिस्तान पर पश्चिम पाकिस्तानी शासक के अभिजात वर्ग का आधिपत्य, मार्शल लॉ, और बंगाली संस्कृति के प्रति अपमानजनक रवैये ने बंगाली आबादी ने दोनों हिस्सों के बीच तालुक्कातों में खटास ला दी।
साल 1952 की शुरुआत में ही संघर्ष साफ हो चला था, जब बंगालियों ने तत्कालीन सत्ता पर बंगाली को राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता देने के लिये मजबूर करना शुरू कर दिया था। 21-22 फरवरी 1952 को पाकिस्तानी सशस्त्र बलों की अंधाधुंध गोलीबारी ने कई छात्रों के साथ-साथ कई अन्य लोगों की हत्या कर दी। साल 1970 के चुनावों के बाद जनरल याह्या खान (General Yahya Khan) के सत्तारूढ़ जुंटा ने संसद बुलाने से इनकार कर दिया, जिसमें शेख मुजीबुर रहमान की अगुवाई वाली पूर्वी पाकिस्तान की अवामी लीग ने जुल्फिकार अली भुट्टो (Zulfikar Ali Bhutto) की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को निर्णायक रूप से हरा दिया, इससे आंतरिक संघर्ष का तेजी से विस्तार हुआ।
तनाव और बढ़ गया क्योंकि शेख मुजीबुर रहमान (Sheikh Mujibur Rahman) की अगुवाई वाली अवामी लीग पार्टी ने राष्ट्रीय चुनाव जीते लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) ने सत्ता सौंपने से साफ इनकार कर दिया। इस दरम्यां बंगालियों और बिहारियों के बीच तनाव काफी बढ़ गया। उर्दू बोलने वाला बड़ा तबका जो कि बंटवारा के बाद भारत के अलग-अलग हिस्सों से पूर्वी पाकिस्तान चला गया था, इन लोगों के पश्चिम पाकिस्तान समर्थक के तौर पर देखा गया था। इस वज़ह से कुछ बिहारी समुदायों पर हमले हुए।
मार्च 1971 में हिंसा रोकने के बहाने पाकिस्तानी सेना ने पूर्व में राष्ट्रवादी भावनाओं पर लगाम लगाने के लिये दखल दिया। इसने बंगाली गुटों के खिलाफ अपने ऑप्रेशन के लिये इस्लामिक संगठनों जमात-ए-इस्लामी (Jamaat-e-Islami) के सदस्यों समेत स्थानीय पाकिस्तान समर्थक बंगालियों और गैर-बंगालियों की भर्ती की। जैसे-जैसे गर्मियों में हिंसा बढ़ती गयी, बड़ी तादाद में शरणार्थी भारतीय इलाकों में आ गये, नई दिल्ली ने मौका भांपते हुए दिसंबर 1971 की शुरूआत में सैन्य रूप से हस्तक्षेप करने के बहाने के तौर पर इसका इस्तेमाल किया।
नौ महीने लंबा संघर्ष 16 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के साथ खत्म हुआ। मरने वालों की तादाद 300,000 होने का अनुमान है, इस संघर्ष में सैकड़ों हजारों महिलाओं का बलात्कार हुआ है। इस्लाम के सच्चे मूल्य और आवश्यक सिद्धांत पाकिस्तान के शासकों को अपने ही मुस्लिम भाइयों के प्रति अमानवीय नीतियां अपनाने से नहीं रोक सके।
हुक्मरानों के साथ-साथ धार्मिक राजनीतिक दलों और जमातों की ओर से अपनाया गया इस्लाम इस्लाम के आवश्यक सिद्धांतों के सीधे खिलाफ है। इस्लाम के मूलभूत तत्वों समेत शरिया लागू करने के लिये उठाये गये कदमों को सच्चे इस्लाम की कवायद के तौर पर पेश किया गया, ये हौवा एक बड़ा धोखा है जो पहले मुस्लिम, इस्लाम के पैगंबर की ओर से प्रचारित मानवतावादी मूल्यों को कमजोर करता है।
इससे ये बात साबित होती है कि पाकिस्तान ने अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिये इस्लाम को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। उन्होंने एक मार्गदर्शक सिद्धांत के तौर पर इस्लाम के सच्चे संदेश का पालन नहीं किया है, बल्कि राजनीतिक इस्लाम के दलदल में लिपटे चले गये, नतीज़न पाकिस्तान और उसके इस्लाम के खिलाफ अंदरूनी आवाज़े बुलंद होने लगी। इसे इस तथ्य से अच्छी तरह समझा जा सकता है कि आजादी के तुरंत बाद ही पाकिस्तान सांप्रदायिक संघर्षों में घिर गया। पाकिस्तान में सांप्रदायिक हिंसा की पहली घटना में अहमदिया समुदाय को निशाना बनाया गया, एक छोटा सा धार्मिक समूह जो खुद को मुस्लिम कहता है और अपने संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद (Mirza Ghulam Ahmed) के नाम पर इसका नाम पड़ा।
अहमदियों को रूढ़िवादी मुसलमान विधर्मी माने है क्योंकि वो ये नहीं मानते है कि मोहम्मद आखिरी पैगंबर थे। सुन्नी धार्मिक गुटों की ओर से साल 1950 के दशक में शुरू किये गये, अहमदिया-विरोधी अभियान ने सरकार को 1974 में एक संवैधानिक संशोधन के जरिये अहमदियों को गैर-मुस्लिमों के तौर पर नामजद करने की अगुवाई की।
हुसैन हक्कानी (Hussain Haqqani) का मानना है कि पाकिस्तान में ‘इस्लामिक स्टेट’ ने ये निर्धारित करने का अधिकार बनाया है कि कौन सच्चा मुसलमान था और कौन नहीं, साथ ही धार्मिक पहचान और धार्मिक शुद्धता पाकिस्तान के पॉलिटिकल नैरेटिव का बड़ा मुद्दा बन गयी है। पाकिस्तान की ओर से अपनाये गये इस दृष्टिकोण ने इस्लाम के सच्चे सिद्धांतों और उसके सार को कलंकित करते हुए नापाक किया, इसी बात ने पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान की मुक्ति का रास्ता साफ किया। पाकिस्तान को ये महसूस करना चाहिये कि ये पॉलिसी 1971 में उलटी पड़ गयी और ये देश को और ज्यादा विभाजित और नुकसान पहुंची सकती है।