गहवर वन बरसाना में स्वामी परिमल दास जी महाराज रहा करते थे, वो किशोरी श्री राधा रानी (Radharani) के अनन्य भक्त थे और प्राय: लाडली कहकर ही किशोरी जी की आराधना किया करते थे। एक दिन स्वामी जी ने सोचा कि मेरी उम्र बीत गयी किशोरी जी का ध्यान करते करते लेकिन आज तक मैं अपनी लाडली जी के लिए क्या कर पाया ?
उन्होंने सोचा कि अपनी लाडली जी के लिए एक सुन्दर पोशाक तैयार करेंगे और बरसाना महल में जाकर अपनी लाडली को भेंट करेंगे। बस उसी दिन से वो अपनी लाडली जी के लिए पोशाक बनाने में जुट गये। दिन रात बस किशोरी जी का ध्यान करते और उनके लिए पोशाक तैयार करते और कुछ महीनो में उन्होंने लाडली जी के लिये बहुत ही सुन्दर पोशाक तैयार कर ली और उन्हें भेंट करने के लिए चल दिए बरसाना लाडली जी के धाम की ओर।
वो उस दिन बहुत ही खुश थे और लाडली जी को याद करते हुए श्रीधाम बरसाना (Shridham Barsana) की ओर बढ़ रहे थे और बड़े प्रेम से श्री जी के धाम की एक-एक सीढ़ी चढ़ते जा रहे थे। सीढ़ी चढ़ते हुए स्वामी जी को थकान हुई तो वो बीच में ही विश्राम करने लगे। तभी एक 7-8 वर्ष की बालिका उनके पास आई और बोली, “बाबा ये पोशाक किसके लिए ले जा रहे हो? ये तो बहुत ही सुन्दर है”
स्वामी जी बोले, "ये पोशाक मैंने दिन रात मेहनत करके किशोरी जी के लिए बनायीं है अब उन्हें भेंट करने जा रहा हूं। तब बालिका बोली बाबा! किशोरी जी के पास तो बहुत सी ऐसी सुन्दर पोशाक है, उन्हें इसकी क्या जरुरत भला? एक काम कर इसे मुझे दे दे मैं पहन लूंगी।
स्वामी जी थोड़ा मुस्कुराए और बोले कि लाली! ये तो मैंने किशोरी जी के लिये ही बनायीं है। तेरे लिए मैं दूसरी दिलवा दूंगा लेकिन ये तो लाड़ली जी के लिये ही है। तब वो बालिका जिद्द करने लगी और स्वामी जी भी अपनी बात पर अडिग रहे।
तभी वो बालिका स्वामी जी के हाथ से वो पोशाक लेकर भाग जाती है और ना जाने कहा गायब हो जाती है। संत को बड़ा दुःख हुआ और वो वही पर विलाप करने लगे। "हाय ये ब्रज के चंचल बच्चे कितना सताते है, किशोरी जी की पोशाक ही लेकर भाग गयी"
तभी संत के एक साथी आते है और उन्हें वो अपने ऊपर हुई आप बीती सुनाते है। तब साथी संत ने कहा कि चलो कोई नहीं किशोरी जी के लिये फिर से पोशाक बना देना और फिर से भेंट कर देना ! अभी उठो और चलो आओ बरसाना धाम की ओर किशोरी जी का आज का दर्शन करने चले।
तब दोनों ही संत वहां से किशोरी जी (Kishori ji) के महलों की ओर चल दिये और किशोरी जी के महल में दर्शन करने के लिए खड़े हो गये। जब दर्शन खुलने का वक़्त हुआ और पुजारी जी ने पर्दा हटाया तो स्वामी जी के पैरों तले से जैसे जमीन ही खिसक पड़ी। वो हक्के बक्के रह गये। वह जो पोशाक वो बालिका लेकर भागी थी। वही पोशाक किशोरी जी ने उस दिन धारण की हुई थी। और मानो उस पोशाक को धारण कर संत को देख कर किशोरी जी मुस्कुरा रही हो।
संत तो वहीं पर जमीन पर गिर पड़े और रो-रो कर किशोरी जी की कृपा का गुणगान करते हुए कहने लगे कि- हे, लाडली मैं तो आपको ही भेंट करने के लिए ये पोशाक ला रहा था, आपसे थोड़ा सा भी सब्र नहीं हुआ जो मुझसे पोशाक छीन ले गयी। हे लाडली तेरी कृपा का गुणगान कैसे कंरू तू ही बता ? इतना कहकर संत वहां से चल पड़े और कुछ ही दिनों में सांसारिक शरीर को त्याग कर किशोरी जी में ही लीन हो गये।