बुद्ध (Bhagwan Buddha) एक बार नदी के किनारे से गुजर रहे थे। उन्होंने बच्चों को रेत के घर बनाते देखा तो वहीं खड़े हो गये। खड़े इसलिए हो गये कि चलो आज इन बच्चों का घर देखता हूँ कि बच्चे भी रेत का कैसे घर बनाते हैं। सोचने लगे कि घर तो जवान और बूढ़े सभी बनाते हैं तो चलो आज थोड़ा इनके खेल को देख लूँ। रेत के ही घर बना रहे थे, जब कभी कोई हवा का इक झोंका आ जाता तो कोई घर खिसक जाता, किसी बच्चे का धक्का लग जाता तो किसी का घर गिर जाता। किसी का पैर पड़ जाता तो किसी का बना बनाया महल ज़मीन पर ढेर हो जाता
बच्चे लड़ते झगड़ते गाली देते और एक दूसरे को मारते। जब किसी का घर गिरा दिया तो झगड़ा तो सुनिश्चित है। सारे झगड़े घरों के ही हैं। किसी का धक्का लग गया तो किसी का घर गिर गया,किसी ने बड़ी मुश्किल से तो आकाश तक पहुंचने की कोशिश की थी और किसी ने चोट मार दी और सब जमीन पर गिर गया।
बुद्ध खड़े होकर देखते रहे। बच्चे एक दूसरे से लड़ते रहे। झगड़ा होता रहा। फिर सांझ (Dusk) होने लगी, सूरज ढलने लगा। फिर किसी ने नदी के किनारे आकर आवाज लगायी कि तुम्हारी मातायें घर में तुम्हारी राह देख रहीं हैं , अब घर आ जाओ। जैसे ही बच्चों ने ये सुना, बच्चों ने अपने ही बनाये घरों पर कूद फांद कर, उनको गिरा दिया और कोई हंसते कूदते कोई रोते हुये, कुछ निराश हुए से। वे सभी अपने घर की तरफ चल पड़े।
बुद्ध खड़े ये सब देखते रहे। बुद्ध सोचने लगे अगर मनुष्य अपने सारे जीवन को रेत के खेल जैसा समझ लें और उनके मन में ये ख्याल आ जाये कि जीवन तो रेत के जैसा है, इसको अपनी मनपसंद से जिया लेकिन अब ये खेल समाप्त हुआ। व्यर्थ में ही सब कुछ इकठ्ठा कर रहे थे। कभी प्यार कभी झगड़ा कर रहे थे। चलो अब पुकार आ गयी उस परमात्मा (The eternal) की कि असली घर वही है। अब उसी ओर चले संयम से प्यार से, भाईचारे से, सेवा से और एकदूसरे के सुख दुख के सहभागी बनते हुए समाज में। तब व्यक्ति, परिवार, समाज राष्ट्र का नैतिक, आर्थिक विकास और उसका समृद्ध होना सुनिश्चित है ।