पितृपक्ष (Pitru Paksha) में श्राद्ध, त्रिपिंडीदान और आत्मीयजनों को भोज कराना काफी अहम है। शास्त्रोक्त तरीके से किये गये श्राद्ध का लाभ वंश परम्परा और समृद्धि विस्तार पर सीधा पड़ता है। इसी क्रम में आज हम आपको सनातन परम्परा के तहत किये जाने वाले श्राद्ध की प्रक्रिया से अवगत कराने जा रहे है।
तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।
भोजन और पिण्ड दान: पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किये जाते हैं।
वस्त्रदान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है। दक्षिणा दान यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है। जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती तब तक उसका फल नहीं मिलता। श्राद्ध (Shradh) तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिये बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिये आये ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठायें।
पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाये गये पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें। तैयार भोजन में से गाय, कुत्ता, कौआ, देवता और चींटी के लिये थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ में जल, अक्षत यानि चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों (Brahmins) से संकल्प लें।
कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराये लेकिन देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराये। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाये।
ब्राह्मणों को भोजन के कराने के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आये क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराये।
पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिये। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिये। एक से ज़्यादा पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करें या सबसे छोटा।
भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि, पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद वापस अपने लोक लौट जाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि, पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं, इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें, जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिये पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
पितृ पक्ष के दौरान ब्राह्मण, जामाता, भांजा, गुरु या नाती को भोजन कराना चाहिये। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिये, अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं, जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं।
पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिये बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिये। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए।
सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज (Ancestor) गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिये। इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गयी हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा
इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिये सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।
पंचमी
जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिये।
नवमी
सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। ये तिथि माता के श्राद्ध के लिये भी उत्तम मानी गयी है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि, इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।
एकादशी और द्वादशी
एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किये जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।
चतुर्दशी
इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो उनका श्राद्ध किया जाता है, जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिये कहा गया है।
सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या
किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गये हैं, या पितरों की तिथि याद नहीं है तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिये, यही उचित भी है।
पिंडदान करने के लिए
सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का भोग करते हैं। विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिये। ये मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है।
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।। (वायु पुराण)
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः और सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गयी है। सिद्धांत शिरोमणि ग्रंथ (Siddhant Shiromani Granth) के अनुसार चंद्रमा की ऊधर्व कक्षा में पितृलोक है, जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है, उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। ये भौतिक शरीर 27 तत्वों के संधान से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।
सनातन मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वो सूक्ष्म जीव स्वजनों और घर के आसपास भ्रमण करता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है, इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। अगर किसी के कुंडली में पितृदोष (Pitradosh) है, और वो इस श्राद्ध पक्ष में अपनी कुंडली के अनुसार उचित निवारण करते हैं तो जीवन की बहुत सी समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं। योग्य ब्राह्मण द्वारा ही श्राद्ध कर्म पूर्ण करवाये जाने चाहिये।
ऐसा कुछ भी नहीं है कि, इस अनुष्ठान में ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाया जाता है, वहीं पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। वास्तव में श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध में दिये गये भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर उसी अनुपात और मात्रा में प्राणी को मिलता है, जिस योनि में वो प्राणी इस समय है।
पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिये हुये अन्न का स्वधा रूप में परिणत भाग को प्राप्त करता है। यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया हो तो श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि (Devyoni) में प्राप्त होगा। गंधर्व (Gandharva) बन गया हो तो वो अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है। पशु बन जाने पर घास के रूप में परिवर्तित होकर उसे तृप्त करता है। यदि नाग योनि में है तो श्राद्ध का अन्न वायु के रूप में तृप्ति देता है। दानव, प्रेत और यक्ष योनि मिलने पर श्राद्ध का अन्न नाना प्रकार के अन्न पान और भोग्य रसादि के रूप में परिणत होकर प्राणी को तृप्त करता है।