बस यूं ही!
…जिस आंदोलन में वामपंथियों और कांग्रेसियों का इकोसिस्टम (Ecosystem) एक्टिव हो जाये, समझ लीजिए आंदोलन में बड़े पैमाने पर घालमेल है।
किसान आंदोलन। समय कोरोना का दूसरा वेव असर चारों तरफ, लॉकडाउन लगाने की मांग, मृत्यु दर बढ़ने लगी है और रिकवरी रेट घटने, शमशान घाट में दिन-रात लाशें जल रही है।
वहीं दूसरी तरफ इन चीजों से इतर कांग्रेस, लेफ्ट और इनके साथ जुड़े अन्य दलों से संबंधित 31 संगठनों द्वारा एक किसानों का आंदोलन शुरू किया जाता है। यह कोई स्वतः स्फूर्त पैदा हुआ आंदोलन नहीं है। पहले CAA में घूम-घूमकर दिल्ली जला चुके वामपंथियों-कांग्रेसियों के इकोसिस्टम (Left-Congress Ecosystem) के कोहिनूर हरियाणा में योगेंद्र यादव, पंजाब में आढ़तियों का कर्ज उतारने की होड़ में शामिल स्वंय कैप्टेन अमरिंदर सिंह और अकालियों द्वारा घूम-घूमकर शुरू की गई है क्योंकि चुनाव सिर पर है।
2-4 फ़ोटो को सर्कुलेट कर भावनाओं में छाती पीटने वालों को मालूम होना चाहिए कि, यह शुद्ध रूप से किसानों का नहीं लेकिन राजनीतिक दलों का आंदोलन जरूर है। चूंकि यह छुपाना एजेंडा के लिहाज से नितांत आवश्यक है इसलिए यह जानकारी आपको अभी तक नहीं मिली होगी।
कल तक इस आंदोलन में किसानों द्वारा लिखित में रेलवे ट्रैक छोड़ने के समझौते के बाद वहां आ धमके खालिस्तानी आतंकी, भिंडरावाले की तस्वीर लेकर बैठने और खालिस्तान ज़िंदाबाद के नारे ही सुनाई पड़ रहे थे। ऊँचा अपवाद होगा।
यह दृश्य आंखों से ओझल भी नहीं हुआ था कि हरियाणा में कथित किसानों की तरफ से पत्थरबाजी की खब़र आने लगी जबकि पत्थरबाजी का ट्रेंड कहाँ से और किसके उनसे तार जुड़ते है। बताने की जरूरत नहीं है।
सवाल वहीं है कि मौजूदा समय में किसान आंदोलन क्यों? आज मैं देहात के क्षेत्र में कुछ दिनों से कार्य कर रहा हूँ। छोटे से लेकर बड़े किसान कम से कम मुझे इस कानून के चक्कर में प्रभावित होने की शिकायत करते नहीं दिखें। उनकी आज भी वहीं बेसिक समस्या है सिंचाई की व्यवस्था और ट्यूबवेल के बिजली बिल और बिजली विभाग का शोषण बाकी प्रकृति से नाराजगी। आज छोटे किसानों के खाते में पहुंचने वाले किसान PM सम्मान निधि से वो खुश है क्योंकि छोटे किसानों की जरूरत भी छोटी ही होती है, नीम कोटेड यूरिया से यूरिया की कालाबाज़ारी (Urea black marketing) रुकने से और टाइम से यूरिया मिलने से उसके चेहरे पर संतोष है। थोक की संख्या में किसान आयुष्मान भारत का हिस्सा बना है। बड़े किसान जेनेरिक खेती और पॉली हाउस खेती पर मिलने वाली सब्सिडी का लाभ ले रहा है। मृदा सॉइल कार्ड से खेत की उर्वरक क्षमता में सुधार की दिशा में बढ़ रहा है। अन्य समस्या भी हो सकती है फिर भी सवाल वहीं है एमएसपी व्यवस्था!
