Story कहानीः एक थे, बिरजू काका
हवाओं को किस ने देखा है, इसे तो सिर्फ महसूस किया जा सकता है, कभी-कभी ये बयार सौंधी-सौंधी खुशबूओं के साथ लाती है, कुछ किस्से, कुछ बातें, सपनों में लिपटी रातें, और क्या कहे, ऐसी रातों का, जब चांद का नूर, दिन भर की जली जमीं पर बरसता है, और जमीं को मिलती है, तरावट, सुकून, ठीक इसी तरह, हम सभी की जिन्दगी में, कुछ ऐसे लोग होते है, जिनके बारे में ख्याल भर से ही, हमारे मुरझाये चेहरे पर मुस्कान की एक लकीर-सी खिंच जाती है, आप लोगों को कुछ ऐसा ही महसूस होगा, कहानी एक थे बिरजू काका के साथ…………………
“नीलम तेरा लड़का बड़ा शरारती है, देख आज इसने छ्त पर रखे सूखों पापड़ों पर पानी फेंक दिया” मिसेज शर्मा उर्फ शर्माइन का ये शोर, पुरानी दिल्ली के कूंचा बेला माल बाज़ार मोहल्ले में गूंज उठा, रिक्शों की घंटियों, मसालों की बोरियाँ ढ़ोते मजदूरों, पान के पत्तों पर सुपारियों के जायके और कत्थे की रंगत के बीच बसा ये मोहल्ला, शर्माइन की ये आवाज़ सुनकर, मैं छुप गया, घर के नीचे वाले गोदाम में, जहाँ पर मसालों की बोरियाँ रखी जाती है, ना जाने मम्मी को कैसे पता चल गया कि, मैं घर के नीचे वाले तहखाने में छुपा हूँ, कमबख्त ये ऑरिजनल हींग की खुशबू ना, सीधे ही दिमाग में चढ़ती है, मैं थोड़ा हिला ही क्या, मम्मी को पता लग गया, जनाब हींग वाली बोरी के पीछे छिपे है, कान मरोड़ते हुए, मुझे वहाँ से निकाला, और एक जोरदार करारा थप्पड़ जड़ दिया, मेरे गालों पर, वैसे तो आप लोगों ने, कलर्ड और ब्लैक एण्ड़ व्हाइट प्रिन्ट आउट का नाम सुना होगा, लेकिन उस दिन मेरे चेहरे पर ब्लू प्रिन्ट आउट निकल आया था, शाम को थके हारे, हाथ में टिफिन लिये हुये, मगही पान चबाते हुए, पापा जब घर आये, तो उनसे पता चला कि, मेरे चेहरे पर नील पड़ गई है, दिन भर की थकान और धूल मिट्टी चेहरे पर लिए हुए, वो मेरे चेहरे का मुआयना, कर रहे थे, रसोई की तरफ से कुछ आवाज़े आ रही थी, जैसे मम्मी सिलबट्टे पर, कुछ पीस रही हो, पापा गुस्से में बोले “तुम बाउरा गई हो का, देखों, कितनी बेदर्दी से मारा है,” इतनें में ही मम्मी आ गयी, हाथों में कांसे की कटोरी लिए हुए, और उस कांसे की कटोरी में था, सिलबट्टे पर पिसी हुई, हल्दी और प्याज का लेप, जिसे गर्म करके, हमारे श्री मुख पर लगाया जा रहा था, ताकि हमारे चेहरे पर जमी नील हट जाये, मम्मी लेप लगाती जा रही थी, मेरे गालों पर, दोस्तों हैं ना, अजीब बात, शर्माइन के पापड़ों पर पानी ड़ालकर मैनें पापड़ खराब किये, शरारत मैनें की, थप्पड़ मैने खाया, नील मेरे गालों पर जमीं, लेकिन दर्द मम्मी को हो रहा था, उनकी आँखों का काजल, धार-धार बहे जा रहा था, एक ही दम से पापा हँस पड़े, और कहने लगे, “बेटे के गालों पर नील जमी है, और तुम्हारे चेहरे पर काजल” मम्मी भी मुस्कुराने लगी और बोली, “मुझे कोई खुशी थोड़ी ही मिलती है, इसे मारकर, तुम्हीं पूछो अपने लाड़ले से, क्या जरूरत थी, शमाईन के सूखे पापड़ों पर पानी फेंकने की” पापा मेरी तरफ देखकर गुस्से वाले लहजे में बोले, “देखो राम आइन्दा ऐसी शरारत मत करना, वरना जैसे, आबिद भाई ने अपने छोटे साहबजादे को, बोर्ड़िंग स्कूल में भेजा था, वैसे तुम्हें भी भेजना पड़ेगा” इस बात को हल्के में लेते हुए, मैनें सिर हिला दिया, अब मेरे अन्दर बदले की आग भभक रही थी, एकदम बॉलीवुड़ की फिल्मों की माफ़िक, अब वक्त था, शर्माइन को मजा चखाने का, और रही बात शर्माइन की, वो एकदम