बेहतर होगा कि इस मुल्क को छोड़ दिया जाये। मैं बहुत दुखी हूँ। मेरा मानना है कि मुझे इस कोर्ट में काम नहीं करना चाहिए। ये लफ़्ज है सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की सर्वोच्च बेंच पर बैठे जज़ के। अगर सुप्रीम कोर्ट और साधारण नागरिकों का इस मसले पर एक जैसा ही सोचना है तो, मान लीजिए हालात वाकई गंभीर है। बेशक भारतीय लोकतन्त्र के चार खम्भें में से तीन बुरी तरह खोखले हो चुके है। इनमें विधायिका कार्यपालिका और मीडिया शामिल है। ये सभी लालच में डूबे हुए खुद के बारे में सोचते रहते है और साथ ही हरपल देश की रीढ़ तोड़ने में लगे हुए है। एकमात्र उम्मीद की रोशनी न्यायपालिका की ओर से आती थी, वो भी अब धूमिल होती जा रही है। लोकतन्त्र का ये स्तम्भ जर्जर हो चुका है और साथ ही गिरने का कगार पर है। व्यवस्था में बैठी जोकें लोगों में खाने के लिए अधिकार परोस रही है। और सबसे बदतर हालात तो ये है कि इन सब खराब कामों की पीछे हम जैसे नागरिकों की रज़ामंदी छिपी है कि हम इन जोकों को ये खतरनाक खेल खेलने की इज़ाजत दे रहे है। जिसकी वज़ह से लोकतान्त्रिक संरचना कैंसरग्रस्त होती जा रही है साथ ही अधिनायकवाद और फासीवाद के नये तौर-तरीके पनप रहे है। अगर उभर रही इस तस्वीर पर ध्यान नहीं दिया गया तो,सबसे बुरे हालात आने वाली नस्लों के लिए बनेगें। इसलिए जागिये, कहीं बहुत देर ना हो जाये। हम राजनीति में बदलाव नहीं चाहते है लेकिन व्यवस्था का कायापलट हो, ये वक़्त का तकाज़ा है।
Supreme Court Judge: बेहतर होगा कि इस मुल्क को छोड़ दिया जाये
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