भारतीय वायुसेना (Indian Air Force) के स्क्वाड्रन लीडर कंवलजीत मेहरा (Squadron Leader Kanwaljit Mehra) एक तालाब में पाइप के सहारे 5 दिन तक तालाब में छुपे रहे और पाकिस्तानी सेना उन्हें खोज नहीं सकी। चार दिसंबर 1971 की सुबह दमदम हवाई ठिकाने से उड़े 14 स्क्वाड्रन के दो हंटर विमानों (Hunter Planes) ने ढाका के तेज़गाँव एयरपोर्ट पर हमला किया।
एक हंटर विमान पर सवार थे- स्क्वाड्रन लीडर कंवलदीप मेहरा और दूसरे हंटर को उड़ा रहे थे- उनके नंबर दो फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट संतोष मोने (Lt. Santosh Mone)। जब वो तेज़गाँव एयरपोर्ट के ऊपर से उड़े तो उन्हें पाकिस्तानी लड़ाकू विमान दिखाई नहीं दिए, क्योंकि पाकिस्तानियों ने उन्हें चारों तरफ़ छितरा रखा था। कुछ दूसरे ठिकानों पर बम गिराने के बाद जब मेहरा और मोने लौटने लगे तो एक दूसरे से अलग हो गये।
सबसे पहले मोने की नज़र कुछ दूरी पर पाकिस्तान के दो सेबर जेट विमानों (Saber Jets) पर पड़ी। कुछ ही सेकेंड के अंदर दो सेबर जेट विमान दोनों भारतीय हंटर विमानों के पीछे पड़ गये। अचानक मेहरा ने महसूस किया कि एक सेबर जेट विमान उनके पीछे आ रहा है।
मेहरा ने बाईं ओर मुड़कर मोने से उनकी पोज़ीशन के बारे में पूछा। मोने से उनको कोई जवाब नहीं मिला। सेबर ने मेहरा के हंटर पर लगातार कई फ़ायर किये। मेहरा ने मोने से कहा कि वो सेबर पर पीछे से फ़ायर करें ताकि उससे उनका पीछा छूटे लेकिन मेहरा को इसका अंदाज़ा नहीं था कि मोने के हंटर के पीछे भी एक और सेबर लगा हुआ था।
उस समय मोने के हंटर की रफ्तार थी 360 नॉट्स यानि कि 414 किलोमीटर प्रतिघंटा। मोने अपने विमान को बहुत नीचे ले आये और दमदम की ओर पूरी ताक़त से उड़ने लगे। पाकिस्तानी पायलट उन पर लगातार फ़ायर करता रहा, लेकिन उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाया।
हालांकि कंवलदीप मेहरा उतने भाग्यशाली नहीं थे उनके हंटर पर फ़्लाइंग ऑफिसर शम्सुल हक़ (Flying Officer Shamsul Haque) की गोलियाँ लगातार लग रही थीं। वो 100 फ़ीट की ऊँचाई पर उड़ रहे थे और उनके जहाज़ में आग लग चुकी थी। तभी पीछे आ रहा सेबर मेहरा के हंटर को ओवरशॉट करता हुआ आगे निकल गया। मेहरा उस पर निशाना चाहते थे, लेकिन लगा नहीं पाये क्योंकि उनके कॉकपिट में धुआं भर चुका था और उन्हें साँस लेने में दिक्क़त हो रही थी। धीरे-धीरे आग उनके कॉकपिट तक पहुँचने लगी।
'मेहरा ने बिना कोई देर किये अपने पैरों के बीच के इजेक्ट बटन को दबाया लेकिन एक माइक्रोसेकेंड में खुलने वाला पैराशूट खुला ही नहीं। विमान के ऊपर लगने वाली केनॉपी ज़रूर अलग हो गयी। नतीजा ये हुआ कि इतनी रफ्तार से हवा का तेज़ झोंका आया कि मेहरा के ग्लव्स और घड़ी टूटकर हवा में उड़ गये। यहीं नहीं उनका दाहिना हाथ इतनी तेज़ी से पीछे मुड़ा कि उनका कंधा उखड़ गया।
बुरी तरह से घायल मेहरा ने किसी तरह अपने बायें हाथ से पैराशूट का लीवर फिर दबाया। इस बार पैराशूट खुल गया और मेहरा हवा में उड़ते चले गये। मेहरा के नीचे गिरते ही बंगाली ग्रामीणों ने उन्हें लाठी और डंडों से पीटना शुरू कर दिया। शुक्र ये रहा कि दो लोगों ने भीड़ को रोककर मेहरा से उनकी पहचान पूछी। मेहरा की सिगरेट और पहचान पत्र से पता चला कि वो भारतीय हैं। मेहरा भाग्यशाली थे कि वो मुक्ति बाहिनी (Mukti Bahini) के लड़ाकों के बीच गिरे थे।
गाँव वालों ने मेहरा को उठाया। उनके कपड़े बदलकर उन्हें लुंगी पहनने को दी। एक मुक्ति वाहिनी योद्धा ने उनकी पिस्टल उनसे ले ली। उसका मुमकिन तौर पर कहीं बाद में इस्तेमाल किया गया। मेहरा इतना घायल हो चुके थे कि वो अपने पैरों पर चल नहीं सकते थे। उनको स्ट्रेचर पर लिटाकर पास के एक गाँव ले जाया गया लेकिन रास्ते में ही मेहरा फिर बेहोश हो गये।
गाँव पहुंचकर गाँव वालों ने मेहरा को नाश्ता दिया। ये उनका दिन का पहला खाना था, क्योंकि मेहरा सुबह-सुबह ही अपने विमान से हमला करने के लिये निकल चुके थे। जब कुछ दिनों तक भारतीय वायुसेना को मेहरा की ख़बर नहीं मिली तो उन्हें 'मिसिंग इन एक्शन' घोषित कर दिया गया।
