Political Gimmick In Pakistan: इतिहास खुद को दोहराता है और पाकिस्तान कोई अपवाद नहीं है। आज तक पाकिस्तान का कोई भी प्रधानमंत्री कार्यालय में अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। इमरान खान के साथ भी ऐसा ही होना था, जिन्होंने विपक्षी दलों द्वारा पेश किये गये अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग के बिना संसद को भंग कर दिया।
हमारे पश्चिमी पड़ोसी देश से आयी ये खब़र किसी तरह भी अप्रत्याशित नहीं थी। जिस देश में सत्ता के स्तंभों द्वारा अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए नियमों को तोड़ा, घुमाया और गलत इस्तेमाल किया जाता है, वहां इसकी उम्मीद और इसका होना लाज़िमी है। इस तरह के संवैधानिक संकट नये नहीं हैं और इस तरह की सियासी रवायत को पाकिस्तान नेशनल असेंबली (National Assembly) के हरेक कार्यकाल के साथ दोहराया जाता है
इमरान खान के इस कदम ने देश को अनिश्चित भविष्य के चौराहे पर ला खड़ा कर दिया है और सबसे बड़ा सवाल ये है कि “अब क्या होगा?” प्रधानमंत्री इमरान ने जिस तरह से गलत तरीके से राजनयिक दांव खेला और अपनी आव़ाम को ये बताया कि पाकिस्तान में विदेशी बंटवारापरस्त ताकतें मुल्क को तोड़ रही है, वो बेहद ही मनोरंजक प्रस्तुति थी। इसके अलावा कथित अमेरिकी खत पर ज़ुबानी हमला किया। उसे हथियार बनाते हुए बचने की कोशिश की लेकिन कुछ काम ना आया। पीटीआई (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी) के मंत्री के मौखिक बयान के आधार पर सदन के अध्यक्ष ने इसे अपने संविधान के अनुच्छेद 5 का उल्लंघन करार दिया और अविश्वास प्रस्ताव को घोषित कर दिया अवैध। इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता। हालाँकि विपक्ष इस मामले को पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय में ले जा रहा है, लेकिन पाकिस्तान की न्यायपालिका और इतिहास को जानकर कोई भी ये सुनिश्चित कर सकता है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय में कुछ भी नहीं होने वाला है।
इससे हम सीधे तौर पर आगे की कार्रवाई का अनुमान लगा सकते हैं। जैसे-जैसे देश नये चुनावों की ओर बढ़ेगा, जिसकी घोषणा अगले 90 दिनों में होने जा रही है, इमरान खान को सत्ता से खेलने के लिये कुछ महीनों का और सियासी पट्टा मिलने जा रहा है, जब तक कि पाकिस्तान में नई सरकार का चयन नहीं हो जाता और ये सिलसिला बदस्तूर चलता रहेगा। हां, हम ‘चयनित’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि पाकिस्तान में सरकारें चुनी नहीं जाती हैं, उन्हें पाकिस्तानी सेना द्वारा चुना जाता है।
जैसा कि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने जा रही है, इमरान खान अपने दबदबे का इस्तेमाल विपक्षी नेताओं के खिलाफ फर्जी बयानबाजी करने के लिए करेंगे, जिसे पाकिस्तानी सेना का समर्थन हासिल है। फि सत्ता की सीट पर अपनी पसंद के किसी शख़्स को चुनने के लिये पाकिस्तानी सेना एक बार फिर चुनावों को प्रभावित करेगी (जिस तरह से वो पिछले सात दशकों से ऐसा करती आयी हैं)। निश्चित तौर पर वो शख्स इमरान खान नहीं होगा क्योंकि उसने देश के सामने अपनी साख खो दी है। और उसके बाद ये चुना हुआ शख़्स पाकिस्तान के मौजूदा हालातों के लिये पिछली सभी सरकारों को दोष देना शुरू कर देगा और खुद मुल्क का सबसे बड़ा खैरख़्वाह साबित करेगा। इस दौरान पाकिस्तान के आम व्यक्ति को नुकसान होता रहेगा, ‘फौजी’ जनरलों की अगुवाई वाले बड़े बड़े बिजनेस पाकिस्तान के पैसों को चूसते रहेगें।
अब जबकि हम राजनीतिक हालतों के बारे में बात करेंगे तो पहले हमें पाकिस्तान की सत्ता के चार स्तंभों को समझना होगा। इन्हीं चारों खंभों पर पाकिस्तान की खोखली इस्लामी जम्हूरियत का दरोमदार टिका हुआ है।
पाकिस्तान में सत्ता का पहला और सबसे अहम स्तंभ उसकी सेना है और देश में सबसे शक्तिशाली शख़्स सेना प्रमुख है, जिसकी ताकत पाकिस्तान के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और मुख्य न्यायाधीश से ज़्यादा हैं। दिलचस्प बात ये है कि देश में उनकी ताकत को चुनौती देने वाला कोई नहीं है और ऐसा करने की सोचने वाले का वजूद चुटकियां में खत्म कर दिया जाता है। यानि कि फौज मुखालफत करने वाले शख़्स पर्दें से ही गायब हो जाता है। पाकिस्तानी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस के पास देश के राजनीतिक हालातों को संभालने और मैनेज करने के लिये अलग से एक पूरा डिपार्टमेंट बनाया गया है। पाकिस्तानी सेना हर बात ऐसे नेता की तलाश में रहती है, जो उनके इशारे पर नाचें।
