Vedic Dwarpal: ये चित्र बनारस के दुर्गा मंदिर के द्वारपाल का है। 18वीं शताब्दी में काशीनरेश महाराजा बलवन्त सिंह (Kashinresh Maharaja Balwant Singh) ने ये बनवाया था, इसके एक हाथ में शंख और दूसरे हाथ में कमल है। मंदिर में आने वाली स्त्रियाँ इस द्वारपाल के माथे पर तिलक कर देती हैं। द्वार की रक्षा करते हुए इसका जीवन कटा। द्वार की रक्षा के साथ साथ द्वार के भीतर जो भी थे, उनकी भी रक्षा करने में इन द्वारपालों ने अपना समस्त जीवन बिताया। संसार के सभी द्वारपालों के पास जितने रहस्य हैं, उतने किसी के पास नहीं।
नंदी शिव के द्वारपाल हैं, जय और विजय विष्णु के द्वारपाल रहें, जो एक श्राप के कारण तीन जन्मों तक राक्षस योनि में जन्में, प्रथम जन्म में हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्ष (Hiranyakashipu and Hiranyaksha), फिर त्रेतायुग में ये दोनों भाई रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्में और तीसरे अंतिम जन्म में कंस और शिशुपाल बने। पार्वती जब एक समय स्नान करने गई थीं तब उन्होंने गणेश को अपना द्वारपाल बनाया था। कुबेर (Kuber) जो रावण के सौतेले भाई हैं, उत्तर दिशा को ध्यान में रखते हैं, वे संसार के रक्षक एवं लोकपाल भी हैं।
वामन अवतार कथा (Vamana Avatar Katha) के अनुसार श्री विष्णु अपने वचन का पालन करते हुए पाताल लोक में राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार करते हैं। स्वर्ग के द्वारपालों ने अपने बहीखातों में ईश्वर की आराधना से बढ़कर मनुष्यों और पशुओं की सेवा करने को सदकर्म कहा। द्वारपालों के मुखों को वरदान रहा कि प्रथम वे ही आगन्तुकों का नाम कहेंगे।
श्रीहरि विष्णु, विश्वामित्र, श्रीराम, राजा हरिश्चंद्र, श्रीमुनि नारद, समस्त देवियाँ, इनके प्रथम चरण द्वार पर पड़ते ही इनकी सूचना में इनका नाम प्रथम द्वारपालों ने ही लिया। वे द्वारपाल जो रहस्यों को मृत्यु तक मन में रखते थे, अपने स्वामी के प्रिय थे, वे सभी श्रेष्ठ द्वारपाल द्वार की महिमा, द्वार की पवित्रता, द्वार की रेखा समझते थे।