भक्त किस्म की महिला था, पूजा-पाठ, कार्तिक स्नान, मानों उन्हीं के लिए बने हो, एक दिन हमें, अपना बदला पूरा करने का मौका मिल ही गया, हमारी गली का सबसे प्यारा और सारे बच्चों का दुलारा कुता, जिसका नाम हम सबने पिन्टू रखा था, प्यार से पुचकारकर और कोकोनेट वाले बिस्किट खिलाकर, उसे कहीं भी ले जाया जा सकता था, तो हुआ यूं, हमने भी उसे एक बार बिस्किट खिलाकर और दो बार प्यार से पुचकारकर, छोड़ दिया शर्माइन की रसोई में, कुछ देर में बखेड़ा खड़ा हो गया, उनके घर से जो एक बार आव़ाजे आनी शुरू तो फिर रूकने का नाम नहीं लिया, शर्माइन ने दहाड़े मार-मारकर, चिल्लाना शुरू कर दिया, “अरे किसने छोड़ दिया, इसे रसोई में, कलमुयें ने सारी रसोई खराब कर दी, अब ठाकुर जी के लिए, भोग प्रसाद कहाँ बनाऊँगी” उनका चिल्लाना सुनकर, पूरा मोहल्ला एक हो गया, आबिद भाई ने पूछा,
“मोहतरमा क्यूँ पूरा मोहल्ला सिर पर उठा रखा है” शर्माइन ने अपना साऱा दुखड़ा कहां सुनाया, मैं भी वहीं भीड़ में खड़ा था, अपनी हँसी को मुश्किल से रोके हुए, चेहरे पर संजीदगी लिए हुए, अपने आप से कह रहा था, “शुक्र है राम बच गये, वरना शक की सुई, तुम्हारी तरफ घूम सकती थी” अब मेरी शरारतें दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी, पिन्टू कुते की पूंछ में, पटाखे के लड़ियाँ बान्धना, शर्माइन की डोरबेल बजाकर भागना, इनमें शामिल था, लो जी कहते सुनते, फागुन का महीना भी आ गया, फागुन का मतलब मार्च, यानि कि होली, होली दस दिन बाद थी, पर हम अभी से ही, पानी से भरे हुए गुब्बारे मारने लगे थे, कभी किसी रिक्शे वाले को, कभी किसी सड़के चलते राहगीर को, गुब्बारा मारकर बालकनी में छुप जाते थे, सामने वाली मसाले की दुकान पर, एक गोरी मैम मसालों की फोटो खींच रही थी, मैनें तय किया कि, जैसे ही वो मसाले की दुकान से हटेगी तो उसे गुब्बारा मारूँगा, क्योंकि अगर निशाना चूक गया तो, पानी मसालों पर चला जाता, जैसे ही वो गोरी मैम दुकान पर से हटी, मार दिया गुब्बारा, गोरी मैम तो बच गयी, गुब्बारा जा लगा, हमारी पड़ोस में रहने वाली समरीन नाज़ को, मेरी ये हरकत, पुजारी जी और शुक्ला जी चाय वाले ने देख ली थी, समरीन रूआँसी सी होकर, अपने घर की ओर निकल गई, शाम को समरीन के अब्बा, आबिद भाई ने पापा को शिकायत कर दी, लो जी हो गया सजा का फरमान जारी, पापा गुस्से से लाल हो गये, मानों उनका प्रकोप अब फट पड़ेगा, तब फट पड़ेगा, उन्होनें मम्मी से कहा, “तुम्हारे राम की हरकतें, अब हद पार कर गई है, अब इसको बोर्डिंग स्कूल भेजना ही पड़ेगा,” आखिरकर वो दिन भी आ ही गया, मेरा बेरिया बिस्तर बांधकर, भेजा दिया गया, माँ की आँखों में आँसू थे, और लोगों की चेहरे पर सुकून, चलों कम से कम मोहल्ले से एक मुसीबत तो कम हुई, लेकिन एक बात तो तय है, मुसीबत तो मुसीबत ही होती है, चाहे वो घर में रहे या बाहर,
मैं रिक्शे में बैठा चला जा रहा था, पापा भी मेरे बगल में ही बैठे हुए थे, मेरा बैग संभाले हुए, अब तक चौथा पान का बीड़ा मुँह में झोंक चुके थे, मैनें पीछे मुड़कर देखा, मम्मी अपने आँचल में, आँसूओं को छुपाने की नाकाम कोशिश कर रही थी, साथ में खड़ी थी शर्माइन, चेहरा तो उनका भी उतरा हुआ था, लेकिन मन ही मन में वो खुश थी, रूआँसा तो मैं भी हो रहा था, पर आँखों की नमी ना जाने कहाँ गुम हो चुकी थी, रह-रहकर मेरा दिल एक ही बात कह रहा था, “अरे कोई तो रोक लो मुझे, मम्मी मैं तो तुम्हारा लाड़ला हूँ, तुम