नई दिल्ली (यथार्थ गोस्वामी): कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को रमा एकादशी (Rama Ekadashi) के नाम से जाना जाता है। इस दिन सम्पूर्ण मनोयोग से व्रत और पूजन करने से माँ लक्ष्मी की अटूट कृपा बरसती है। रमा माँ लक्ष्मी का नाम है। इसलिए इसे रमा एकादश भी कहा जाता है। इस व्रत का विशेष महात्मय इसलिए है, क्योंकि एकादशी पर बहुत कम ही ऐसे अवसर आते है जब माँ लक्ष्मी और भगवान विष्णु के संयुक्त पूजन का विधान (Joint worship of Goddess Lakshmi and Lord Vishnu) होता है। इस साल ये अवसर इसलिए भी विशेषज्ञ है क्योंकि रमा एकादशी दीवाली से ठीक चार दिन पहले पड़ रही है। रमा एकादशी पर माँ लक्ष्मी का पूजन करने से कुल-परिवार में सुख शांति और समृद्धि आती है। देशभर में कई स्थानों पर इस एकादशी के साथ ही लक्ष्मी पूजन के विधान का आरम्भ माना जाता है। पद्म पुराण के अनुसार इस दिन का व्रत सफलतापूर्वक पूरा करने वाले व्रती पर माँ लक्ष्मी और भगवान विष्णु की संयुक्त कृपा बरसती है।
रमा एकादशी पूजन का शुभ मुहूर्त-
एकादशी तिथि का प्रारंभ- 11 नवंबर 2020 प्रात: 03 बजकर 22 मिनट से
एकादशी तिथि की समाप्ति- 12 नवंबर 2020 मध्य रात्रि 12 बजकर 40 मिनट तक
एकादशी व्रत पारण का समय- 12 नवंबर 2020 प्रातः 06 बजकर 42 मिनट से 08 बजकर 51 मिनट तक
द्वादशी तिथि की समाप्ति- 12 नवंबर 2020 रात्रि 09 बजकर 30 मिनट तक
रमा एकादशी की पूजन विधि
एकादशी वाले दिन ब्रह्म मुहूर्त में शयन त्याग कर नित्य-क्रिया और स्नानादि से निवृत होकर व्रत संकल्प लें। भगवान विष्णु की आराधना करें। विष्णु सहस्त्रनाम (Vishnu Sahasranama) का पाठ भी कर सकते है। चौकी पर पीतांबर बिछाकर भगवान विष्णु की छवि या प्रतिमा स्थापित कर उन्हें दीप-धूप, गंध, पुष्प अर्पित करें। इसके साथ ही उन्हें भोग लगाये, भोग में माँ तुलसी के पत्र अर्पित करें। अर्पण करने के लिए तुलसी के पत्ते ना तोड़े। पहले से ही टूटी पत्तियों का इस्तेमाल भोग लगाने के लिए करें। इसके बाद एकादशी के अन्न का भोजन करें।
रमा एकादशी की व्रत कथा
मुचुकंद नाम के एक प्रजाप्रिय राजा थे। चंद्रभागा नामक उनकी एक पुत्री थी। राजा ने चंद्रभागा का विवाह राजा चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ कर दिया। शोभन क्षुधा का ताप (भूख) सहन नहीं कर सकता था। रमा एकादशी के अवसर पर शोभन का अपने ससुराल आना हुआ। उस समय उसकी पत्नी चंद्रभागा ने रमा एकादशी के व्रत का नियम पूर्वक पालन किया हुआ था। भावावेश में चंद्रभागा ने शोभन से भी व्रत का पालन करने को कहा। शोभन इस बात को लेकर बहेद चितिंत था कि वो भूख कैसे सहन कर पायेगा। ऐसे वो व्रत के पालन को लेकर असमंजस में पड़ गया। उसने अपने मन की व्यशा चंद्रभागा को कह सुनाई। चंद्रभागा ने कहा कि यदि ऐसा है तो आप इस राज्य से बाहर निकल जाइये। इस दिन तो स्थावर-जंगम तक इस व्रत का पालन करते है।
शोभन ने किसी तरह व्रत का पालन किया। व्रत पारण करते समय उसकी मृत्यु हो गयी। चंद्रभागा सती ना होकर अपने मायके में ही रहने लगी। रमा एकादशी के अमोघ प्रभाव से शोभन को अगले जन्म में मंदरांचल पर्वत पर साम्राज्य की प्राप्ति हुई। शोभन के पूर्व जन्म के ससुर ब्राह्मण के साथ तीर्थ यात्रा करते हुए, मंदरांचल में शोभन के दिव्य नगर पहुंचे। शोभन को सिंहासन पर विराजमान देख उन्होनें उन्हें पहचान लिया। जिज्ञासावश उन्होनें ब्राह्मणों से उसके जन्म और ऐश्वर्य का कारण पूछा तो ब्राह्मणों ने इसे रमा एकादशी व्रत का प्रताप बताया। तीर्थ यात्रा से लौटे ब्राह्मणों ने चंद्रभागा को सारा प्रकरण कह सुनाया। जिसे सुनकर चंद्रभागा अत्यंत प्रसन्न हुई। किसी तरह वह अपने पति के पास मंदरांचल पर्वत पर पहुँची और अपने सभी एकदाशियों के संचित पुण्य शोभन को दे दिये। जिससे उसका ऐश्वर्य-वैभव और साम्राज्य कई सैकड़ो वर्षों तक स्थिर हो गया। इसके बाद से ही इस व्रत का पालन किया जाने लगा। इस व्रत का प्रभाव से ब्रह्महत्या जैसे पापों से भी मुक्ति मिल जाती है।