42 साल के रोहित सरदाना (Rohit Sardana) नहीं रहे। उनका इलाज नोएडा के मेट्रो अस्पताल में चल रहा था। कोविड से जूझते हुए रोहित रिकवर भी कर रहे थे लेकिन फिर अचानक आज सुबह से उनके बारे में खबरें आने लगी। करीब बारह बजे उनकी मौत की खबर पुष्ट तब हुई जब मेरे न्यूज़रूम के साथियों ने सिसकते हुए फोन किया। उनकी जान हार्ट अटैक से गई। रोहित अपने पीछे दो छोटी बेटियां छोड़ गए हैं। सब जानते हैं कि कुरुक्षेत्र से निकलकर रोहित कैसे देश में टीवी का जाना पहचाना चेहरा बन गए थे, ये अलग बात है कि उनकी पत्रकारिता से जितने लोग सहमत थे, उतने ही असहमत भी। कोई पत्रकार, लेखक या विचार रखनेवाला व्यक्ति ऐसे समर्थन और विरोध से जूझता ही है। इससे कौन अछूता है? फिर भी निजी तौर पर जो उन्हें जानते थे वो बता सकते हैं कि रोहित कितने हाज़िर जवाब, मिलनसार, हंसमुख थे। मैंने उनके बारे में बारह बजे के आसपास पोस्ट और ट्वीट किया। इसके बाद बहुत लोगों के फोन और मैसेज आए। मैंने पोस्ट ही हटा दी ताकि मुझे सवालों का जवाब ना देना पड़े लेकिन इससे बात कहां बनती है।
मैं निजी तौर पर रोहित के ज़्यादातर विचारों से असहमत रहा हूं। मौका मिलने पर सोशल मीडिया पर भी उनकी आलोचनाएं करता रहा हूं। मैं ये भी मानता हूं कि पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण ये हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी (Collective responsibility) थी कि समय रहते कोरोना, अस्पताल, सेहत, सरकारी इंतज़ाम पर लेख लिखते, शो बनाते, बहस कराते, कठिन सवाल पूछते। दूसरी तरफ हम समाज के तौर पर भी दो स्तरों पर फेल हुए। पहला वही कि हमने खुद लापरवाही बरती, कोरोना के खतरे को नज़रअंदाज़ किया, उन लोगों को अपना प्रतिनिधि चुना जो ना पहले और ना अब हमारी परवाह कर रहे हैं। खुद हमने कभी नहीं माना कि हमारे लिए अस्पताल ज़रूरी होंगे। दूसरे स्तर पर हम समाज के रूप में फेल हैं क्योंकि हमारे बीच से कई लोग अब भी ये हिम्मत रखते हैं कि किसी की मौत पर हंस सकें। मैं कितने ही कमेंट और ट्वीट देख रहा हूं जिनमें एक अजीब सी फुर्ती आ गई है। वो जश्न जैसे मूड में है। ये देखना बार बार दुखद है कि हम रोज़ पतन के नए रिकॉर्ड बना रहे हैं। इस पाले के हों या उस पाले के कोई भी ऐसे मामले में निराश नहीं करता। उन्हें पढ़कर ऐसा लग रहा है मानो ये मौत से अप्रभावित बहुत दूर किसी ग्रह पर बैठे हैं और ना इनकी मां कभी मरेगी, ना बाप, ना भाई, ना बहन और ना ये खुद।
एक संवेदनशील और लोकतांत्रिक समाज (Sensitive and democratic society) रंग बिरंगा होता है। सहमति-असहमति के बावजूद वहां हत्याओं की कामना नहीं होती। कोरोना हम में फर्क नहीं कर रहा है। किसी पर भी चढ़ बैठता है। ये पोस्ट लिखनेवाला और इसे पढ़नेवाले खुद कब इसके शिकार हो जाएं कौन जानता है। आपके जाने के बाद कुछ याद रहेगा तो आपकी गरिमा जिसके साथ आप अपना जीवन जीते हैं। उसे मत खोने दीजिए, चाहे जान क्यों ना खो जाए। एक दूसरे पर आरोप मढ़कर यहां लाइक बटोर लेंगे, अपनी कुंठा सहला लेंगे, नफरत को आराम दे देंगे पर खुद से पूछिएगा कि इससे किसका कल्याण होगा? मैंने हिंदू धर्म से लेकर इस्लाम तक ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं जब खुद से असहमत दुश्मनों को जीते हुए भी और मौत पर भी आदर दिया गया। क्या आप सभ्यता के दायरे से इतने बाहर हैं? आपका कोई तर्क या कोई वजह न्यायसंगत नहीं हो सकती चाहे जो हो जाए। ऐसे मौकों पर आपका पशु बाहर आकर दांत दिखा देता है और साबित करता है कि आप भी सिर्फ अपना दर्द जानते हैं दूसरों का नहीं। अपने दर्द पर तो सभी रोते हैं फिर आप ही कौन सा अलग हैं। मैं समाज का अंग होने के नाते स्वीकारता हूं कि नेता चुनने से लेकर मुद्दे चुनने तक फिर चाहे उन पर बहस की हो या वोट दिया हो हमने समय रहते प्राथमिकताएं ठीक नहीं रखीं। अगला मौका मिला तो मैं चूक नहीं करूंगा। यही कुछ आप सोचिए तो शायद इस जंग के बाद हम बेहतर दुनिया बना सकें। आरोप लगानेवाले, दूसरों की मौत पर हंसनेवाले, अपने संकट के लिए ज़िम्मेदार खोजनेवाले सिर्फ समाज पर बोझ हैं और उसके संसाधन को चट करनेवाली दीमक हैं। किसी शब्द से दिल दुखा हो तो क्षमाप्रा्र्थी हूं। बाकी कमेंट करते हुए अपने सम्मान और मेरी सहनशीलता का ख्याल रखिेएगा।