तो रोक लो मुझे, आबिद भाई अगर मैं यहाँ पर नहीं रहूँगा तो, आपके यहाँ ईद पर फिरनी खाने कैसे आऊँगा, समरीन मेरे बगैर तुम्हें कौन परेशान करेगा” लेकिन इनमें से किसी ने मुझे नहीं रोका, दिल की बात, दिल में ही दफन हो गई, पापा और मैं पहुँच गये रेलवे स्टेशन, ना जाने जिन्दगी किस ओर ले जा रही थी, मैं खामोशी से उसका दामन थामे चला जा रहा था, ट्रेन तेजी से आगे भाग रही थी, शहर, गाँव, बियांबान, जंगल पीछे छूटते जा रहे थे, और इन्हीं के साथ पीछे छूट गयी थी, कूँचा बेला माल बाज़ार की गलियाँ, शाही ईदगाह की अजान, बारह टूटी चौक की कचौड़ियाँ, रामलीला मैदान, मम्मी के हाथ की पिन्नियाँ, और गली के दोस्तों के साथ की गई शरारतें, सोच में इस कदर डूबा था, मानों वक्त से पहले बुढ़ापा आ गया हो, इतने में ही गाड़ी रूकी, स्टेशन से बाहर निकलकर हमने सवारी ली, कुछ ही देर में हम शहर से बाहर थे, हमारी गाड़ी ऊँचे-ऊँचे दरख्तों के बीच से होती हुई, गेहूँ के खेतों के सामने से निकल रही थी, गाड़ी का ड्राइवर मूछों पर ताव देते हुए बोला “का साब जी, बबुआ को पहाड़ी वाले इस्कूल में भर्ती कराने ले जा रहे है” पापा ने गर्दन हिलाकर हामी भरी, ड्राइवर एक बार फिर बोला “साब जी बहोत जाना-माना इस्कूल है, जो भी पढ़न को जात है, बड़ा आदमी बन जात है” कुछ ही देर में, खुद को एक बोर्डिंग स्कूल के गेट के बाहर खड़ा पाया, स्कूल पहाड़ियों और आम जामुन अमरूद के अलावा बहोत सारे पेड़ों से घिरा था, शहर के शोर से दूर एक शान्त जगह, पापा ने समान उतारा और गाड़ी वाले को किराया दिया, मैं एक अन्जान दुनिया का बाशिन्दा बनने जा रहा था, कुछ ही देर में मेरा एड़मिशन हो गया, पापा ने कागजों का लिफाफा और कुछ नकद रूपये थामते हुए कहा “ जब तक तुम्हारी पढ़ाई चलेगी, तुम्हें यहीं रहना पड़ेगा, मैं तुम्हें हर महीने मनीआर्डर करूँगा, फिर भी कुछ खास चीज की जरूरत हो तो, वार्डन को बता देना, वो मुझे फोन करके बता देगा” इतना कहकर पापा जाने लगे, Sports Ground पार करके, गेट की दूसरी तरफ, हाँ मैं वहीं खड़ा रहा, इस उम्मीद में, कि पापा पलटकर आयेगें, और कहेगें “नहीं मैं तुम्हें यहाँ अकेला नहीं छोड़ा सकता, चलो वापस घर” लेकिन इस उम्मीद को ना-उम्मीदी का दामन थामना पड़ा, पापा ने पलटकर पीछे एक बार भी नहीं देखा, लेकिन मैं इस बात से अन्जान था, मैं एक शानदार सफर की ओर निकल पड़ा हूँ, एक ऐसा सफर जिसने मुझे, जीने का सलीका सिखाया, और इस सफर में मेरे हमराह बने, मेरे दोस्त, सचिन कौशिक, अनूप कुमार गुप्ता, और राहुल मिश्रा, स्कूल का माहौल बेहद Disciplined था, सुबह जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना, अगर एक मिनट की भी देर हुई तो समझ लो, मैस का खाना नसीब नहीं होगा, शायद इसके पीछे एक Reason ये भी रहा हो, हमारे प्रिंसिपल सर, मृत्युजंय राठौर आर्मी के रिटायर्ड कर्नल थे, स्कूल का सारा स्टाफ ठीक था, पर लाइब्रेरियन सतीराम बाबू बेहद ही खडूस किस्म के शख्स थे, अगर एक दिन भी बुक लौटाने में देर हुई तो, तगड़ा वाला फाइन लगा देते थे, यानि की महीने की सारी पॉकेट मनी स्वाहा होने का खतरा, और एक दिन हुआ भी यही, अनूप ने एक बुक Issue करवाई थी, और वो बुक ना जाने, कहाँ रख दी, कमबख्त मिल ही नहीं रही थी, हम लोगों ने पूरा रूम ढूढ़ ड़ाला, पर कहीं नहीं मिली, अनूप के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगी, हम सब मिलकर सोचने लगे, अब क्या किया जाये ?
