Indian Economy: 1980 के दशक के मध्य से अन्तर्राष्ट्रीय ऋण का अस्थिर स्तर खाड़ी युद्ध (Gulf War) के दौरान चरम बिंदु पर पहुंच गया। इससे भारत की आयात बिलों का भुगतान करने की क्षमता खासा प्रभावित हुई, जिससे देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया। जुलाई 1991 में भारत की आर्थिक नियति नये मोड़ पर खड़ी थी, इसकी शुरुआत 1 और 3 जुलाई को लगातार औधें मुंह गिरती रुपये की गिरावट के साथ हुई, जो कि बढ़ते चालू खाता घाटे को काबू में रखने के लिए किया गया था। इसके बाद निर्यात-आयात नीति में बदलाव और नई औद्योगिक नीति की शुरुआत हुई। उस दौरान उद्योग विभाग की बागडोर खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव संभाल रहे थे।
24 जुलाई को वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) के बजट भाषण ने सुधार प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया। उपन्यासकार विक्टर ह्यूगो की मशहूर लाइन धरती पर कोई भी ताकत उस सोच को नहीं रोक सकती जिसका वक्त आ गया है, का हवाला देते हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत के बड़ी आर्थिक ताकत के तौर पर उभरने का ऐलान किया। उन्होनें कहा कि- “भारत अब जाग चुका है। हम ताकतवर होंगे. हम जीतेंगे,” उनके इस बयान के बाद से ही देश ने औपचारिक तौर बड़े आर्थिक बदलाव की ओर अपना सफर शुरू किया।
बत्तीस साल बाद भारत ने न सिर्फ जीत हासिल की है और संकट पर काबू पा लिया है, बल्कि अब भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत जिसे कभी भूखे से मरते लोगों और अकाल से जूझता मुल्क कहा जाता था, अब वो दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था है, हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत को वित्तीय वर्ष 2022-23 के दौरान तीसरा सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल हुआ है।
भारत की विकास गाथा सतत प्रक्रिया है, जो कि जुलाई 1991 में शुरू हुई और इसका श्रेय कई सरकारों को दिया जाना चाहिए, चाहे उनकी वैचारिक विविधताएं और विरोधाभास कुछ भी हों। हालाँकि ये भी एक अनकही सच्चाई है कि आर्थिक सुधार कमोबेश अपरिवर्तनीय हैं। लेकिन ये श्रेय एक के बाद एक आने वाली सरकारों को जाता है कि सभी ने सुधार प्रक्रिया में अपनी-अपनी हिस्सेदारी को जोड़ा है।
हाल ही में अमेरिकी वित्तीय सेवा फर्म कैपिटल ग्रुप (Capital Group) ने इंडिया ग्रोथ स्टोरी (India Growth Story) नाम से एक रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत धर्मनिरपेक्ष विकास की अवधि के लिये तैयार है, जो कि प्रत्यक्ष और अचल संपत्ति निवेश में अहम विस्तार से प्रेरित है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी रौशनी डाली गयी है कि आधार, वस्तु एवं सेवा कर (GST), यूनिफाइड पेमेंट इंटरफेस (UPI- Unified Payment Interface) और उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन कार्यक्रमों जैसे सुधार उपायों ने भारत को आकर्षक उभरती बाजार वाली अर्थव्यवस्था बना दिया है।
इसी क्रम में इंडिया ग्रोथ स्टोरी के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आभार व्यक्त करते हुए ट्विट किया कि- “भारत वैश्विक उज्ज्वल स्थान है और इसमें और भी ज्यादा विकास होने की प्रबल संभावनायें है!”
भारत के पास सबसे बड़ा लाभ युवा जनसांख्यिकी (Youth Demographics) है। रिपोर्ट में कहा गया है, “29 साल की औसत आयु के साथ भारत के पास सबसे आकर्षक जनसांख्यिकीय प्रोफाइल है। जिससे कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में शुमार भारत अपनी उत्पादक क्षमता से लाभ उठा सकता है।”
इसके अलावा भारत की अरबों से ज़्यादा आबादी, जिसे कभी संसाधन बोझ माना जाता था, अब एक वरदान है क्योंकि ये दुनिया के सबसे बड़े कार्यबल के साथ-साथ उपभोक्ता बाजार में तब्दील हो गयी है, लेकिन तेजी से तकनीक से प्रेरित दुनिया में सही नीतियां और स्किल डेवपलमेंट बड़ी चिंता का सब़ब है, अगर इन दो बिंदुओं पर वाज़िब कदम नहीं उठाये गये तो इस आबादी को बोझ में बदलने में देर नहीं लगेगी।
इसके अलावा कई और बड़ी बातों भी आर्थिक रफ्तार को रोकने का काम करती है। श्रम सुधार के कदम आधे-अधूरे, जल्दबाजी में उठाये गये और अनियमित रहे हैं। ये भारत के सुधार एजेंडे में भी मदद नहीं करता है कि देश में हर साल कम से कम 3-4 विधानसभा चुनाव होते हैं। इस तरह राजनीतिक मजबूरियों के चलते अक्सर वोट खोने के डर से केंद्र और राज्य सरकारों को कट्टर सुधारों पर लोकलुभावनवाद को प्राथमिकता देने के लिये मजबूर किया है।
दूसरी ओर सिंगापुर जैसा देश दुनिया में सबसे अच्छी नौकरशाही प्रणालियों में से एक है, भारत ने खुद को हमेशा वैश्विक नौकरशाही सूची में सबसे नीचे पाया है। इसके अलावा व्यापार करने में आसानी के मामले में भारत की ऐतिहासिक रूप से कम रैंकिंग के लिये ‘लालफीताशाही’ अहम वज़हों में से एक रहा है। पिछले कुछ सालों में बड़े पैमाने पर सुधार के बावजूद भारत को असल में व्यापार-अनुकूल केंद्र बनने से पहले बहुत कुछ करने की दरकार है।
भारत के आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी खामी ट्रिकल-डाउन अर्थव्यवस्था की नाकामी रही है। सुधारों का फायदा काफी हद तक शहरी मध्यम वर्ग तक ही सीमित रहा है, जबकि पिछले तीन दशकों में अमीर और गरीब के बीच की खाई तेजी से बढ़ी है।
साल 1991 में टॉप 1 फीसदी अमीकों के पास देश की कुल संपत्ति का 16 प्रतिशत हिस्सा था। साल 2022 में ये आंकड़ा 42.1 फीसदी तक पहुंच गया। इसी अवधि के दौरान निचली 50 फीसदी की संपत्ति में हिस्सेदारी 12.3 प्रतिशत से घटकर 2.8 प्रतिशत हो गई। मौजूदा हालातों में भारत को एक और ‘1991’ जैसे पल की दरकार है, लेकिन इस बार देश की चल रही सुधार प्रक्रिया की गलतियों को सुधारने के लिये कदम उठाने होगें। जैसे-जैसे भारत विश्व मंच पर आगे बढ़ रहा है, देश को सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत है।