Russia Ukraine War: जंग बेहद भयानक होती है। आम मासूम लोगों के लिये तो और भी डरावनी। जख़्मी जिस्म और कटी-फटी लाशें सिहरन पैदा करने के लिये काफी होती है। इस त्रासदी में जो इससे बच जाते हैं, वो ज़िन्दगी भर भीतर ही भीतर अंदरूनी ज़ख्म लिये जीते है। जिसका ना तो कोई नश्तर है और ना ही कोई शफ़ा। यूक्रेनी आवाम बड़ी तादाद में पहले से ही अपने शहरों और गांवों को सुरक्षा की तलाश में छोड़ रही हैं। लेकिन उन लोगों से परे जो यूक्रेन पर रूसी हमले से सीधे ज़द होते हैं, दुनिया भर में ऐसे लाखों लोग हैं, जो इस जंग के अप्रत्यक्ष नतीजों का सामना कर सकते हैं।
युद्धों में अनिश्चितता पैदा होती है, और एक ऐसी दुनिया में जहां महामारी से उबरना मुश्किल से शुरू हुआ है, इससे ज़्यादा नुकसान हो सकता है। इस तरह के अनिश्चित माहौल में चीजें कैसे होंगी ये भविष्यवाणी करना मुश्किल काम है। फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों (French President Macron) से बात करने के बाद मीडिया को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति पुतिन (President Putin) ने हाल के दिनों में किसी बड़े देश के किसी नेता के परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का सीधा जिक्र किया। ये दुनिया को डराता है। खासतौर से दिन और रात 24X7 समाचारों के युग में 10 सेकंड से ज़्यादा वक़्त तक ये आपका ध्यान खींचने की कोशिश कर रहे। न्यूज़कास्टरों की अतिशयोक्तिपूर्ण बयानबाज़ियों से प्रभावित होना आसान है। लेकिन ये देखते हुए कि हम अभी भी इस जंग के शुरुआती चरण में हैं, क्या हो सकता है पर जंगली अटकलों में शामिल होने के बजाय ये देखना बेहतर होगा कि साल 2014 में क्रीमिया (Crimea) के कब्जे के दौरान क्या हुआ था।
लगभग आठ साल पहले 18 मार्च 2014 को क्रीमिया प्रायद्वीप आधिकारिक तौर पर रूस में शामिल हो गया था। महीनों भर की जद्दोज़हद और युद्धाभ्यास के बाद स्थानीय लोगों द्वारा “छोटे हरे आदमी” कहे जाने वाले रूसियों की सेना के नियमित लोगों ने इस इलाके पर कब्जा कर लिया। कब़्जे और उसके बाद जनमत संग्रह काफी हद तक रक्तहीन था। मीडिया घरानों ने दुनिया को घेरने वाले संघर्ष की भविष्यवाणी करने के बावजूद यूक्रेनी और रूसी सेनाओं (Russian Armies) के बीच कोई तीखी लड़ाई नहीं हुई। ऐसा कुछ नहीं हुआ। नतीज़न क्रीमिया के लोगों के लिये ये अच्छा था या नहीं? रूसी कब्ज़े के बाद बाकी दुनिया पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।
दोनों सेनायें अभी भी बेमेल हैं और पश्चिमी दुनिया के शोरशराबे के बावजूद ये संभावना नहीं है कि कोई भी पश्चिमी शक्ति ताकत ज़मीन पर उतरेगी। इसके मायने ये हुए कि 2022 अभी भी 2014 का क्रीमिया वाला वाकया दोहराया जायेगा। दुनिया यूक्रेन के लोगों के लिये रोयेगी, लेकिन ये एक स्थानीय संघर्ष बना रहेगा, जिससे दुनिया के बाकी हिस्सों में हिंसा का कोई प्रत्यक्ष खतरा नहीं होगा।
सीमित संघर्ष के हालात में भी ये साफ है कि रूस को 2014 के बाद से अधिक गंभीर प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा। इससे रूस के लिये दुनिया के साथ कारोबार करना मुश्किल हो जायेगा। रूसी अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी, लेकिन ऐसा बाकी दुनिया पर भी होगा। रूस तेल और प्राकृतिक गैस के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। प्रतिबंधों और युद्ध की वज़ह से आयी अनिश्चितता में वृद्धि से लगभग निश्चित रूप से ईंधन की कीमतों में बढ़ोत्तरी होगी।
