मीडिया तालिबान (Taliban) का पीछा नही छोड़ रही और उधर मोदी सरकार अभी तक सबसे कठिन समय को झेल रही है क्योंकि देश के 2200 करोड़ बचाने है या फिर तालिबान को मान्यता नहीं देनी है में से एक को चुनना है। इसलिए कठिन समय मे थोड़ा रिलेक्स महसूस करने के लिये सर्वदलीय बैठक बुलाई है।
अफगानिस्तान के लोगों की चिंता के आधार पर निर्णय लेना बेकार बात है, क्योंकि ये तालिबानी आफत बिना अफगानिस्तान की जनता के समर्थन के एकाएक प्रकट नहीं हो सकती है। वास्तव में अमरीका को कुछ भी कह लीजिये लेकिन अमरीका अफगानिस्तान (Afghanistan affairs) मामले में एक तरह से विक्टिम था, वो फँस गया था क्योंकि वो अफगानिस्तान की जनता को विकसित बनाने की कोशिश कर रहा तब उसने जो निर्णय लिया वो सर्वोत्तम था, उसे करीब 5 साल पहले ही निर्णय लेकर निकल जाना चाहिये था।
इसका कारण ये है कि अमरीका ने एक कट्टरवादी सोच (Fundamentalist Thinking) वाले देश की जनता को आधुनिक बनाने के लिए इतना ज्यादा पैसा खर्च किया, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। अफगानिस्तान में कोई तेल का खजाना नहीं था जिसे लूटने अमरीका आया, लादेन अगर अगर अमरीका में बिल्डिंग पर हमले न करवाता तो अमरीका अफगानिस्तान आता भी नहीं। लादेन के हमले से उसकी छवि पर बात आयी तो उसे कायम करने के लिए अफगानिस्तान आया।
अफगानिस्तान की बर्बादी राजनीतिक तौर पर सोवियत संघ (The Soviet Union) ने शुरू की। अमरीका ने लाभ उठाया, तालिबान खड़ा किया, अब तालिबान कैसे खड़ा किया, क्योंकि वहां की जनता ऐसे किसी संगठन को चाहती थी जो शरीयत (Sharia) लागू करे। अमरीका के उद्देश्य सोवियत संघ को खत्म करना था। बाद में तालिबान आया वो राज करता रहता अगर वो अरब देशों की सहायता प्राप्त करने के लालच में लादेन को स्वीकार न करता और लादेन अमरीका में हमले न करवाता।
सीधी सी बात है। अमरीका किसी से डरकर नहीं भाग रहा बल्कि इसे देखकर भाग रहा है कि जिस देश की जनता को धार्मिक कट्टरता से निकालने में 20 साल लग दिया। जिससे वो शेष दुनिया की तरह तरक्की कर सके, साढ़े तीन लाख सैनिकों और डेढ़ लाख पुलिस वालों की तनख्वाह 20 साल से दे रहा है, शेष अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण कर रहा है, वहां जनता फिर से कट्टरवादी इस्लाम लागू करवाने में रुचि रखती है। इसलिए अमरीका थककर ये देखकर की अगले 100 साल भी वो पैसे देता रहेगा कोई लाभ नही होगा क्योंकि अफगानिस्तान की जनता धार्मिक कट्टरवाद (Religious Fundamentalism) को हर हाल में स्वीकार करती रहेगी। 21वीं सदी की जगह असभ्य काल मे जाकर रहेगी के बाद अमरीका बोरियां बिस्तर बांधकर खिसक लिया है।
इसलिए भारत सरकार को केवल दो ऑप्शन पर सोचना चाहिये कि या तो दूसरे देशों के निर्णयों को देखने के लिए समय ले या तालिबान को मान्यता दे दे क्योंकि इससे 22000 हजार करोड़ भारत का रुपया तो बच जायेगा लेकिन अफगानिस्तान की जनता को देखकर निर्णय न ले क्योंकि वहां की जनता कट्टरवादी शरीयत का शुरू से समर्थन करती है। इसलिए तालिबान अफगानिस्तान के गांवों में 4 सालों से पकड़ बना चुका था, काबुल के बाहरी गांवो में 3 सालों से जनता के समर्थन से जमा हुआ था, इसलिए एक झटके में काबुल पर कब्जा कर लिया गया।
अब कोई देश की जनता स्वयं जब धर्म के कट्टरवादी रूप को देखना चाहती है स्वीकार करती है तो काहे उनकी चिंता करे। अपने 2200 करोड़ की चिंता करे। लेकिन इसका ये मतलब नही की भारत में जो तालिबान जिंदाबाद कर रहे है उन्हें स्वीकार करे उनपर नजर रखे क्योंकि ये लोग "लोकतंत्र की जगह बंदूक की नोंक पर सत्ता हथियाने" पर विश्वास करते है।