बहुत ही दिलचस्प वाकया है…. आठ साल पहले Pankaj Srivastava ने सुनाया था। हंगरी (Hungary) के जाने माने व्यंग्यकार और नाटककार लात्सलो ताबी का एक छोटा सा किस्सा । अनुवाद कवि और लेखक, स्मृतिशेष नीलाभ का है। गौर फरमाएँ—
……………………………………………….
“महाशय, अगर मैं आपसे पूछूँ कि बताइए, दो दूनी कितना होता है, तो आप क्या कहेंगे ?”
“मैं कहूँगा चार होता है। दो दूनी चार।”
“आपको इसका पूरा विश्वास है न?”
“ बिल्कुल। मैं जान की बाजी लगाने के लिए तैयार हूँ।”
“ठीक। तब मेरा अनुरोध है कि इसे लिखकर मुझे दे दीजिए ।”
“क्या लिखकर दे दूँ?”
“यही कि दो दूनी चार होता है। कागज के टुकड़े पर लिख दीजिए कि ‘मेरे ख्याल से दो-दूनी चार होता है।’ फिर उस पर हस्ताक्षर करके तारीख डाल दीजिए। ये लीजिए मेरी नोटबुक (Notebook) का पन्ना हाजिर है…..”
“यह तुम्हें क्यों चाहिए?”
“मुझे इस तरह की दिलचस्प चीजें इकट्ठा करने का शौक है।”
“तो ऐसा करना बंद कर दो।”
“क्यों भला ? निश्चय ही आप मेरे अनुरोध को नहीं ठुकरायेंगे?
“माफ करना, तुम्हारा अनुरोध बेवकूफाना है। लोग इस तरह की चीजें नहीं इकट्ठा करते। खैर, जो भी हो, मेरे पास यहाँ कोई चीज नहीं, जिससे लिख सकूँ।”
“ यह लीजिए,यह रहा मेरी कलम।”
“मैं दूसरों की कलम नहीं छूता। क्या पता कोई बीमारी लग जाए ।”
“तो मैं इस पुर्जे के लिए शाम को आपके घर आ जाऊँगा।”
“शाम को मैं नाटक देखने जा रहा हूँ ।”
“तो कल सुबह आ जाऊँ ?”
“अगर तुम सुबह के समय आये तो मैं धक्के मार कर निकाल दूँगा ।”
“लेकिन आपको एतराज क्या है ? जब आप जान की बाजी लगाने को तैयार हैं तो कि दो दूनी चार होता है। यह कहा था न आपने ?”
“तब उसी से काम चलाओ। मैं लिखकर नहीं दूँगा। समझे। क्या भरोसा एक रोज तुम इसे किसी को दिखा न दोगे ।”
“दिखा भी दूँगा तो क्या ? क्या आपको यकीन नहीं कि दो दूनी हमेशा चार ही होगा ?”
“ इसमें मुझे रत्ती भर भी शक नहीं । ”
“तब?”
“ तब भी। देखो भाई, मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूँ और मैंने कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया।”
“अरे इसका राजनीति से क्या लेना-देना ?”
“यह मुझे नहीं मालूम। लेकिन बच कर चलना ही बेहतर है। मैं नहीं चाहता कि कल को मुझे कोई इसलिए भला-बुरा कहे कि मैंने यह बात लिखकर तुम्हें दे दी है।”
“ किसी को कानों—कान खबर नहीं होगी। मैं आज रात को ही इस कागज को ताले-चाभी में बंद कर दूँगा।”
“ और अगर किसी ने तुम्हारे घर में सेंध लगा दी, तब ? तब तो मैं अच्छी-खासी मुसीबत में फँस जाऊँगा। ”
“ अगर कोई मेरे घर में सेंध लगा भी दे तो क्या इससे दो-दूनी चार होना बंद हो जाएगा। ”
“ मेरी जान खाना छोड़ो। मैं इसे लिख कर तुम्हें नहीं दूँगा और इससे आगे कोई बात नहीं हो सकती।”
“ सुनिए, मुझे एक ख्याल आया है। मैं भी आपको एक कागज पर लिखकर दे दूँगा कि दो दूनी चार होता है। उस हालत में आप पर कोई खतरा नहीं होगा।”
“ इसकी जरूरत नहीं। हाँ, अगर तुम चाहो तो मैं यह लिखने को तैयार हूँ कि आजकल, आमतौर पर, सामान्य विश्वास (General belief) के अनुसार ज्यादातर यही माना जाता है कि दो-दूनी तकरीबन चार होता है। इससे काम चलेगा ?”
“नहीं।”
“ तब दफा हो जाओ यहां से।”
“ठीक है। लेकिन इतना जान लीजिए कि मैं हर जगह यही कहता फिरूँगा कि आपके मुताबिक दो-दूनी चार होता है।”
“कहते फिरो। मैं साफ मुकर जाऊँगा।”
साभार – स्वर्गीय नीलाभ, पंंकज श्रीवास्तव एवं दिगम्बर