किसी तरह हिम्मत करके, हम चारों जा पहुँचे सतीराम बाबू की शरण में, मैनें उनसे कहा “सर अनूप ने जो Book Issue करवायी थी, वो Misplace हो गई है, अब क्या करे”, सतीराम बाबू ने फौरन फाइन स्लिप काटकर, जुर्माना भरने का फरमान जारी कर दिया, लो जी हो गया हमारा तीया-पाचा, हमने मिलकर सतीराम बाबू से खूब मिन्नतें की, लेकिन सतीराम बाबू भी ठहरे पत्थर के सनम, नहीं माने, आखिरकर जयन्त ने पॉकेट मनी के खर्चें से, फाइन भरा, हम दोस्तों ने मिलकर, कुछ भारी Decision लिए, पहला तो ये कि, इस महीने खर्चों पर थोड़ी लगाम लगाई जाये, ताकि हम लोग अपने-अपने हिस्से की पॉकेट-मनी से अनूप को Bailout Package जारी कर सके, और दूसरा ये कि लाइब्रेरियन सतीराम बाबू को मजा चखाया जाये, अरे उन्हें भी तो पता चले, अन्जाने में ही उन्होनें किस बला को गले लगाया है, अजी हम भी ठहरे ठेठ दिल्ली वाले, जब तक बदला नहीं लेगें, तब तक चैन नहीं, गर्मी के दिन थे, रात के वक्त बिजली कटना आम बात थी, इसी के मद्देनज़र, हमारे लाइब्रेरियन महोदय श्री सतीराम बाबू अक्सर Sports Ground में, खटिया पर सोया करते थे, मच्छरदानी लगाकर, लगे हाथ एक दिन हमें भी, बदला लेने का मौका मिल गया, ना जाने क्यों, जब भी बदले की बात आती है, तो मुझे नागिन की रीना रॉय याद आ जाती है, एकदम फुलप्रूफ प्लान था, हमारे पास, अन्धेरी रात थी, दूर कहीं सियारों के रोने की आव़ाजे आ रही थी, बस इसी मौके की तलाश थी हमें, सचिन ने रूम के मन्दिर से कुछ अगरबत्ती और माचिस साथ ले ली, मैनें राहुल और अनूप को चुपचाप मैस में जाने के लिए कहा, और खुद बॉयो-लैब की तरफ निकल गया, हमने तय किया बीस मिनट में, हम चारों Sports Ground वाले गेट पर मिलेगें, सारे काम बेहद होशियारी से करने थे, अगर कोई पकड़ा गया तो, कोई किसी का नाम नहीं लेगा, मैं दबे पाँव बॉयो-लैब में घुसा, चारों तरफ देखा, कोई आस-पास तो मुझे नहीं देख रहा, मैदान साफ था, रात की खामोशी को, मच्छरों की भिनभिनाहट तोड़ रही थी, लैब में घुसते ही मैनें दाहिनी ओर देखा, वहीं पुराना Skeleton हर बार की तरह मुस्कुराता हुआ, दीवार पर लटका रहा था, मैनें Skeleton की खोपड़ी उतारी और धीरे से वहाँ से निकल लिया, Sports Ground की ओर, वहाँ पर राहुल, अनूप, और सचिन पहले से ही पहुँचे हुए थे, अब सारा काम प्लान के मुताबिक हो रहा था, हम चुपके से, सतीराम बाबू की खटिया के पास पहुँचे, पूरे माहौल को सतीराम बाबू के खर्राटों के आव़ाज सुरमय बना रही थी, शायद यहीं वो सुर थे, जिनको पंचम गान कहा जाता था, मैनें उनके सिरहाने के पास, खाट के नीचे, Skeleton वाली खोपड़ी रख दी, राहुल और अनूप मैस से नींबू और हल्दी लेकर आये थे, खोपड़ी के पास ही, नींबू रख दिये और हल्दी फैला दी, सचिन ने नींबू के अन्दर अगरबत्ती गाड़कर, जला दी, और चुपके से खिसक लिये वहाँ से, सुबह होती ही, पूरे स्कूल में बवाल मच गया, अजी हल्ला हो गया हल्ला, कोई सतीराम बाबू को टोटका मार गया, पूरा का पूरा स्कूल ग्राउण्ड़ में इकट्ठा होने लगा, हम भी भीड़ के साथ, लग लिये, Sports Ground में पहुँचते ही क्या देखते है, सतीराम बाबू जमीन पर लेटकर लोट-पोट होकर, रो रहे है, उनकी खटिया के पास, अभी भी खोपड़ी, अगरबत्ती गड़े नींबू और हल्दी बिखरी पड़ी हुई है, वो रोते हुए चीख-चीखकर कह रहे है, “अब हम नहीं, बचेगें, कोई हम पर टोटका मार गया है” इतना कहकर वो फिर से मिट्ठी में लोटने-पोटने लगे, कई Teachers ने उन्हें समझाने की कोशिश की, और कहा “किसी लड़के की शरारत होगी, फालतू में घबरा रहे हो” लेकिन सतीराम बाबू कहा मनाने को तैयार थे, उनका रोना-धोना जस का तस बना रहा, उनके दिमाग में टोटके का खौफ बैठ गया था, हम चारों Sports Ground से गैलरी की तरफ आ गये, और जोरों से हँसने लग गये, अनूप सतीराम बाबू की नकल उतारते हुए, उन्हीं के अन्दाज़ में बोला, “अब हम नहीं बचेगें, कोई हम पर टोटका मार गया है”, ये सुनकर हम लोग और हँसने लगे, हँसते-हँसते पेट में बल पड़ गये, मैनें भी गर्व से कहा, “अब बच्चू को पता चलेगा, हमसे पंगा लेने चले थे, हमसे फाइन का पैसा लेकर, हजम करना इतना आसान नहीं है”, ना जाने कहाँ से लंका में विभीषण आ गया था, और हमारी ये बात ना जाने किसने सुन ली, और प्रिसिंपल सर को जाकर बता दी, अब तो हमारी पेशी होना पक्का था,
