ममता बनर्जी
पश्चिम बंगाल जनादेश (West Bengal Mandate) 2011 : अपनी डायरी
पोरिबर्तन की जयकार हो रही थी। माँ, माटी, मानुष की जीत हुई थी। ममता की जीत। ममता की जिद्दी धुन और लंबे संघर्ष के कारण लगातार 34 वर्षों से सत्तासीन वाम मोर्चे की हार हुई। 2006 के विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद बिना निराश हुए ममता बनर्जी लड़ती रहीं। लोगों के भरोसे को संगठित रूप देती रहीं। जबकि 2006 में भी वाम मोर्चे की विजय से मान लिया गया था कि गाँव, शहर के हर मोड़ और मोहल्ले में संगठित कैडर से लैस वाम मोर्चे को हराना असंभव है!
अनेक जगहों पर तो किसी और पार्टी के झंडे को लगाना भी संभव नहीं था। वोट देना तो दूर की बात। वाम मोर्चे से मजबूती से लड़ने, हराने के बारे में विशेषकर, सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने तो प्रयास करना भी छोड़ दिया। ममता बनर्जी ने अपनी मूल पार्टी से विद्रोह कर तृणमूल कांग्रेस बनायीं, इसके पीछे केंद्र में भाजपा के उभार के बाद शक्ति संतुलन, गठजोड़ के लिए कांग्रेस का वाम दलों के प्रति दोस्ताना रवैया (Friendly attitude) रहा।
लंबे अरसे बाद अगर किसी नेता ने वाम मोर्चे से टकराने, हराने की कोशिश की तो सिर्फ ममता बनर्जी। ममता बनर्जी राजग गठबंधन का भी हिस्सा रहीं। मंत्री बनीं। यह सबको पता है। पर, वो गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर के एकला चलो की पथिक हैं। जुझारूपन उनके स्वभाव का मजबूत पक्ष है। 2009 के लोकसभा चुनाव में ही बंगाल की जनता ने अपना पक्ष सुना दिया था कि ममता दीदी मजबूत विकल्प हैं। जन शक्ति के दम पर वह सड़क से संसद तक लड़ती-भिड़ती रहीं। 2011 के चुनाव परिणाम के एक दिन पहले ही तृणमूल कार्यकर्ता जश्न की तैयारी कर रहे थे। ममता बनर्जी ने अनथक संघर्ष (Relentless struggle)-लाठी-डंडे की चोट को सहते-जूझते हुए इतिहास रच दिया।
2011 में चुनाव परिणाम से खुश होकर एक कार्यकर्ता ने कहा था-‘ देख लेना कम्युनिस्ट अब यहाँ नहीं रहेगा…लाइट लगाकर खोजने पर भी नहीं मिलेगा।’ क्या 2021 में यह सच हो रहा है?
साभार – प्रमोद कुमार पांडेय