RD Burman: हिन्दी सिनेमा में ‘पंचम दा’ के नाम से मशहूर राहुल देव बर्मन (Rahul Dev Burman) उर्फ ‘आर डी बर्मन’ अपने पिता के दौर में ही शोहरत की बुलन्दियों में पहुंच गये थे। पंचम दा के गीतों में शास्त्रीय संगीत के साथ ही वेस्टर्न टच म्यूज़िक का अनोखा इस्तेमाल देखने को मिलता है। वो सांस्कृतिक, भारतीय संगीत के साथ – आधुनिक संगीत का शानदार मिश्रण करते थे। ‘पंचम दा’ के गीतों में जितनी मनहूस शाम मिलेगी, उतनी ही उमंगमयी सुबह मिलेगी। बेकरार करती हुई बोझल रातों की आहटें उनके गीत में तैरती मिल जाती है। एक ऐसा हरफ़नमौला संगीतकार विरले थे, जिन्होंने हिन्दी सिनेमा में अपना एक नया ट्रेंड सेट किया। मिसाल के लिये शंकर-जय किशनजी ने बरसात फ़िल्म में संगीत की दुनिया में अपना खुद का एक सिग्नेचर लेकर आये। बर्मन दादा अपनी सिग्नेचर स्टाइल के लिये खासा मशहूर थे, ओ पी नैयर भी अपने सिग्नेचर स्टाइल के लिये मशहूर थे, इन सभी से हटकर ‘पंचम दा’ ने भारतीय संगीत के साथ वेस्टर्न संगीत का ऐसा संतुलन साधा, संगीत के नजरिये से उनकी फ़िल्मों के संगीत को सुनकर अंदाजा लगाया जा सकता है, जो कि हर एक फिल्म मे अनोखा अध्याय रचती हैं। ‘चिंगारी कोई भड़के’ या ‘ओ मांझी रे अपना किनारा’ गीत सुनते हुए कोई भी दुःख को महसूस करते हुए डूब सकता है। ‘महबूबा महबूबा’ गूंजती-भारी आवाज़ में बह सकते हैं। ‘हमें तुमसे प्यार कितना’ जैसे उनके दर्द के नग्मे सुनते हुए रूमानियत की दुनिया की सैर पर ले जाते हैं।
सत्तर के दशक तक हिन्दी सिनेमा पूरी तरह बदल गया था, जो दम मारो दम की धुनों में झूमने लगा था, उस वक़्त संगीत के जानकार बगावती ‘पंचम दा’ की खूब आलोचना करते कि बर्मन दादा जैसे शास्त्रीय संगीत को तरजीह देने वाले संगीतकार के बेटे ‘पंचम’ लगता है कि आधुनिकता की चकाचौंध संगीत नयी ऊंचाई देगी। ‘पंचम दा’ क्लासिकल संगीत रचते थे, लोगों के मुँह बंद हो जाते थे। पंचम दा के संगीत का कैनवास इतना बड़ा था कि किसी भी संगीत जानकारों के पास इसका मापक ही नहीं था।
पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं ‘पंचम दा’ बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने बचपन से ही अनूठी प्रतिभायें सीख चुके थे। बचपन से ही वो तबला बजाने में पारंगत थे, तब उनकी दादी उनको प्यार से तबलू कहकर बुलाती थीं। बाद में उनको पंचम नाम दादा मुनि अशोक कुमार ने दिया था। दरअसल संगीत के सुर ‘सा, रे, ग, म, प’ में ‘प’ का स्थान पांचवा है, और आर.डी बर्मन जब छोटे से बच्चे थे, रोते थे तो उनकी आवाज ‘प’ वर्ण संगीत रचती थी। इस बात को भांपते हुए अशोक कुमार (Ashok Kumar) ने उन्हें पंचम कहना शुरू कर दिया। उनका ये नाम इतना मशहूर हुआ कि फिर ‘पंचम दा’ के ही नाम से आरडी बर्मन विख्यात हुए। महज़ 9 साल की उम्र में ‘पंचम दा’ ने पहला गाना कंपोज किया था। बर्मन दादा ने अपने बेटे से पूछा “पंचम तुम ज़िन्दगी में क्या बनना चाहते हो? क्या करोगे बड़े होकर”? ‘पंचम दा’ ने कहा बाबा संगीतकार बनना हैं!! सुनकर बर्मन दादा ने कहा कि क्या तुमने कोई धुन बनायी है? ये कोई सीरियस बात नहीं थी, क्या नौ साल का बच्चा कोई धुन थोड़ा ही बना सकता है। पंचम ने अपने पिता से कहा मैंने दो साल पहले ही बनाया था। बर्मन दादा ने सुना तो सुनकर हक्के बक्के रह गये। ये गाना था ‘ऐ मेरी टोपी पलट के आ’ इस गाने को उनके पिता एसडी बर्मन दादा ने फिल्म ‘फनटूश’ में इस्तेमाल किया था। ये फिल्म साल 1956 में रिलीज हुई थी।