हम चारों डरे हुए थे, सामने खड़े प्रिसिंपल सर से नज़रे मिला नहीं पा रहे थे, सिर झुकाये खड़े थे, हमारी खामोशी हमारी शरारत को बयां कर रही थी, प्रिंसिपल सर ने अपनी रौबदार आव़ाज में कहा, “तुम सबको पनिशमेन्ट मिलेगी, और आज के बाद ऐसी कोई शरारत करी तो, सीधे स्कूल से बाहर” हमें स्कूल के पीछे वाले ग्राउण्ड़ की, घास साफ करने की सजा मुकर्रर कर दी गई, जेठ की भरी दुपहरी में, आग के गोले बरस रहे थे, हमें खुरपा दे दिया गया, चलो जी शुरू हो जाओ, हम चारों भी घास छीलने में लग गये, गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा था, इतनें में ही मेरी नज़र, हाथ में लाठी लिए एक शख्स पर पड़ी, वो हमारे पास आ खड़े हुए, उनके बालों की सफेदी, जिन्दगी के तजुर्बों को बयां कर रही थी, गठा हुआ बदन, धोती-कुर्ता पहने हुए, गले में गमछा लिए हुए हमारे पास आ खड़े हुए, और उन्होनें कहा “ क्या कर रहे हो बच्चों”, ये थे हमारे स्कूल के चौकीदार ब्रजनाथ पाण्ड़ेय उर्फ बिरजू काका, अनूप झुझंलाते हुए बोला “सजा मिली है, घास छीलने की”, बिरजू काका सामने अमराई से भरे पेड़ की ओर इशारा करके कहा “तुम लोग वहाँ छांव में जाकर बैठो, मैं अभी आता हूँ” हम चारों सोचने लगे आखिर ये बन्दा करना क्या चाहता है, हम चारों छांव में जाकर बैठ गये, उस दिन मैनें महसूस किया, एयरकन्डीशन्ड रूम और आम के पेड़ की छांव में कितना अन्तर होता है, कुछ ही पल बीते होगें, बिरजू काका कंधे पर फावड़ा टांगे, एक हाथ में पोटली, और दूसरे हाथ में, एक छोटी-सी सुराही लिए चले रहे थे, हमारे पास आकर बोले “ये लो गुड़ खाओ, पानी पियो, मैं सारी घास साफ कर देता हूँ” उन्होनें गमछे को सिर पर पगड़ी बनाकर पहन लिया, और अपने सधे हुए हाथों से घास साफ करने लगे फावड़े की मदद से, हम चारों वहीं आम की छांव में बैठे, गुड़ का मजा ले रहे थे, और गुड़ भी ऐसा जिसके स्वाद के आगे, Imported Chocolate फेल, सचिन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी, उसे ये डर सता रहा था, कहीं ये नजारा प्रिंसिपल सर ना देख ले, देखते ही देखते घास साफ हो गयी, बिरजू काका हमारे पास आ खड़े हुए, गमछे से चेहरे का पसीना पोंछकर, थोड़ा सा गुड़ खाया, सुराही से पानी गड़गड़ाते हुए पी गये, और हमसे बोले “जाओ मास्टर साब से कह दो, सजा का काम पूरा हो गया,” हम चारों खुशी-खुशी, प्रिंसिपल रूम में जा पहुँचे, मानों कोई कैदी, माफी की दरख्वास्त लेकर, जज के सामने खड़ा हो, हमने प्रिंसिपल सर को बताया कि, सजा का काम पूरा हो गया है, लेकिन हमारे प्रिय मुख्याध्यापक महोदय ऐसे कहा मनाने वाले थे, जब तक आँखों से देख नहीं लेगें, तब-तक यकीन नहीं करेगें, इसलिए खुद ग्राउण्ड़ की ओर चल दिये, पीछे-पीछे हम भी साथ हो लिये, रास्ते में हर कोई, हम चारों को ऐसे घूर कर देख रहा था, मानों की हम शातिर क्रिमिनल हो, खैर जो भी हो, हम ग्राउण्ड़ में जा पहुँचे, सर देखकर खुश हो गये और अचानक ही उनके मुँह से निकल पड़ा “अरे वाह क्या बढ़िया काम किया है, सोच रहा हूँ, Curriculum में horticulture भी शुरू किया जाये ”, हम लोग वापस अपने रूम में गये, राहत की साँस ली, सूरज ढ़लने और चिड़ियों की चहचहाहट की बीच, शाम अपना गुलाबी आंचल पसार रही थी, पेड़ों की परछाई भूत बनकर डराने को तैयार थी, इस बीच हमने तय किया कि, बिरजू काका का थैंक्यू बोलने चला जाये, किसी से पता चला कि, वो उसी ग्राउण्ड़ में पश्चिम वाले कोने पर रहते है, हम चारों पहुँच गये उनके पास, बाँस और