मान लीजिये दो शख़्स है। जिनमें से एक को कैदखाने में लंबे समय तक हाथ-पांव बांधकर रखा गया। उसकी ज़िन्दगी का लंबा वक़्त स्याह अंधेरों के बीच बीता। हालातों ने इतना तोड़ा, उसे लगने लगा कि किस्मत को यहीं मंजूर रहा होगा। दूसरी तरफ ऐसा शख्स है, जिसने हमेशा से ही भरपेट खाना खाया। हसरतों के उजालों के बीच वो रोज कामयाबियों की दौड़ लगाता रहा। एकाएक दोनों के बीच 400 मीटर की दौड़ लगाने का मुकाबला रखा दिया जाये तो, क्या ये तर्क सम्मत होगा ? या फिर कैदखाने में रहने वाले को दौड़ में पहले से ही 200 मीटर आगे खड़ा कर दिया जाये तो ? फिर मुकाबला शुरू हो, इसे थोड़ा बहुत तर्क सम्मत माना जा सकता है। कैदखाने में रहने वाले को मिली 200 मीटर की रियायत आज भी कई लोगों को चुभती है। 200 मीटर की यही रियायत आरक्षण कहलाती है। जिसे बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने सुनिश्चित किया। जातीय व्यवस्था के अभिशप्त कैदखाने में रहे लोग अब कई-कई बड़े संस्थानों की ओर रूख़ करने लगे है। Caste pyramid में सबसे ऊपर रही ज़मातों को ये गवारा नहीं। आजतक कैदखानों में रहने वाले शख़्स की नस्लों को, उनकी औकात बताने का कोई मौका नहीं चूकते ये लोग।
आज हम भले ही सहस्त्रताब्दी में जी रहे हो। आर्टिशियल इंटेलीजेंस, नैनो-टैक्नोलॉजी, स्टेम सेल्स जैविकीय प्रौद्योगिकी और लॉर्ज हैड्रॉन कॉलाइडर के इस ज़माने में जातिवाद की जहरीली जड़े बहुत गहराई तक धंसी हुई है। प्रकोप इतना व्यापक है कि, बड़े मीडिया संस्थानों, दूतावासों और इंजीनियरिंग कॉलेजों तक में जातिवाद फैला हुआ है। कुछ उदाहरण देना चाहूँगा, जिसके भुक्तभोगी मेरे करीबी लोग रहे है। एक सहकर्मी है, सहकर्मी से ज़्यादा वो मेरे वैचारिक सहोदर है। उन्होनें बताया कि उनकी भांजी ने ब्रिटेन के बगल में स्थित एक देश में जाने के लिए दूतावास में वीज़ा के लिए आवेदन दिया।
दूतावास के वीज़ा क्लीयरेंस अधिकारी ने सिर्फ इसलिए उसका वीज़ा रोके रखा, कि कोई एक खास़ जाति का व्यक्ति वहाँ कैसे जा सकता है ? जातीय अस्मिताओं के संघर्ष की वेदी पर खुद मेरे उस वैचारिक सहोदर की योग्यता की बलि चढ़ी। एक बड़े मीडिया हाउस में नौकरी पाने के लिए उसका बायोडेटा सिर्फ इसलिए आगे नहीं भेजा गया। क्योंकि बायोडेटा को आगे भेजने वाला उनकी क्षमताओं से ज़्यादा उनकी जातीय पहचान को तरजीह दे रहा था। जब बात जातीय पहचान की आती है तो योग्यता, कौशल और क्षमताओं को दरकिनार कर दिया जाता है। आजकल इन्टरव्यूवर आपसे ज़्यादा आपका सरनेम जाने के लिए लालयित रहते है। अगर आपके नाम के पीछे कुमार लगा हुआ है तो, पूछा जाता है आपके पिता-दादा क्या करते थे। जिससे आपकी जातिगत पहचान का पता लगाया जा सके।
दूसरा किस्सा एक ब्रिटिश मीडिया संस्थान का है। जिसकी पहुँच तकरीबन सारे महाद्वीपों पर है। अगर आप इस संस्थान में नौकरी के लिए आवेदन करेगें तो, ये लोग दावा करते मिलेगें कि इनके सभी कार्यालयों में Diversity Policy का पालन किया जाता है। संस्थान में नौकरी के लिए ऑन-लाइन आवेदन करते वक़्त ये लोग कैडींडेट से उसका Sexual Orientation और Ethnic Identity तक पूछते है। इतने Modern Organisation में बिहार से एक लड़का नौकरी करने पहुँचता है। शुरू-शुरू सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है। एक दिन उस लड़के से एक छोटी-सी खता हो जाती है।
ऑफिस के कई सीनियरस् के सामने वो गलती से 13-प्वॉइंट रोस्टर सिस्टम की मुखालफ़त में तकरीर देता है। जिसके बाद पूर्वाग्रहों से भरी हुई सुनियोजित प्रक्रिया के तहत उसे निशाने पर ले लिया जाता है। उसे धिक्कारते हुए कहा गया कि- “ऊ…तिवरिया ई तेलिया को नौकरी कईसे दे दिया हो” छोटी-छोटी गलतियों को बड़ा बताकर उसे प्रताड़ित करने का लंबा दौर चलता है। ठीक उसी संस्थान में खास सरनेम का संरक्षण प्राप्त नकारा लोगों को इंक्रीमेंट और प्रमोशन जैसे तोहफे दिये जाते है। मानसिक प्रताड़ना और उत्पीड़न का कहर उस पर टूट पड़ता है। आखिरी में चाल चलकर संस्थान ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया। शायद उस संस्थान के सरमायेदारों को ये नहीं पसन्द था कि, कोई उनकी कायम हुकूमत को चुनौती दे। कोई उन्हीं की मांद में आकर उन्हें ललकारें। वो सिर्फ अपनी परम्परागत पहचान से बाहर निकलना चाहता था। हसरतों के पंख खोलना चाहता था। लेकिन उससे पहले ही उसके पंखों को कतर दिया गया।
हमें बंदरिया से सीखना होगा। बंदरिया अपने बच्चे से बहुत स्नेह करती है। अगर उसका बच्चा किसी कारणवश मर जाता है तो, उसकी लाश को अपने सीने से तब तक चिपकाये घूमती है। जब तक कि उसमें से सड़न, बदबू और पीप ना आने लगे। जातीय अस्मिताओं के संघर्ष की सड़न और बदबू हिन्दुस्तान की फिज़ाओं में कब से घुल रही है। लेकिन एक खास़ वर्ग का मोह इससे भंग नहीं हो पा रहा है।
कहानी फिर से यू-टर्न मारकर वहीं वापस आती है, उन्हीं दो लोगों की। अब कैदखाने वाले शख्स की नस्लों को संस्थानिक कैदखानों की मार झेलनी पड़ रही है। भले ही कैदखाने में रहा वर्ग कितना भी आर्थिक रूप से सक्षम हो जाये। उन्हें अतीत के अंधेरों का सामना आने वाले कई सालों तक करना पड़ेगा। एक खास़ ज़मात उनके माथे पर लगे जातीयता के ठप्पे को तलाशती रहेगी। अब Equality का वक्त काफी पीछे जा चुका है। अब मौका है Equity तलाशने का। मौजूदा हालातों को देखते हुए लगता है कि, आने वाले 200 सालों तक हिन्दुस्तान की नियति में जातिवाद की जहरीली जड़ें अपनी पकड़ बनाये रखेगी।
-राम अजोर
एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह-संपादक ट्रैंडी न्यूज़