‘सर जो तेरा चकराये’ भी आरडी बर्मन ने स्कूल के दिनों में ही बनाया था। एसडी बर्मन ने वो गाना फिल्म ‘प्यासा’ साल 1957 में फिल्माया था, पर उसका क्रेडिट आरडी बर्मन को नहीं दिया। बाद में ‘पंचम दा’ ने बर्मन दादा से अपनी नाराज़गी जाहिर की थी कि बाबा आपने मुझे क्रेडिट क्यों नहीं दिया।
सबसे पहले गुरुदत्त के असिस्टेंट फिल्मकार निरंजन ने साल 1959 में फिल्म ‘राज’ के लिये उन्हें साइन किया था। उन्होंने दो गाने रिकॉर्ड भी किये। फिल्म का पहला गाना आशा भोंसले और गीता दत्त और दूसरा गाना शमशाद बेगम (Shamshad Begum) ने गाया था। अफ़सोस बाद में ये फिल्म बंद हो गयी। इसके बाद उनको पहला बड़ा मौका साल 1966 में विजय आनंद निर्देशित फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ से मिला। फिल्म के हीरो शम्मी कपूर और निर्माता नासिर हुसैन (Shammi Kapoor and Producer Nasir Hussain) नहीं चाहते थे कि आरडी इस फिल्म में संगीत दें। निर्देशक के जोर देने पर उन्होंने हां कर दी। फिल्म का संगीत सुपरहिट रहा और आर.डी. बर्मन ने बॉलीवुड में अपनी मुकम्मल जगह बना ली।
‘पंचम दा’ पहले ऐसे कंपोज़र थे, जिन्होंने रेट्रो बीट को म्यूजिक में लाकर कभी न पुराना होने वाला हमेशा प्रासंगिक रहने वाला संगीत दिया। रेल की पटरी पर संगीत, कप, प्लेटों, बर्तनों की ध्वनियों की मदद से वो संगीत की धुनें तैयार करते थे, तेज ध्वनियों में पश्चिम के संगीत के साथ क्लासिकल भारतीय संगीत का ऐसा मिश्रण किया, जिसका कैनवास इतना बड़ा है, कि बड़े से बड़े संगीतकार हैरान हो जाये। रेल की सीटी बजाने के साथ नायिका के नृत्य के साथ अपनी धुन का बेजोड़ मिश्रण करते थे, फिर गिटार पर अजीब-सी बेहोशी और तनाव पैदा करने वाला इफेक्ट बजना शुरू होता है। उस दौर में ये सब बहुत नये प्रयोग थे, पंचम विद्रोही कहे जाने के बाद भी अपनी तरह का संगीत रचते जा रहे थे। उनके तेज संगीत की आवाज़ भी कई परतों को भेदती हुई गिटार और तबले की अनोखी शैली के साथ तबले के साथ गिटार की जुगलबन्दी आधुनिक संगीत शास्त्रीय संगीत के समानांतर प्रतिस्पर्धा करने को बेचैन पंचम दा युवाओं के पसंदीदा संगीतकार बनते जा रहे थे।
आज से लगभग पचास साल पहले ऐसी आधुनिक कम्पोज़िशन का इस्तेमाल हर किसी के बस की बात नहीं थी, ओपी नैयर के जमाने में शास्त्रीय संगीत को परवान चढ़ाने वाली आशा भोंसले (Asha Bhosle), बदलते हुए युग में पंचम दा’ के युग में झूमने वाले गीतों को खूब गाते हुए खुद भी अपनी दूसरी पारी में भी परवान चढ रहीं थीं। पूरी तरह से क्लासिकल सिनेमा में शास्त्रीय संगीत को आगे बढ़ाते हुए देव-राज- दिलीप का जमाना बदल चुका था, सत्तर के दशक तक सुपरस्टारों की बाढ़ आ गयी थी, शम्मी कपूर और राजेश खन्ना भी देव-राज-दिलीप की विरासत को आगे ले जाने के लिये बढ़ रहे थे, रफ़ी साहब, मन्ना दा, हेमंत दा, मुकेश जी के बाद किशोर दा पार्श्व गायन में अपना युग शुरू करने वाले थे, इन सभी की सिनेमाई सफलता के कर्णधार ‘पंचम दा’ को ही माना जाता है।