फूस की बनी झोपड़ी, सामान के नाम पर एक चारपाई, पेटी और कुछ जोड़ी धोती कुर्तें, जो कि सामने की ओर, बांस की खूंटी के सहारे टंगे हुए थे, उस समय वो चूल्हे में फूंक मारकर, उपले जला रहे थे, चूल्हें पर एक हाँड़ी में खिचड़ी बन रही थी, उन्होनें आहट पाकर हमारी ओर देखा, उनकी आँखें धुंए की वजह से सुर्ख लाल हो रखी थी, हमने ने उन्हें मदद के लिए दिल से थैंक्यू कहा, उपले जलने की सौंधी-सौधी खुशबू की बीच, उन्होंनें कहा “आओ बैठो खाना तैयार है” राहुल ने कहा “आज हम जल्दी में है, फिर कभी आयेगें” ये कहकर हम वहां से निकल पड़े, रात के वक्त मैस में खाना खाते समय, स्टोर कीपर से पता चला कि, बिरजू काका का एक ही बेटा था, साँप के काटने की वजह से, वो भी चला बसा, उनका बेटा जब मरा, तब हमारी ही उम्र का था, शायद बिरजू काका, मेरे यादगार किस्सों के, किरदारों की फेहरिस्त में शामिल होने वाले थे।
अगले दिन दोपहर के वक्त, मैं बिरजू काका के पास पहुँच गया, राहुल सचिन और अनूप से मैनें चलने के लिए कहा था, सचिन ने कहा, “थैंक्यू बोल दिया ना, इतना काफी है”, वो तीनों आये नहीं, मैं बिरजू काका के पास पहुँच गया, काका कुयें से पानी निकाल कर नहा रहे थे, हर एक बाल्टी पानी सिर पर ड़ालने के बाद, जोर से हर-हर महादेव बोल रहे थे, मुझे देखकर मुस्कुरा उठे, जनेऊ पर हाथ फेरते हुए बोले, “आज हमारे साथ भोजन करना होगा”, मैनें भी मुस्कुराकर हामी भर दी, रास्ते में लौटते वक्त बिरजू काका ने पेड़ से कुछ कच्चे आम तोड़ लिये, और वहीं बाग में, बिखरी पड़ी सूखी लकड़ियों को बटोरकर गमछे में बांध लिया, और उन लकड़ियों के बण्ड़ल को थमा दिया मेरे हाथों में, मैं भी मन ही मन में सोच रहा था, ना जाने कौन-सा भोजन करवाने वाले है, काका अपनी झोपड़ी में पहुँचते ही, लकड़ियों की बंड़ल खुलवाया, तुरन्त चूल्हा सुलगाया, पहले से ही गूंथे हुए आटे की लोईयाँ और आलू चूल्हे में डाल दिये, मैं उनकी खटिया पर एक तरफ बैठा, चुपचाप ये सब होता देख रहा था, वो बाहर गये और सिलबट्टे पर कच्चे आम की चटनी पीस लाये, चूल्हें में से गर्मागर्म लिट्टियाँ निकली गयी, भुने हुये आलूओं का चोखा बनाया गया, और थाली में रखकर परोस दिया मेरे सामने, खाने का जायका ऐसा, जो सीधे ही जुबां पर उतर जाये, काका का बनाया हुआ लिट्टी चोखा और कच्चे आम की चटनी का स्वाद, मुझे आजतक कहीं ओर दुबारा खाने को नहीं मिला, ज्यादा वक्त बीतने की वजह से, खाना खाकर मैं वहाँ से निकल गया, चलो उनकी वाली भी हो गई, मुझे उनकी सोहबत इतनी पसन्द आयी, कि मैं अक्सर उनसे मिलने लगा, उनके साथ रोज सुबह टहलने के लिए जाने लगा, इसी वजह से रोज सुबह जल्दी उठने की आदत भी पड़ गयी, बिरजू काका अक्सर कबीर और रहीम के दोहे सुनाया करते थे, रोजाना क्लास खत्म होने के बाद, मैं उनके पास पहुँच जाया करता था, आम तोड़ने में, सुन्दर काण्ड़ का पाठ करने में, और बागवानी करने में, हम बराबर के हिस्सेदार बन गये थे, शायद यहीं वजह रही कि, मेरा पढ़ाई में मन लगने लगा, एक अन्जान-सी खुशी, साये की तरह मेरे साथ चल रही थी, बिरजू काका मुझे अपने दोस्त की तरह ट्रीट करते थे, आषाढ़ की सांझ थी, मैं रोज की तरह उनसे मिलने गया, वो अपनी खटिया पर लेटे, बुखार से बुरी तरह तप रहे थे, मैं फौरन अपने रूमाल से उन्हें गीले पानी की पट्टी करने लगा, भागकर वॉर्डन के पास गया, पैरासिटामोल की टैबलेट ले आया, उन्हें एक गोली खाने को दी, उनके लिए रात का खाना, मैस से मंगवाया, उन्होनें थोड़ा-सा खाना खाया, रातभर मैं वहाँ बैठकर, उन्हें गीले पानी की पट्टी करता रहा भोर होते ही, अन्धेरा और उनका बुखार कुछ कम हुआ, स्कूल का डॉक्टर आया, उनका मेडिकल चैकअप करके, दवाईयाँ देकर चला गया, तब कहीं जाकर उनकी तबीयत में सुधार आया, वक्त अपनी रफ्तार से, आगे भाग रहा था, शायद इस रफ्तार में कुछ पीछे छूट रहा था, ना जाने क्या था वो, ट्वेलथ के फाइनल पेपर दे