शिक्षा का निजीकरण (Privatization Of Education) भारतीय शिक्षा परंपरा के विरुद्ध है। गुरूकुलों को राजाओं से दान मिलता था। भूमि मिलती थी। आश्रय मिलता था। गुरूकुलों से टैक्स नहीं वसूला जाता था। ना देशभर से पढ़ने पहुंचे छात्रों को कहा जाता था कि वो महंगी फीस भरें। शिक्षा पूरी होने के बाद गुरू पर था कि वो विद्यार्थी से गुरूदक्षिणा में क्या ले। हमने जितना कुछ पढ़ा उसमें कभी पैसा नहीं मांगा गया। बहुत बार तो राजाओं के वो बेटे जो गुरूकुल में पढ़ने आते थे अपने गुरू के आदेश पर भिक्षा मांगने तक जाया करते थे। समाज उनका सम्मान करते हुए जो बन पड़े देता था क्योंकि ये आम समझ थी कि शिक्षा ग्रहण करना या देना पुनीत कार्य है। गुरूकुल चिंतक, वैज्ञानिक, लेखक बना रहा है और समाज को उनकी आवश्यकता है सो सहयोग किया जाए यही बात राजदरबार भी समझते थे।
विद्यार्जन करने की इच्छा रखनेवालों से पैसा वसूलकर राजकोष (Royal Exchequer) भरने का आइडिया भारतीय शिक्षा परंपरा के विपरीत है। ये ठेठ पूंजीवादी रवैया भी है जिसका समर्थन रामराज्य की परिकल्पना में खोजना मुमकिन नहीं। इसी तरह प्रत्येक विचार को सुना जाना और उसे माननेवाले को सम्मान देना भी इस देश की संस्कृति है। यहां चार्वाक सुने गए। परंपराओं को चुनौती देते बुद्ध और महावीर (Buddha and Mahavira) भी पूजनीय हुए। शास्त्रार्थ का स्थान विश्वविद्यालय परिसर की चर्चाओं ने ले लिया लेकिन अब भय है कि वो स्थान भी ना छिन जाए। हमारे समाज में सब कुछ बुरा नहीं था। बहुत कुछ अच्छा भी था। उस अच्छे को बचाया जाए और उसमें से एक था सबके लिए शिक्षा, मुफ्त ना सही मगर कम से कम खर्च में शिक्षा ताकि कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ पाएं। आगे तो जो हो सो हो।