नियति बहुत पहले ही कुछ बातों को लिख देती है, ऐसे लगता है कि नियति बर्मन दादा और उनके बेटे ‘पंचम दा’ दोनों को राजघराने से बहुत दूर ले जा रही थी। ये कल्पना की जाये कि अगर सब कुछ उसी तरह से चल रहा होता तो बर्मन दादा के पिता नवद्वीपचन्द्र बर्मन अपनी रियासत के राजा बन गये होते तो मुमकिन तौर पर हम एसडी बर्मन और आरडी बर्मन के संगीत से वंचित रह गये होते। भारतीय फिल्म संगीत में पिता-पुत्र की इस कमाल जोड़ी ने मिल कर संगीत की दुनिया में एक पूरा का पूरा बर्मन संगीत युग रच दिया था। अगर पिता-पुत्र दोनों दोनों महान संगीतकारों की तारीफ़ में कुछ लिखा जाये तो बड़े-बड़े महाकाव्य लिखने पड़ेगें। बर्मन दादा दा ने बचपन से ही शास्त्रीय संगीत से लेकर बंगाल की समृद्ध लोक-संगीत परम्परा को को तो पहचान दिलायी ही, वहीं साहेब अली फकीरों से सूफी गीतों और नजरुल इस्लाम जैसे महाकवियों से कविता की तालीम हासिल करते हुए साहित्यिक बारीकियों को सीखते हुए पारंगत हुए जो कि उनके संगीत में खूब दिखता है।
बर्मन दादा ने शुरुआत में रेडियो में गाना गाते हुए, संगीत का ट्यूशन देना शुरू किया। साल 1937 में उन्होंने अपनी एक छात्रा से विवाह कर तो लिया पर राजपरिवार ने अपनी नवेली बहू को स्वीकारने से मना कर दिया। इस बात से दुखी होकर आधुनिक सोच वाले बर्मन दादा त्रिपुरा के अपने राजसी ठाठ छोड़कर अपनी पहचान बनाने निकल गये। संगीत की दुनिया में बर्मन दादा ने पंचम दा नाम का संगीतकार नायाब तोहफ़ा के तौर पर दिया।
आज भी पंचम दा के गाने सुनते गुनगुनाते हुए युवा झूमने लगते हैं। आरडी बर्मन अपने आप में संगीत के ‘इंस्टिट्यूट’ हैं.. साल 1971 में फिल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ के लिये जब आरडी बर्मन ने गाना बनाया तो उसे सुन पंचम दा के पिता नाराज हो गये थे। पंचम दा उस वक्त जीनत अमान पर फिल्माया गया गाना ‘दम मारो दम’ बना रहे थे। फिल्म का ये गाना सुपरहिट हुआ था.
जब कोई व्यक्ति लीक से हटकर कुछ करता है तो उसको आलोचनायें भी झेलनी पड़ती है। अपने बेटे ‘पंचम दा’ को बचपन से ही शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने वाले बर्मन दादा ने ‘दम मारो दम’ गीत में ज़ीनत अमान के लिये वेस्टर्न टच संगीत जब रचा तो सब देखते ही रह गये। बर्मन दादा हमेशा अपने पुत्र के साथ संगीत की धुनों को लेकर सलाह मशवरा करते थे, इस गीत को लेकर ‘पंचम दा’ ने उनसे कोई बातचीत नहीं कि, सीधे रिकॉर्डिंग के दिन अपने गुरु पिता को बुलाया तेज तर्रार संगीत को सुनकर बर्मन दादा नाराज हो गये और कहा कि “पंचम शास्त्रीय संगीत जो मैंने तुम्हें बचपन से तालीम दी क्या तुम भूल गये हो? कहकर गुस्से से बाहर आ गये।
बर्मन दादा की संगीत की महान विरासत को को आगे ले जाने वाले ‘पंचम दा’ के साथ दोनों खूब सहमत होते थे, उन्होंने शायद ही कोई संगीत रचा होगा जो उनके पिता को पसंद न आया हो। दोनों के बीच में संगीत को लेकर कई बार मतभेद और असहमतियां हुआ करती थीं।