ब्रेंट क्रूड ऑयल (Brent Crude Oil) 2014 के बाद पहली बार 105 डॉलर/बैरल के निशान को पहले ही पार कर चुका है। अन्य ओपेक देशों के उत्पादन में इज़ाफे की कोई संभावना नहीं है (अहम अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बिना) क्योंकि वो पिछले कुछ सालों में तेल की कम कीमतों से अपने नुकसान की भरपाई करना चाहते हैं। जैसे-जैसे ईंधन की कीमतें बढ़ती हैं, न सिर्फ आप पेट्रोल पंप पर ज्यादा भुगतान करेंगे, आप लगभग हर चीज के लिये अधिक भुगतान करेंगे। तेल कई अन्य सामानों में एक प्रमुख घटक है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि आज हम जितने भी उत्पादों का उपयोग करते हैं, वे कहीं और उत्पादित होते हैं। जैसे-जैसे उनकी ट्रांसपोर्टेशन कॉस्ट बढ़ती है, वैसे-वैसे उनकी कीमतें भी बढ़ती हैं।
बड़े पैमाने पर पैसे की छपाई ने पहले ही अमेरिका जैसे देशों में लंबे समय से चले आ रहे रिकॉर्ड को पछाड़ दिया था। भारत में मुद्रास्फीति मुश्किल से आरबीआई की सहनशीलता सीमा के भीतर है। उपभोक्ताओं के लिये एक सुखद दुष्परिणाम ये हो सकता है कि भारत सरकार अंततः पेट्रोल और डीजल पर भारी उत्पाद शुल्क को कम कर सकती है।
जून 2011 में जर्मन संसद (German Parliament) ने 2022 तक अपने सभी परमाणु संयंत्रों को बंद करने के लिये मतदान किया। इन संयंत्रों ने 2000 में 29.5% बिजली का उत्पादन किया और उनका योगदान 2020 में 11.4% तक कम हो गया। इसके साथ ही जर्मन सरकार ने भी एक योजना तैयार की ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने की। इस योजना के लिये कोयले से चलने वाले संयंत्रों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की आवश्यकता थी। जबकि ये दोनों ही योग्य लक्ष्य हैं, उन्होंने एक ऐसी स्थिति पैदा की, जिसमें जर्मनी ज़्यादा से ज़्यादा रूसी गैस पर निर्भर था। साल 2021 में गैस जलने से उत्पादित बिजली का 15.3% हिस्सा था। इसने करीब 20 मिलियन घरों को गर्म रखने में भी मदद की और सिरेमिक जैसे कुछ उद्योगों के लिये ये गैस प्राथमिक ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होती है है। इनके लिये जरूरी गैस का करीब आधा हिस्सा रूस से आता है। जर्मन सरकार ने दावा किया है कि वो रूसी गैस के बिना प्रबंधन करेगी, लेकिन इसकी संभावना नहीं है। अगर वे रोशनी को चालू रखने का प्रबंधन करते हैं, तो भी बिजली और ऊर्जा की कीमत बढ़ जायेगी। प्रतिबंधों से रूस को नुकसान होगा, लेकिन रूसी अर्थव्यवस्था करीब एक दशकों के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद उसने चलना सीख लिया है। ऐसे में जर्मनी समेत कई देशों को भारी नुकसान पहुँचना तय है।
तो यहाँ अहम सवाल ये है कि क्या रूस को सज़ा देने के लिये जर्मनी और दुनिया खुद को नुकसान पहुंचायेगी? अगर ऐसा करने का जोखिम अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी मुल्क उठाते है तो इसका खामियाजा आम लोगों की जेब को भुगतना पड़ेगा। कई चीज़ों के दामों में बेतहाशा इज़ाफा होगा। सप्लाई चैन में आयी रूकावट तो ये कई दिग्गज़ अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ तोड़ देगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मास्को पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाने का कोई मतलब ही नहीं होगा। कुल मिलाकर यूक्रेनियों के आंसुओं और दर्द की बड़ी कीमत अब दुनिया को चूकानी होगी।