चुका था, फेयरवेल पार्टी थी, प्रिसिंपल ने हम सबको फ्यूचर के लिए बेस्ट विशेज दी, गाने और खाने का प्रोग्राम था, अगले दिन हम सारे दोस्त अपने-अपने घर रवाना होने वाले थे, मन में ख्याल आया, चलते-चलते एक बार बिरजू काका से मिल लिया जाये, मैं और अनूप आखिरी बार उनसे मिलने की उम्मीद में, उनकी झोपड़ी की ओर चल दिये, लेकिन काका मिले नहीं, काफी देर ढूढ़ने पर भी उनका नामो-निशान पता ना चला, हार मानकर हम अपने रूम की ओर निकल पड़े, रातभर हम सोये नहीं, पूरी रात दोस्तों से मिलने-मिलाने में निकल गयी, क्योंकि आने वाली सुबह को हम सारे, अपने-अपने घर की ओर निकल पड़ेगें, अगली सुबह सामान उठाये मैं, स्कूल के गेट के बाहर खड़ा था, घर जाने के लिए, सामान अपने साथ लेकर और यादों के किस्से यही, इसी गेट पर छोड़कर जाने के लिए तैयार खड़ा था, बार-बार नज़रे उस अदनी-सी फूस की झोंपड़ी की ओर जा रही थी, दिल ये कह रहा था, अब उस झोंपड़ी से बिरजू काका निकलेगें, तब निकलेगें, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, शायद वो मुझे जाते हुए, देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाये होगें, इसलिए कहीं चले गये होगें, क्या मैं आखिरी बार उनसे नहीं मिल पाऊँगा, लेकिन मेरा मन ये ही गवाही दे रहा था, शायद मैं उनसे आखिरी बार मिल पाऊँगा
वक्त भी रिवर्स गेयर में चल रहा था, जैसा मुझे कूचा बेला माल बाज़ार छोड़कर स्कूल आते वक्त महसूस हो रहा था, कि आखिर मैं घर छोड़कर यहाँ क्यों आ गया, ठीक अब दुबारा वैसा ही महसूस हो रहा है, स्कूल छोड़कर मुझे क्यूं जाना पड़ रहा है, काश लम्हा हमेशा के लिए स्कूल कैम्पस में ही ठहर जाता, वापस घर आ गया, आज भी गलियाँ वैसी की वैसी ही है, आबिद भाई के चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ आ गई थी, समरीन की शादी हो चुकी थी, गली के ज्यादातर यार दोस्त अपनी-अपनी दुनिया में बिजी थे, पापा चाहते थे, कि मैं बर्मिंघम जाऊँ, मेडिकल की पढ़ाई के लिए, रात की खाना खाते वक्त पापा ने इस बारे में बात छेड़ दी, शायद मम्मी भी यहीं चाहती थी, मैनें हामी भर दी, पापा ने सारे इन्तजाम पहले से ही कर रखे थे, कई सालों बाद मेरा आमना-सामना शर्माइन से हुआ, जिनकी वजह से मुझे बोर्डिंग स्कूल जाना पड़ा था, मुझे देखकर उन्हें यकीन ही नहीं हुआ, कि ये वहीं लड़का है, जिसने कभी इसी मोहल्ले में उधम मचाया था, घरवालों की रजा पूरी करने के लिए, बर्मिंघम के एक जाने-माने मेडिकल कॉलेज में एडमिशन ले लिया, लैब कोट पहने हुए, गले में स्टेथेकॉप टांगे हुए, कभी पेशेन्ट्स के साथ तो कभी क्लास लेने में पूरा दिन निकल जाता था, सिक्थ सेमेस्टर तक आते-आते, मैनें तय किया कि, ऑन्को सर्जरी में स्पेशलाइजेशन करूँगा, बेधड़क अपना मेण्टर चुन लिया, और लग गया पढ़ाई में, जब भी रॉयल ब्रिटिश लाइब्रेरी में जाता तो सामने बैठे, स्टीवन लैकर को देखकर सतीराम बाबू याद आ जाते थे, बर्मिंघम की सड़कों पर चलते हुए, एक अजनबीपन-सा महसूस होता था, लोगों की भीड़ इधर से उधर जाती हुई ऐसी लगती थी, मानों किसी खिलौने के शहर में आ गया हूँ, जहाँ पर मेरे आस-पास चाबी भरे, खूब सारे खिलौने चल रहे हो, जिनके चेहरे पर मुस्कान तो है, पर अपनापन नहीं, इसी भीड़ में से मेरी मुलाकात लीसा से हुई, साइकोलॉजी की स्टूडेन्ट थी, ना जाने कब हमारे बीच की डोर शादी के बन्धन में बंध गई, मम्मी-पापा को इससे कोई ऐतराज नहीं था, इग्लैंड में ही हमारी शादी करवा दी, लीसा ने धीरे-धीरे सारे भारतीय संस्कार सीख लिये, साड़ी पहनना, बड़े-बुर्जुगों के पांव छूना, सिर पर पल्लू करना वगैरह-वगैरह, हमारे घर का कोई भी, उसे एक नज़र में देखकर ये नहीं कह सकता था कि वो दूसरे देश से है, गृहस्थी के साथ-साथ हम दोनों अपने-अपने कामों में लगे रहे, लीसा हमारे हॉस्पिटल में ही एक सीनियर साइकेट्रिस्ट के अण्ड़र काम करती थी, और मेरा ज्यादातर समय