दम मारो दम को आज भी बहुत पसंद किया जाता है। लेकिन इस गाने को सुन कर आरडी बर्मन के पिता ने अपना सिर झुका लिया था। एसडी बर्मन पर लिखी किताब में इस किस्से का जिक्र किया गया है।- ‘जब एसडी बर्मन ने बेटे द्वारा बनाये गाने ‘दम मारो दम’ की रिकॉर्डिंग सुनी तो गाना सुन कर पिता बहुत निराश हो गये। उस दिन ‘पंचम दा’ ने अपने महान संगीतकार पिता जो उनके गुरु थे, गाना सुनने के दौरान सिर झुकाते और स्टूडियो से बाहर जाते देखा। इस फिल्म के गाने में एक लाइन देव साहब बोलते नजर आते हैं- ‘राम का नाम बदनाम न करो’ इसके पीछे का किस्सा एक बार ‘पंचम दा’ ने एक इंटरव्यू में शेयर किया। एक दिन पंचम दा’ आनंद बक्शी के साथ स्टूडियो पहुँचे, इस फिल्म के गाने पर काम कर रहे थे कि तभी देव साहब को बर्मन दादा की नाराज़गी का पता चला। देव साहब को बर्मन दादा की नाराज़गी खल रही थी। स्टूडियो में दाखिल होते हुए देवानंद साहब के मुंह से निकला – ‘राम का नाम बदनाम न करो’ इसे जब’ पंचम दा’ एवं आनंद बक्शी ने सुना तो इसे फिल्म के गाने में रखने का फैसला कर लिया। बाद में बर्मन दादा को गीत सुनाया गया था तो बर्मन दादा ने थोड़ी राहत की साँस ली, देव साहब ने उनके प्रति जो आदर का भाव व्यक्त किया, बर्मन दादा की कुछ नाराज़गी दूर हुई, देव साहब के लिये तो बर्मन दादा ने उस गीत को फिर से सुना और शुभकामनायें दीं। नये प्रयोगों में खूब आलोचना सहना पड़ता है। ‘पंचम दा’ हर आलोचना को सहते हुए जिंदा रहते हुए ही किवदंती बन गये।
पंडित हरी प्रसाद और विश्व विख्यात संतूर वादक “पण्डित शिव कुमार शर्मा” बर्मन दादा के साथ काम किया करते थे। पंचम दा और ‘पंडित शिवकुमार’ की गहरी दोस्ती थी। दोनों अपनी-अपनी विधाओं में पारंगत थे, दोनों अपनी-अपनी फील्ड के मास्टर थे, दोनों महान कलाकार एक-दूसरे से काफी प्रभावित थे।
दोनों की इसी दोस्ती की वजह से ही शिवकुमार शर्मा ने अपने बेटे का नाम भी राहुल रखा था। दोनों ने घर आसपास ही बना रखे थे। इसलिये शामें भी अक्सर साथ में ही गुज़रती थीं। कभी-कभार देर रात तक रियाज़ करते रहते थे। अक्सर वो दोनों गाड़ी में संगीत सुनते हुए लांग ड्राईव पर निकल पड़ते थे। पंचम दा जब स्वतंत्र रूप से संगीतकार बन गये, उसके बाद भी काफ़ी समय तक अपने पिता बर्मन दादा को असिस्ट करते रहे। एक दिन पंचम दा को पता चला कि शिवकुमार शर्मा तबला भी बजा लेते हैं तो उन्होंने शिवकुमार शर्मा से फ़िल्म गाईड में तबला बजाने को कहा..शिवकुमार शर्मा इसके लिये तैयार ही नहीं हुए क्योंकि तबले का रियाज़ वो काफ़ी समय पहले ही छोड़ चुके थे। अब उनका पूरा ध्यान संतूर पर था, लेकिन पंचम दा नहीं माने वो अपनी ज़िद पर अड़े रहे। शिव कुमार शर्मा इसलिये भी घबराए हुए थे, क्योंकि वो गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित एक नृत्यगीत था, उसमें कमी की ज़रा भी गुंजाइश नहीं थी, लेकिन मजबूरन उन्हें पंचम दा की बात माननी पड़ी। आख़िरकार शिव कुमार शर्मा ने तबला बजाया और बहुत ही उम्दा बजाया, यूँ लगता है, जैसे तबला में भी उन्हें मास्टरी हासिल थी। उस कालजयी गीत को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ दी। गीत के बोल ‘मोसे छल किये जा सैयां बईमान’, शिव कुमार जी के मुताबिक सिर्फ यही एक ऐसा गीत है जिसमे उन्होंने तबला बजाया है।
