न्यूज डेस्क (निकुंजा राव): वायरस इन्फेक्शन (Virus infection) के कारण सुस्त अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए पीएम मोदी ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज की घोषणा की। जिसे लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने लगातार प्रेस ब्रीफिंग की। बीते दिनों वित्त मंत्री ने राहत पैकेज की चौथी किस्त की घोषणा की। जिसमें कोयला खनन को निजी हाथों में सौंपने, डिफेंस मैन्युफैक्चरिंग के लिए फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट में बढ़ोतरी (Increase in foreign direct investment), अंतरिक्ष अनुसंधान में निजी क्षेत्रों का निवेश इत्यादि आर्थिक कवायदें (Economic activities) केंद्र सरकार द्वारा सुनिश्चित की गयी। बिजली वितरण से जुड़ी कंपनियों को भी निजी हाथों में देने की बात वित्तमंत्री ने कही। वित्त मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक इस फैसले से निवेश और राजस्व में इज़ाफा होगा।
केंद्र सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर निजीकरण की इस कवायद का विरोध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) से जुड़े अनुषांगिक संगठन भारतीय मजदूर संघ (Subsidiary organization Bharatiya Mazdoor Sangh) ने किया। वित्त मंत्री की घोषणाओं पर बीएमएस ने आधिकारिक पक्ष रखते हुए कहा- वित्त मंत्रालय के पहले 3 दिनों के ऐलान से काफी उम्मीदें जागी थी। लेकिन चौथे दिन वित्त मंत्रालय ने जिन 8 सेक्टर्स को लेकर निजीकरण की बात कही। उससे सारी उम्मीदें मिट्टी में मिल गई। केंद्र सरकार एटॉमिक एनर्जी, अंतरिक्ष अनुसंधान, मिनरल्स माइनिंग, पावर डिस्ट्रीब्यूशन, डिफेंस प्रोडक्शन, उड्डयन प्रबंधन (Aviation management), एयरपोर्ट्स के रखरखाव को निजी हाथों में सौंपने जा रही है। सरकार दावा कर रही है कि उनके पास निजीकरण के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। बीएमएस के अनुसार निजीकरण की इस कवायद से बड़े स्तर पर नौकरियों के अवसर कम होंगे। साथ ही सरकार ने जिन सेक्टर्स का जिक्र किया, उनमें लाभ कमाने की होड़ में श्रमिकों का सीधे तौर पर शोषण होगा। केंद्र ने मामले से जुड़े हितधारकों से बातचीत किए बगैर देश पर ये फैसला थोप दिया। हितधारकों (Stakeholders) से बातचीत करके नीतियां बनाना लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत है, जिसे सरकार ने सीधे तौर पर नकारा। मौजूदा कवायद साफ तौर पर दिखाती है कि, सरकार में आत्मविश्वास की भारी कमी है। गौरतलब है कि निजीकरण का मुखर विरोध बीएमएस के मुख्य एजेंडे (Main agenda) में है। जिसे सरकार ने खाऱिज (Dismissed) करते हुए ये बड़ा कदम उठाया।
नरेंद्र मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने के साथ ही केंद्र सरकार ने भारतीय मजदूर संघ की ओर से आंखें मोड़ ली। कई अवसरों पर बीएमएस द्वारा दिए गए सुझावों और अनुशंसाओं (Suggestions and recommendations) को सरकार ने सीधे तौर पर नकारा (Negated)। न्यूनतम वेतन, अनुबंधित कर्मियों के स्थायीकरण और महंगाई दरों के आधार पर वेतन वृद्धि जैसे विषयों पर मोदी सरकार ने बीएमएस की सिफारिशों को सीधे तौर पर दरकिनार किया। वित्त मंत्रालय और श्रम एवं रोजगार मंत्रालय को भारतीय मजदूर संगठन समय-समय पर सुझाव देता रहा लेकिन दोनों ही मंत्रालयों ने बीएमएस की नसीहतों की हर बार नाफरमानी (Disinterested) की। कई मौकों पर बीएमएस और केंद्र के बीच तल्ख़ियां भी देखी गई। दक्षिणपंथी मजदूर संगठन (Right-wing labor organization) होने के कारण बीएमएस खुलकर मोदी सरकार की आलोचना करने से बचता रहा। यहीं कारण है कि साल 2014 से लेकर अब तक भारतीय मजदूर संघ मजदूरों की बड़ी मांगों को लेकर सड़क पर नहीं उतरा। बीएमएस का केंद्र सरकार के प्रति तुष्टीकरण (Appeasement) का रवैया उसकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाता है। बड़ा सवाल ये भी है कि, आत्मनिर्भर भारत की चौथी किस्त की पर सवाल उठाकर भारतीय मजदूर संगठन अपने अस्तित्व की औपचारिकताएं (Formalities of existence) पूरी कर रहा है?