
बहुत ही जानी-मानी कहावत है जियो और जीने दो। लेकिन व्यवस्था में बैठे लोगों का मानना है ना ही जियेगें और ना ही जीने देगें। ये बजट उन लोगों के लिए करारा झटका लाया है, जो पहले टैक्स के दायरे में नहीं आते थे। पहले प्रशासनिक लूट देश के भीतर रहने वालों लोगों से की जाती थी मुल्क दिवालिया होने के बाद, अब सरकार ने नज़र उन लोगों की ओर आंखे जमा ली है जो देश से बाहर रहते है। वो लोग किसी भी टैक्स फ्री नेशन में रहे और कमायी करे, लेकिन हिन्दुस्तानी हुकूमत को भारी टैक्स का भुगतान करते रहे। ये कवायद ठीक ऐसी ही है जैसे कैंसर शरीर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में फैलता है। बजट के नाम पर सत्ताधारी दल सदन में चुनावी घोषणापत्र पढ़ता है। इसमें बड़ी-बड़ी की गयी लेकिन इस बात का जिक्र नहीं किया गया आखिर इसे अमली जामा कैसे पहनाया जायेगा। ऐसे में दो ही सूरत बचती है पहली विदेशी निवेशकों को एफडीआई के नाम फ्लॉप एजेंडे का लॉलीपॉप थमाया जायेगा या फिर किसी नये सियासी फिरके तहत आव़ाम की जेब से ही पैसे निकलवाये जायेगें। बीते 70 सालों से प्रशासनिक जोकों ने गरीबी, भुखमरी आदि का खूब ढ़ोल पीटा है। लेकिन दूसरी ओर दिन-ब-दिन एक नया भारत उभरकर सामने आ रहा है। जहाँ गरीबी, बेरोजगारी और आर्थिक-सामाजिक विषमतायें सुरसा की तरह मुँह बायें खड़ी है। जो इन मुद्दों लेकर सवाल उठाता है, उसे देशद्रोही करार दे दिया जाता है। इन सबके अलावा सीएए के नाम पर दूसरे देशों शरणार्थियों के लिए मुल्क के दरवाज़े खोल दिये जाते है। देश की एक बड़ी आबादी रोज भूखे पेट सोने को मजबूर है, ऐसे में इन लोगों का पेट कैसे भरा जायेगा। बेशक इन बाहरी लोगों का पेट सत्ता की जोकों भरेगी वोट बैंक की खातिर। हम लोग तो सिर्फ दोयम दर्जे की आवाम है जो विकास के नाम धार्मिक उन्माद के नशे में चूर है और इसी की मदहोशी में डूबे हुए है। ये बेहद गंभीर और शर्मनाक मसला है।