‘पंचम दा’ ने अपने महान पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए, बर्मन दादा की सिग्नेचर स्टाइल थाट बिलावल के राग बिहाग जो कि 8 मात्रा की ताल है राग पर हमेशा गीत रचते थे। उन्होंने अपनी खुद की कालजयी ऑटोट्यून पैदा की, बाद में संगीतकार रोशन ने उनकी इजाजत से कई सुपरहिट गीतों का निर्माण किया। महान संगीतकार मदनमोहन जी ने भी उनकी इजाज़त से कई गीतों का निर्माण किया, उनकी धुन साउथ इंडिया तक पॉपुलर थी। 1951 में ‘नौजवान’ फ़िल्म के गीत ‘ठंडी हवायें लहरा के आये’ गीत के ऑटोट्यून से प्रेरित होने के सिलसिले का लंबा इतिहास है। ‘पंचम दा’ अपने पिता की सिग्नेचर स्टाइल गीत ‘ठंडी हवायें लहरा के आयें’ तर्ज़ से प्रेरित होकर शम्मी कपूर निर्देशित फिल्म ‘बंडलबाज’ में किया। ‘पंचम दा’ ने अपने पिता के संगीत से प्रेरित होकर एक यादगार गीत रच दिया, गीत के बोल थे, “नगमा हमारा गायेगा सारा ज़माना’ आरडी बर्मन अभी भी इस धुन का खूब इस्तेमाल कर रहे थे। उनके पिता की सिग्नेचर धुन पंचम दा के लिये लकी साबित हो रही थी, जो भी गीत बनाते हिट साबित होता। साल 1983 में फिल्म” अगर तुम न होते” फिल्म में रिपीट किया वो गीत था “हमें और जीने की चाहत न होती अगर तुम न होते” बनाया जो सुपरहिट साबित हुआ, ये वही दौर था, जब हिन्दी सिनेमा में आरडी बर्मन, किशोर कुमार, राजेश खन्ना तीनों मील का पत्थर छू रहे थे, जिसने राजेश खन्ना और किशोर कुमार को सुपरस्टार बनाया।
सन 1985 में फिल्म आयी ‘सागर’ जो अपने यादगार संगीत के लिये जानी जाती है। गीत के बोल हैं, “सागर किनारे दिल ये पुकारे” आज भी लोकप्रिय गीत है, अगर इस गीत को ध्यान से सुना जाये तो इसमे गीत ‘ठंडी हवायें लहरा के आयें’ की फिलिंग आती है, जिसमें उसकी खुशबू आती है.
एक अच्छा संगीतकार होने के साथ ही आर.डी बर्मन बहुत अच्छा माउथ ऑर्गन भी बजाते थे। आर.डी बर्मन के गीत युवाओं को बहुत पसंद आते थे। उनका अंदाज और संगीत सदैव जवान रहा। मगर साल 1985 के बाद आर.डी बर्मन का करियर ग्राफ नीचे गिरने लगा। जिस फिल्म में उनके गीत होते, वो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल साबित हो जाती थी। ऐसे में लोगों ने फिल्मों की नाकामयाबी के लिये आर.डी बर्मन के संगीत को दोषी ठहराना शुरू कर दिया। साल 1988 में इन्हीं सब बातों से परेशान आर.डी बर्मन को दिल का दौरा पड़ा। लंदन में जब उनका इलाज चल रहा था, उस दौरान भी आर.डी बर्मन ने धुनें बनाना नहीं छोड़ा। उनकी आखिरी फिल्म ‘1942: लव स्टोरी’ थी। फिल्म के सभी गीत हिट थे, मगर जब सफलता का स्वाद चखने की बारी आयी तो 4 जनवरी 1994 को पंचम दा ने दुनिया से ही मुंह फेर लिया और हमेशा के लिये दुनिया को अलविदा कह गये।
मेहबूबा मेहबूबा….
आने वाला पल जाने वाला है…
ओ मेरे दिल के चैन…
हमें तुमसे प्यार कितना…..
चुरा लिया है तुम ने…
तुम आ गए हो…
कुछ तो लोग कहेंगे…
ये शाम मस्तानी…
तूने ओ रंगीले…
गुलाबी आंखें…
बचना ऐ हसीनों….
बाहों में चले आओ……….
उनके ये गीत आज भी लोगों के जहन में ताजा है।
साभार – दिलीप कुमार