प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सरकार उसी व्यवस्था को जारी रखने की बात कर रही है, जिसे 1965 में एलके झा समिति की सिफारिश पर तत्कालीन सचिव बी. शिवरामन के नेतृत्व में मुहर लगाई गई थी और कृषि मूल्य आयोग का गठन हुआ और न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था लागू की गई थी।
यह बात गौर करने लायक है कि 26 नवम्बर 2020 तक इस देश में एमएसपी गारंटी कानून के रूप में नहीं था. क्योंकि यह पूरा चक्र हर साल एक जैसा नहीं रहता। मौसम से लेकर कई अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम इस व्यवस्था को प्रभावित करते है। कहीं कोई आवाज़ नहीं थी, एमएसपी पर किसानों को कितना मिल रहा है या कितना नहीं? किसी को चिंता नहीं थी क्योंकि सभी का एक नेक्सस था, जो सुविधानुसार अपना खेल खेल रहा था। इसमें पंजाब की मंडियों से लेकर महाराष्ट्र की मंडियों तक में राजनीतिक विचारधारा की सड़ांध पलती रही। किसानों का भला तो नहीं हुआ लेकिन मौजूदा किसानी व्यवस्था से कई धनाढ्य जरूर बन गए और उसी कमाई दौलत से आढ़तियों और राजनीतिक दलों द्वारा किसानों को गुलाम बनाने की प्रथा जारी रखी गई। जिसमें ब्याज पर पैसा से लेकर कुछ उधार पर पैसा देकर ज़मीन हथिया लेना आदि शामिल रहा है, और यहीं ग्रामीण परिवेश की असलियत भी है लेकिन आज इस नेक्सस पर बाहर से हस्तक्षेप किया गया है तो इनका बिलबिलाना स्वाभाविक था। जैसे एक मोहल्ले में पहले 1 ही किराना की दुकान थी अब ठीक उसके सामने 1 और खुल गई है।
आज के आंदोलन को कोरोना काल में दिल्ली को बंधक बनाकर आढ़तियों की मदद के साथ-साथ CAA में फूंक चुके कारतूसों को दुबारा माइलेज लेना भर है और जरूरत पड़ी तो फिर किसी किसान को कोई संजय सिंह जैसे आम आदमी पार्टी के नेता बहला फुसलाकर दिल्ली लायेगें और उसका ब्रेनवॉश कर पेड़ पर लटकार उसकी हत्या कर, इस कथित किसान आंदोलन के उद्देश्य की समाप्ति की घोषणा कर दी जाएगी।
बाकी किसान आंदोलन में मिलावट है, इसे बस यूं समझिए कि जहां वामियों, कांगियों का हस्तक्षेप हो वो आंदोलन हो ही नहीं सकता। किसान आंदोलन हमने देखें है जब दिल्ली की तरफ महेंद्र टिकैत आदि दिल्ली कूच करते थे और सरकार नतमस्तक होती थी। आज कथित किसान कंटेनर में ट्रक भरकर लाता है उसे इंडिया गेट पर जलाता है फिर उसे दूसरे स्थल पर भी जलाने ले जाता है।
आप लोग क्या समझते है? क्या सरकार के पास मौजूद इंटेलीजेंसी में इतना जंग लग गया है कि, वो किसान आंदोलन और राजनीतिक आंदोलन की रिपोर्ट प्राप्त नहीं कर पा रही है। बड़ा ही हास्यास्पद है।
बड़े-बड़े वाहनों को लेकर दिल्ली में घुसने की जिद्द को अगर हरियाणा आदि बॉर्डर पर सड़कों का कटाव करके रोका जा रहा है तो अर्बन नक्सली उसे नक्सलियों से निपटने के तौर तरीके बता रहा है। यह वहीं गैंग है जो 10 मिनट दिल्ली के ट्रैफिक में फंसने पर ट्वीट करके यातायात सुगम करने की मांग करता है।
किसान आंदोलन को मेरा समर्थन है लेकिन राजनीतिक आंदोलन को दूर से ही प्रणाम
बाद बाकी आंदोलन कैसा भी हो सरकार को आगे बढ़कर एक डेलिगेशन शुरू में ही भेजना चाहिए था। जब कथित किसानों के पंजाब से चलने की खबर मिली थी, कोई आम राय बनाने पर कोशिश करनी चाहिए थी लेकिन जहां आंदोलन राजनीतिक हो जाता है, वहां सरकारी डेलिगेशन जैसी स्थिति नहीं होती क्योंकि अमुक आंदोलन का उद्देश्य व्यक्तिगत कल्याण में ही सिमट जाता है।
साभार – कुंदन वत्स