Tilka Manjhi:आजादी के रणबांकुरों की लड़ाई और प्रथम स्वाधीनता संग्राम की बात करें तो हमारे जेहन 1857 का गदर, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे और तांत्याटोपे का बलिदान आकार लेने लगता है लेकिन भारत भूमि के इस पावन माटी से अंग्रेजों को खदेड़ देने का अभियान इससे भी कई साल पहले शुरू हो चुका था। आज शान से फहरते इस ध्वज के नीचे तिलका मांझी की अमरता का गान न हो तो आजादी का तराना अधूरा है।
जिस समय ब्रितानी सल्तनत (British Sultanate) साम-दाम, दंड भेद की नीति अपनाकर भारत के चप्पे-चप्पे पर अपना कारोबारी साम्राज्य बढ़ा रही थी तो उस समय बिहार के जंगलों में कोई था जो उनके खिलाफ आंधी बहा रहा था। ब्रितानी साम्राज्य जो कि अभी जमा भी नहीं था, उसे ये बांकुरा चुनौती दे रहा था।
वो भी ऐसा जिसे देख पाना भी नामुमकिन था। जिस जंगल के बीच अंग्रेजों का लड़ना असंभव हो जाता था, उसी जंगल में इस वीर के हर तीर पर मौत का संदेश बनकर बरसते थे। ऐसे थे संथाल जाति (Santhal Commuinty) की शान और भारत की पहचान वीर तिलका मांझी।
तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘सुंदरा मुर्मू’ था। मांझी का असल नाम जाबरा पहाड़िया बताया जाता है।
कहते हैं कि तिलका नाम उन्हें अंग्रेजों ने दिया था। एक बार एक अंग्रेज ने इनकी घूरती लाल आँखों में देखा था। ब्रितानी दस्तावेजों में ये उनकी पहचान बन गयी और इतिहास में तिलका नाम अमर हो गया।
एक तरफ अंग्रेज भारतीय राजाओं को बेबस किये जा रहे थे और दूसरी ओर उनकी वन संपदा पर भी अवैध कब्जा कर रहे थे। ऐसे में पूर्वोत्तर के इलाकों में रहने वाली कई आदिवासी, ग्रामीण, खेतिहर, और पहाड़ी जनजातियां ब्रितानी साम्राज्य के शोषण का शिकार बनीं।
तिलका ने किशोरपन से ये सब देखा था और एक दिन जवान होते तिलका की भुजायें फड़क उठीं। उसने उन जंगलों की शपथ ली जिसने आज तक उसे जीवन दिया था और सिर पर कफन बांधकर हाथों में सजा लिये धनुष बाण।
आदिवासी जनजातियों (Tribal Tribes) ने अपने सामने शक्ति के इस आधुनिक प्रतिमान को देखा तो उनमें भी बल आ गया। सब साथ खड़े हुए और बन गयी तिलका की धनुष बाण वाली सेना। जंगल की गोद में खेले-बढ़े होने के कारण उसके चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे ही, तो इस सेना ने छिटपुट तरीके से अंग्रेजों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। ऐसा कुछ सालों तक चलता रहा और अंग्रेजों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा।
इधर ब्रितानी सरकार के लिये तिलका सिरदर्द बन रहे थे तो उसे जिंदा-मुर्दा पकड़ने पर विचार हो रहा था। उधर तिलका ने जंगल से ही बनचौरी जोर नाम की जगह से विद्रोह का बिगुल फूंक दिया। अंग्रेजों ने एक अफसर क्लीव लैंड (British Officer Cleveland) को तिलका को पकड़ने या खत्म करने के अभियान पर भेजा गया।
इधर तिलका जंगल, तराई और गंगा, ब्रह्मी जैसी नदियों की घाटियों में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते रहे। ब्रितानी कब्जे से अपनी जल, जंगल और जमीन छुड़ाने के लिये संथालियों ने पूरे मनोयोग से हमला बोल दिया था।
अंग्रेज अफसरों के साथ लगातार संघर्ष करते-करते मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना के पर्वतीय इलाकों में छिप-छिप कर तिलका लड़ाई लड़ते रहे और भागलपुर की ओर बढ़ गये। यहां भी अंग्रेजों से उनका भयंकर युद्ध हुआ और कुछ देर में ही अंग्रेजों की ओर से आक्रमण होना बंद हो गया।
इस पर तिलका एक ताड़ के पेड़ पर चढ़ कर देखने लगे कि अंग्रेज सैनिक कहां हैं। इतने में क्लीव लैंड ने अनायास ही ताड़ के पेड़ पर उन्हें देख लिया।
क्लीवलैंड पेड़ के नीचे आया और तिलका मांझी को फंसा हुआ समझकर उन्हें घेर लिये जाने की धमकी देने लगा। तिलका मांझी ने आवाज को निशाना बनाकर ताड़ के पेड़ से ही इतना सटीक तीर मारा कि क्लीव लैंड वहीं गिरकर मर गया।
लेकिन इतिहास की वीर गाथाओं में गद्दारों के नाम भी कुछ पन्ने लिखे हैं। एक रात तिलका की लोकप्रियता से जलने वाले गद्दार सरदार जाउदाह (Traitor Sardar Jaudah) ने संथाली शिरोमणियों पर आक्रमण कर दिया। कई वीर मारे गये।
इधर क्लीव लैंड की हत्या के बाद तिलका को पकड़ना अंग्रेजों के लिए और जरूरी था। उस दिन तिलका मांझी बच निकले। कुछ दिन बाद एक युद्ध के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जंगल के लड़ाके को साल 1785 में जंगल में ही पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गयी। तिलका मांझी का नाम उस वीर शख्सियत के तौर पर लिया जाता है, जिसने ब्रितानी शासन के खिलाफ खुला विद्रोह किया और प्राण न्यौछावर कर दिये।