बाद में पाकिस्तानी फ़्लाइंग ऑफ़िसर शम्सुल हक़ को पाकिस्तान की मीडिया और पाकिस्तान की सेना द्वारा ये कह कर सम्मानित किया गया कि इन्होने भारत के एक बहुत बड़े हवाई सेना अधिकारी यानि स्क्वाड्रन लीडर को उसके विमान सहित मार गिराया। दरअसल हुआ ये था कि मेहरा का इमरजेंसी इंजैक्ट काफी देर बाद हुआ था। इसलिए पाकिस्तानी पायलट को ये लगा कि मेहरा मारे गये।
इस घटना के नौ दिन बाद अगरतला क्षेत्र के सीमांत इलाके के एक हैलिपैड पर भारतीय हैलिकॉप्टर ने लैंड किया। उस हैलिकॉप्टर में भारतीय सेना के एक जनरल बैठे हुए थे। जनरल के हैलिकॉप्टर से उतरने के बाद स्थानीय एयरमैन उस हैलिकॉप्टर की सर्विस कर रहे थे, जबकि उसके पायलट आपस में बात कर रहे थे।
वहां किसी का ध्यान उस ओर नहीं गया कि वहाँ एक कमीज़ और लुंगी पहने एक दुबला-पतला व्यक्ति सामने आया। उनका दाहिना हाथ एक स्लिंग में बँधा हुआ था। उनकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और उनके पूरे चेहरे पर चोट के निशान थे। उनकी बाँह नीली पड़ चुकी थी और उसमें गैंगरीन की शुरुआत हो चुकी थी। एक नज़र में वो शख़्स उन शरणार्थियों जैसा दिखाई देता था, जो उन दिनों पूरे अगरतला में फैले हुए थे।
एयरफ़ोर्स के पायलटों को उस समय बहुत अचंभा हुआ, जब उस शख़्स ने ज़ोर से पुकारा 'मामा' ये उनमें से एक का निकनेम वाकई 'मामा' था लेकिन भारत के कई इलाकों में लोग इस शब्द का संबोधन के तौर पर भी इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने सोचा कि शायद कोई उसी अंदाज़ में उन्हें पुकार रहा है। वैसे भी वो नहीं चाहते थे कि युद्ध के दौरान कोई भिखारी उन्हें तंग करे। इसलिए उनसे पिंड छुड़ाने के लिये उसने बहुत रुखेपन से पूछा, 'क्या है?'
पीवीएस जगनमोहन और समीर चोपड़ा लिखते हैं, ''उस शख़्स ने पायलट का हाथ पकड़कर कहा, 'अरे कुछ तो पहचानो.' पायलट ने अशिष्टतापूर्वक अपना हाथ खींच कर कहा 'मुझे मत छुओ.' तब उस अजनबी ने पूछा 'क्या तुम्हारा केडी नाम का कोई दोस्त है?' पायलट ने जवाब दिया 'हाँ स्क्वाड्रन लीडर केडी मेहरा लेकिन वो तो मर गये' उस शख़्स ने जवाब दिया, 'नहीं वो मैं हूँ.' तब जाकर पायलट को अहसास हुआ कि उनके सामने भिखारी जैसा दिखने वाला शख़्स और कोई नहीं स्क्वाड्रन लीडर केडी मेहरा ही हैं, जिनके विमान को आठ दिन पहले ढाका के पास मार गिराया गया था। केडी मेहरा 'मिसिंग इन एक्शन' थे और उन्हें मरा हुआ मान लिया गया था। मुक्ति वाहिनी की मदद से मेहरा करीब 100 मील का रास्ता चलते हुए उस जगह पहुंचे थे''
4 दिसंबर को मेहरा का विमान गिरने के बाद मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने उनकी देखभाल की थी। उन्होंने उन्हें खाना दिया था। उनकी चोट पर पट्टी बाँधी और उनकी पूरी तीमारदारी की थी। मुक्ति बाहिनी के एक युवा सैनिक शुएब ने मेहरा को लुंगी और कमीज़ पहनाकर भारतीय ठिकाने तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया था। इससे पहले उन्होंने उनके फ़्लाइंग सूट और भारतीय वायुसेना के पहचानपत्र को जलाकर नष्ट कर दिया था।
मेहरा को ढ़ूंढ़ने निकले पाकिस्तानी सैनिकों ने उस पूरे गाँव को जला दिया, लेकिन किसी भी व्यक्ति ने मेहरा की मुखबिरी नहीं की। पाकिस्तानी सैनिकों के अत्याचार को सहते हुए गाँव वालों ने मेहरा को अपने पास पाँच दिनों तक सुरक्षित रखा।
केडी मेहरा को उस हैलिपैड से पहले अगरतला ले जाया गया और फिर वहाँ से शिलॉन्ग पहुंचाया गया, जहाँ उन्हें सैनिक अस्पताल में भर्ती कर उनका इलाज किया गया। शुरुआती इलाज के बाद उन्हें डकोटा विमान में बैठा कर दिल्ली लाया गया। कई महीनों तक मेहरा का इलाज चलता रहा। एक समय तो उनका हाथ काटने तक की नौबत आ गयी। बाद में उनका हाथ तो बच गया लेकिन दूसरी स्वास्थ्य दिक्कतों के चलते उनके उड़ान भरने पर रोक लगा दी गयी।
लड़ाई खत्म होने के पाँच साल बाद उन्होंने वायुसेना से समय से पहले ही अवकाश ग्रहण कर लिया। 4 सिंतबर, 2012 को स्क्वाड्रन लीडर कंवलदीप मेहरा ने 73 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।