प्रैक्टिस में ही गुजरता था, ऑन्को सर्जन होने के नाते, कैंसर के मरीजों की सर्जरी करता था, कैंसर के लास्ट स्टेज वाले पेशेन्ट्स मेरे हाथों में ही दम तोड़ते थे, रोते हुए लोगों को हिम्मत बन्धाता था, नाउम्मीदी से टूटते लोगों की दिलासे के साथ दवा देता था, लेकिन कही ना कही मैं इन चीजों से ऊब रहा था, इस बीच लीसा ने मुझे, जिन्दगी का सबसे नायाब तोहफा दिया, एक जीता-जागता रबड़ा का गुड्डा, यानि कि मेरा प्यारा बेटा राधावल्लभ, जब भी उसको देखता हूँ तो दिनभर की सारी थकान काफूर हो जाती है, कहीं ना कहीं मुझे ऐसा लगता था कि प्रैक्टिस से ज्यादा वक्त मुझे लीसा को देना चाहिए, अपने पेशे की वजह से मैं अपनी फैमिली पर ध्यान नहीं दे पा रहा था, अचानक ही एक दिन अनूप का मेल आया, स्कूल की रियूनियन होने वाली है, मेल पढ़ते ही मेरे जहन् में हजारों तस्वीरें गोते लगाने लगी, स्कूल का ग्राउण्ड़, आम के पेड़ों का बाग, प्रिंसिपल सर और सबसे ज्यादा बिरजू काका, मैनें भी अनूप को रियूनियन में आने की हामी भर दी, कम से कम इसी बहाने लीसा को थोड़ा वक्त दे पाऊँगा, और मुझे भी ब्रेक मिल जाएगा, इस ऊबाऊ डेली रूटीन से, इंडिया पहुँच गया, अनूप घर पर ही गया था, वो इस बात से नाराज था, मैनें उसे शादी में नहीं बुलाया, शाम की ट्रेन थी, मम्मी ने अपनी बहू के लिए पंजीरी के लड्डू सूटकेस में रख दिये, मैं लीसा राधावल्लभ और अनूप रवाना हो गये, रास्ते भर में अनूप ने हमारी कारिस्तानियों के किस्से लीसा के सुनाये, वो सुन-सुनकर हंसी से लोट-पोट हो रही थी, स्कूल पहुँचे सारे पुराने यार दोस्त मिले, मैनें सभी से लीसा को मिलवाया, सामने सतीराम बाबू खड़े थे, मैं उनके पास गया, उनके पाँव छूकर, पुरानी शरारतों के लिए माफी मांगी, प्रिसिंपल सर को बताया, कि बर्मिंघम में ऑन्को सर्जन हूँ, वो खुश हो गये, लेकिन इस भीड़ में ना जाने मेरी आँखें किसको तलाश रही थी, बिरजू काका, “कहाँ है, बिरजू काका” मैनें स्टोरकीपर से पूछा, उसने बताया कि, वो काफी समय से बीमार चल रहे है, जिला अस्पताल में भर्ती है, अगले दिन लीसा और राधावल्लभ को लेकर मैं जिला अस्पताल पहुँच गया, वो बेड पर आँखें मून्दे लेटे पड़े थे, ग्लूकोज की, बोतल की हर एक बून्द, उनकी रगों में दौड़ लगा रही थी, क्या पता जिन्दगी को कुछ देर के लिए, काका पर रहम आ जाये, पास में ही उनके गाँव के कुछ लोग खड़े थे, घेरा बनाकर, मैनें काका के पाँव छुये, उनकी आँखें खुल गई, लीसा भी पाँव छूने के लिए आगे बढ़ी, काका ने लीसा को पाँव छूने से रोक दिया, मैनें नन्हें से राधावल्लभ को उनके पाँव के पास, बेड पर रख दिया, और रूँआसी सी आव़ाज में कहा, “काका इसे आशीर्वाद दीजिए, ये भी आपकी तरह जिन्दगी में अच्छा इन्सान बन सके” काका की आँखों में आँसू आ गये, उन्होनें राधावल्लभ को गोदी में उठाया और अपने ममता भरे हाथों को राधावल्लभ के सिर पर फिराने लगे, कंपकपाती हुई आव़ाज में बोले “राम इतना सुख कैसे झेला जाता है, मुझे तो इसकी आदत भी नहीं है” इतने में ही डॉक्टर आये, कहा कि उन्हें आराम की जरूरत है, लीसा ने राधावल्लभ को गोद में उठाया, सभी लोग वहाँ से बाहर आ गये, मैं दूसरे डॉक्टर से काका की हालत के बारे में पूछ रहा था, इतने में ही मेरी नज़र लीसा पर पड़ी, वो शायद ये पूछना चाहती थी कि, अन्दर बेड पर लेटा बीमार शख्स कौन है, मैं लीसा को कैसे समझाता, वो शख्स मेरे लिए क्या है, इतनें में ही नर्स अन्दर से निकली, और कहा कि अब वो इस दुनिया में नहीं रहे, मैं रोते हुए अन्दर गया, उनका पीला पड़ा चेहरा देखा, उनके चेहरे पर अब भी वहीं जानी-पहचानी मुस्कान थी, जैसे वो अभी उठ खड़े होगें, और कहेगें कि “आज हमारे साथ भोजन करना होगा”
कुछ ऐसे थे, हमारे बिरजू काका……………………………………………………………………..बस इतनी सी थी ये कहानी
– राम अजोर
एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर एवं सह संपादक ट्रेन्डी न्यूज़