मुल्क में लोकतंत्र की बात करने वाला कोई है तो उसके साथ अलग से खास तरीके का सलूक किया जाता है। हमारे पास पूर्व प्रधान मंत्री बेनजीर भुट्टो (Benazir Bhutto) समेत कई सियासी शख़्सियतों की मिसालें है, जिन्हें बेरहमी से मार दिया गया था और हम अच्छी तरह से जानते हैं कि ये पाकिस्तान की सेना थी जिसने साल 2018 में चुनावों में धांधली की थी और उन्होनें इमरान खान को सत्ता ही। आने वाले वक़्त में भी सेना एक बार फिर ऐसा ही करने वाली है।
पाकिस्तान को सभी आतंकी संगठनों की माँ कहा जा सकता है। अल-कायदा (Al Qaeda) हो, इस्लामिक स्टेट हो या कोई अन्य क्रूर आतंकी संगठन इन सबकी जड़े पाकिस्तान से ही जुड़ी हुई है। ये आतंकी गुट विभिन्न इस्लामिक धार्मिक संगठनों के समर्थन में बनते हैं और इनकी पूरी फंडिंग इन इस्लामिक संगठनों के बड़े नेटवर्क के जरिये होती है। बीते पांच दशकों में देश के सियासी गलियारों में इन अतिवादी धार्मिक गुटों (Extremist Religious Groups) का असर कई गुना बढ़ गया है। इतना कि वो पाकिस्तान सरकार के दूसरे सबसे शक्तिशाली स्तंभ बन गये। वो जब भी चाहें देश को घुटनों पर लाने की कुव्वत रखते हैं और इसलिये राजनीतिक नेताओं को उनकी धुन पर नाचने को मजबूर होना पड़ता है।
पाकिस्तान में नौकरशाही भले ही ज्यादा दिखाई ना दे लेकिन ये बहुत मजबूत हैं। पाकिस्तानी हुक्मरान ये अच्छी तरह समझते हैं कि पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता का देश है और इसलिये उन्हें अपनी राजनीतिक रूप से चुनी हुई सरकारों के प्रति तटस्थ रहना चाहिये। हालाँकि पाकिस्तानी सेना के साथ उनके करीबी तालुक्कात कोई रहस्य नहीं हैं। हालांकि वरिष्ठ नौकरशाही पदों पर बैठे लोगों भारी तादाद पाक सेना के अधिकारियों की है। फिर भी नागरिक व्यवस्था पाकिस्तानी सेना के साथ हाथ मिलाकर काम करती है। भले ही वो चुनाव, जनगणना, जांच या नागरिक प्राधिकरण को कोई अन्य प्रशासनिक अमला हो, पाकिस्तानी सेना को इसका हिस्सा बनाया जाता है और नौकरशाही सत्ता का सुख बेरोकटोक भोगती रहती है। नौकरशाह अपने सैन्य आकाओं को खुश रखकर बड़े पदों पर कायम रहते हैं।
पाकिस्तान में सत्ता का चौथा स्तंभ है और वो है सेवानिवृत्त अधिकारियों का बल। ये नियमित पाकिस्तानी सेना के उलट सत्ता में हैं और सरकार के फैसलों को ये लोग सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। ये कड़वा सच है कि पाकिस्तान की 60% से ज़्यादा अर्थव्यवस्था इन सेवानिवृत्त अधिकारियों के मालिकाना हक़ वाले या उनके द्वारा चलाये जा रहे कारोबार से बनती है। ये लोग विनिर्माण, सेवा क्षेत्र, सूचना प्रौद्योगिकी, विमानन, फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स, पर्यटन, मीडिया और एग्रीकल्चर हर जगह घुसे हुए है। अगर पाकिस्तान को टॉप-10 कारोबार या टॉप-10 पब्लिक इंटरप्राइजेज को देखा जाये तो साफ होता है कि इन्हे पाकिस्तानी सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी चला रहे है। देश की अर्थव्यवस्था और कारोबार से जुड़े सभी सरकारी फैसले इनकी सहमति के बिना नहीं लिये जा सकते हैं और ये अपने आप में कड़वा सच है।
राजनीतिक दल, राजनीतिक नेतृत्व, सामाजिक संगठन, मीडिया और पत्रकारिता और यहां तक कि न्यायपालिका भी पाकिस्तान में सत्ता के शीर्ष 4 स्तंभों में शामिल नहीं हैं। जिस देश में जजों की निर्मम हत्या कर दी जाती है, पत्रकारों को हमेशा के लिये गायब कर दिया जाता है और नेताओं की हत्या कर दी जाती है, कोई भी वहां का भविष्य आसानी से समझ सकता है।
पिछले कुछ महीनों से पाकिस्तान से आ रही खब़रों की बयार ने राजनीतिक उथल-पुथल का साफ इशारा दे दिया था कि इमरान खान के खिलाफ विपक्ष एकजुट हो रहा है और उन्होंने सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये बहुमत भी हासिल किया है। अगर पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के माध्यम से अविश्वास प्रस्ताव पारित किया गया होता तो पीएमएल-एन की अगुवाई वाली विपक्षी सरकार सत्ता में होती, लेकिन जिस तरह से मरियम नवाज (Maryam Nawaz) और बिलावल भुट्टो (Bilaval Bhutto) जैसे विपक्षी नेता पाकिस्तानी सेना और जनरल बाजवा (General Bajwa) के खिलाफ मुखर थे, चीजें ऐसी नहीं थीं। ये पाकिस्तानी सेना और उसके हितों के लिये अप्रत्यक्ष खतरा पैदा कर सकता है। बाजवा और आईएसआई (ISI) प्रमुख दोनों ने ऐसा कभी नहीं चाहा और इसलिए ये पूरा मामला इमरान खान के साथ उनकी कई बैठकों के बाद रचा गया।