Dal Baati and Churma: बाटी राजस्थान का पारंपरिक व्यंजन हैं। इसका इतिहास करीब 1300 साल पुराना है। 8वीं सदी में राजस्थान में बप्पा रावल (Bappa Rawal) ने मेवाड़ राजवंश की शुरुआत की। बप्पा रावल को मेवाड़ राजवंश (Mewar Dynasty) का संस्थापक भी कहा जाता है। इस समय राजपूत सरदार अपने राज्यों का विस्तार कर रहे थे। इसके लिये अक्सर युद्ध भी होते थे।
इस दौरान ही बाटी बनने की शुरुआत हुई। दरअसल जंग के वक्त हजारों सैनिकों के लिये खाने का बंदोबस्त करना काफी मुश्किल काम होता था। कई बार सिपाही भूखे ही रह जाते थे। ऐसे ही एक बार एक सिपाही ने सुबह रोटी के लिये आटा गूंथा, लेकिन रोटी बनने से पहले जंग की घड़ी आ गयी और सैनिक आटे की लोइयां रेगिस्तान की तपती रेत पर छोड़कर जंगी मैदान में चले गये। शाम को जब वो लौटे तो लोइयां गर्म रेत में दब चुकी थीं, जब उन्हें रेत से बाहर से निकाला तो दिनभर सूरज और रेत की तपन से वो पूरी तरह सिंक चुकी थी। थककर चूर हो चुके सैनिकों ने इसे खाकर देखा तो ये बेहद लज़्जतदार लगी। इसे पूरी फौज ने आपस में बांटकर खाया। बस यहीं इसका खोज हुई और नाम मिला बाटी।
इसके बाद बाटी जंगी दौरान खाया जाने वाला पसंदीदा खाना बन गयी। अब रोज सुबह सैनिक आटे की गोलियां बनाकर रेत में दबाकर चले जाते और शाम को लौटकर उन्हें चटनी, अचार, ऊंटनी और बकरी के दूध से बने दही के साथ खाते। इस खाने से उन्हें ताकत भी मिलती और वक्त भी बचता। इसके बाद धीरे-धीरे ये पकवान पूरी रियासत में मशहूर हो गया और ये कंडों पर बनने लगा।
अकबर (Akbar) के राजस्थान में आने की वजह से बाटी मुगल साम्राज्य (Mughal Empire) तक भी पहुंच गई। मुगल खानसामे बाटी को बाफकर (उबालकर) बनाने लगे। इसे नाम दिया बाफला। इसके बाद ये पकवान देशभर में मशहूर हुआ और आज भी है और ये कई तरीकों से बनाया जाता है।
अब बात करते हैं दाल की। दक्षिण के कुछ व्यापारी मेवाड़ में रहने आये तो उन्होंने बाटी को दाल के साथ चूरकर खाना शुरू किया। ये जायका भी एकाएक मशहूर हो गया और आज भी दाल बाटी का चोली दामन का साथ बना हुआ है। उस दौरान पंचमेर दाल खाई जाती थी। ये पांच तरह की दाल चना, मूंग, उड़द, तुअर और मसूर से मिलकर बनाई जाती थी। इसमें सरसों के तेल या घी में तेज मसालों का तड़का होता था।
अब चूरमा की बारी आती है। ये मीठा पकवान अनजाने में ही बन गया। दरअसल एक बार मेवाड़ के गुहिलोत कबीले (Guhilot clan) के रसोइये के हाथ से छूटकर बाटियां गन्ने के रस में गिर गयी। इससे बाटी नरम हो गयी और जायेकदार भी। इसके बाद से इसे गन्ने के रस में डुबोकर बनाया जाना लगा। मिश्री, इलायची और ढेर सारा घी भी इसमें डाला जाने लगा। बाटी को चूरकर बनाने की वज़ह से इसका नाम चूरमा पड़ा।